ओशो- मनुष्य के साथ यह दुर्भाग्य हुआ है। यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य है, अभिशाप है जो