हम जो चाहते हैं कि सुख ही सुख बच जाए तो वह संभव नहीं है, और अगर बच भी गया तो सुख भी दुख देने लगेगा

 हम जो चाहते हैं कि सुख ही सुख बच जाए तो वह संभव नहीं है, और अगर बच भी गया तो सुख भी दुख देने लगेगा

ओशो- एक फकीर हुआ नसरुद्दीन। उसकी कहानी कहता रहता हूं। वह एक गांव के बाहर बैठा हुआ है। सांझ का वक्त है, अंधेरी रात है और एक आदमी आकर घोड़े से उतरा है। उस आदमी ने नसरुद्दीन के सामने एक बहुत बड़ी थैली रख दी और कहा कि इसमें करोड़ों के हीरे-जवाहरात हैं और मैं इसे किसी को भी देने को तैयार हूं, मुझे जरा सा सुख मिल जाए। मैं गांव-गांव खोज रहा हूूं, मुझे सुख नहीं मिल रहा है। मैं एकदम परेशान हो गया हूं, मैं मर जाऊं या क्या करूं? सब है मेरे पास, एक सुख नहीं है। तो किसी ने मुझसे कहा, एक फकीर है नसरुद्दीन उसके पास चले जाओ। तुम्हीं हो? मैं तुम्हारे पास आया हूं? फकीर खड़ा हो गया और उसने कहा कि मैं ही हूं। उसने कहा, तू सुख चाहता है? उस आदमी ने कहा, सुख चाहिए, सब खोने को तैयार हूं, एक क्षण के लिए भी सुख मिल जाए।उस फकीर ने इतनी बात पूछी और वह थैली लेकर फकीर भाग गया। वह आदमी चिल्लाया कि यह क्या कर रहे हो? मैं तो सोचता था तुम ब्रह्मज्ञानी हो, लेकिन जब वह नहीं रुका तो वह आदमी उसके पीछे भागा। गांव फकीर का तो जाना-माना था। वह गली-कूचे चक्कर देने लगा। गांव इकट्ठा हो गया है। वह चिल्ला रहा है कि मुझे लूट लिया, मैं मर गया, मेरी जिंदगी खराब हो गई। मेरी जिंदगी भर की कमाई है उस थैली में और यह आदमी चोर निकला। यह ब्रह्मवादी नहीं है, इसे पकड़ो और मुझे बचाओ, मैं मरा! सारे गांव के चक्कर लगा कर फकीर उस जगह वापस आ गया और उसने थैली पटक दी और झाड़ के पास खड़ा हो गया। वह अमीर आदमी आया, उसने थैली छाती से लगाई और कहाः हे भगवान, धन्यवाद! उस फकीर ने कहाः कुछ सुख मिला? यह भी एक रास्ता है सुख पाने का। अब तुम्हारे लिए यही रास्ता बचा है। तुम्हारे लिए दूसरा रास्ता नहीं है, क्योंकि तुम क्या करोगे!हम जो चाहते हैं, सुख ही सुख बच जाए, वह संभव नहीं है। अगर बच भी गया तो सुख भी दुख देने लगेगा। तब जिसको मैं कहता हूं, जो जीवन को उसकी सच्चाई में देखता है, आकांक्षाओं में नहीं। दो रास्ते हैं–एक तो मैं आकांक्षाओं से जीवन को देखने जाऊं। जब मैं कहता हूं, सुख ही सुख चाहिए तब मैं जीवन की फिक्र नहीं कर रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं, मुझे चाहिए, लेकिन मैं यह नहीं पूछता कि जीवन में मेरी फिकर है कुछ। मैं नहीं था और जीवन था और मैं नहीं रहूंगा, जीवन रहेगा और रत्ती भर कहीं कोई पत्ता नहीं हिलेगा, कोई लहर नहीं कंपेगी। कहीं कुछ भी नहीं होगा। मेरे होने न होने से जीवन को क्या फिकर है! मैं इधर दो क्षण के लिए हूं तो कहता हूं, ऐसा चाहिए, ऐसा चाहिए। जब मैं यह देखता हूं कि मैं नहीं था और सब था और मैं नहीं रहूंगा, सब होगा तब उचित है कि मैं कहूं कि क्या होना चाहिए।तो जब मैं देखूंगा कि क्या है तब मुझे पता चलेगा कि दुख और सुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और जब दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं तो किसको बचाना और किसको छोड़ना। जब मैं राजी हूं, सुख आया तो सुख के लिए, दुख आए तो दुख के लिए। और यह जो राजी होना है, यह जो एक्सेप्टेबिलिटी है, यह एक ऐसे आनंद में उतार देती है जिसका हमें कुछ भी पता नहीं है। वह आनंद दुख विरोधी नहीं है, वह आनंद दुख में भी रहेगा, वह आनंद सुख का पर्यायवाची नहीं है क्योंकि सुख चला जाएगा तब भी वह रहेगा। उसको आनंद शब्द कहने से भी थोड़ी भूल हो जाती है इसलिए जो और थोड़ी समझपूर्वक बुद्धि का प्रयोग किया तो बुद्ध ने आनंद का उपयोग नहीं किया, शांति का उपयोग किया क्योंकि आनंद में कहीं न कहीं सुख का खयाल है। हम कितने ही उसको बचाने की कोशिश करें, आनंद में कहीं न कहीं सुख का भाव है। एक शांत मन रह जाता है–सुख हो या दुख हो, और वह तभी रह सकता है जब दोनों एक से स्वीकार हो गए हैं क्योंकि दोनों हैं और स्वीकार करने की चेष्टा हमें नहीं करनी है। मतलब अस्वीकार करने का कोई अर्थ ही नहीं है, यह हमें दिखाई पड़ जाए तो बात खत्म हो गई!लेकिन हम आकांक्षाएं आरोपित कर रहे हैं, इसलिए हमने इस तरह के धर्म खड़े कर लिए हैं, गुरु भी खड़े कर लिए हैं जो हमारी आकांक्षाओं की तृप्ति के रास्ते बता रहे हैं। वे हमसे कहते हैं कि हम परम आनंद में पहुंचा देंगे, हम पहुंचाने की कोशिश करते हैं। हम कभी पूछते भी नहीं कि होने की आकांक्षा ही दुखी आदमी का लक्षण है और दुखी आदमी कैसे परम आनंदित हो सकता है?–मंत्र पढ़ने से? इतनी सस्ती तरकीब काम कर सकती है कि परम आनंद मिल जाए, कि हम सोचते हैं कि परम आनंद मिल जाएगा उपवास करने से, कि रात खाना न खाने से, सिगरेट न पीने, कि चाय न पीने से परम आनंद मिल जाएगा। अगर इतना ही फासला है तो दुखी और परम आनंदित आदमी में कोई फर्क नहीं है। सिगरेट, पान आदि का फर्क है, ऐसा कमजोरी का फर्क है कि कोई हिम्मत का आदमी जाना नहीं चाहेगा। वह सस्ता सा फर्क मोक्ष में और पृथ्वी पर अगर है कि मोक्ष में लोग सिगरेट नहीं पीते, चाय नहीं पीते और सिनेमा नहीं देखते–इतना ही अगर फर्क है तो कौन मोक्ष जाना चाहेगा? इसका कोई मतलब नहीं रह गया। फर्क कुछ ज्यादा रेडिकल होना चाहिए। यह कोई फर्क ही नहीं होगा।

फर्क का मतलब है कि हम जहां हैं उसमें हमारी दो तरह की जिंदगी हो सकती है। आकांक्षाओं को आरोपित करने वाली और यथार्थ को स्वीकार करने वाली। बस दो तरह की जिंदगी होती है। आकांक्षाओं को आरोपित करने वाला आदमी है और यथार्थ को स्वीकार करने वाला है। आकांक्षाओं को आरोपित करने वाला, चाहे कुछ भी करे, दुख में रहेगा। ऐसा नहीं कि जो आकांक्षाओं को आरोपित नहीं करता उसको दुख नहीं आएगा। यह मैं नहीं कह रहा हूं। दुख तो आएंगे लेकिन वह दुख में नहीं रहेगा।

आकांक्षा है ही! हम क्या कर रहे हैं? हम उनको भी नहीं देख रहे हैं। उनके अनुकूल जगत को देखने की कोशिश में लगे हैं। आकांक्षाएं तो रियलिटी का हिस्सा हैं। यह तो यथार्थ है कि मुझमें है और मुझमें है और मुझमें इच्छा है कि मैं अमर रहूं, यह मुझे जानना चाहिए लेकिन बजाय इसके जानने के मैं वह शास्त्र पकड़ लूंगा जिसमें लिखा है कि हां–अमर रहना है, पक्का है, और जो हमारे पक्ष में हैं वे अमर रह जाएंगे, जो हमारे पक्ष में नहीं हैं वे मर जाएंगे!मैं यह कह रहा हूं कि आदमी दुखी है, इसलिए सुख खोजना चाहता है और चूंकि सुख खोजता ही रहेगा और कभी यह न देखेगा कि सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं इसलिए कितना ही सुख खोजें दुखी रहेंगे और सुख खोजते रहेंगे। जो कह रहा हूं वह यह कह रहा हूं कि मूलतः उसको दिखाई नहीं पड़ रहा है कि सुख की खोज नहीं है। एक बुनियादी भूल हो रही है। वह भूल यह हो रही है कि वह दुख को अस्वीकार करके सुख को खोज रहा है, जब कि सुख दुख का ही हिस्सा है–यानी मैं जन्म खोज रहा हूं और मरना नहीं चाहता, जवानी खोज रहा हूं और बूढ़ा नहीं होना चाहता, तो बड़ी मुश्किल बात है। जवान होना चाह रहा हूं तो बूढ़ा होना उसका हिस्सा ही होगा, वह उतरती हुई जवानी का नाम है। पूर आ गया तो उतरेगा ही, सुबह हो गई तो सांझ होगी। अब सुबह तो मैं खोज रहा हूं और सांझ से बचना चाहता हूं और जब मैंने सुबह खोजी तभी मैंने सांझ का इंतजाम कर दिया, अब सांझ होगी। अब अगर मैं सिर्फ सुबह को ही खोजूं तो फिर शाम को दुख होगा और रातभर फिर सुबह की खोज करूंगा, फिर सुबह आएगी और फिर सांझ की तैयारी शुरू होगी, मैं फिर दुखी होऊंगा।

और मजा यह है कि न तो आपकी खोज से सुबह आ रही है, न सांझ हो रही है। सुबह अपने आप आ रही है, सांझ अपने से आ रही है। आपकी जो परेशानी है वह यह है कि एक पर आप आरोप लगा रहे हैं कि बस यही रह जाए और एक को आप कह रहे हैं कि यह न हो और उनको दोनों से, आपसे कोई मतलब नहीं है कि आप हो या नहीं हो, वह होते रहेंगे! क्रमशः……..

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३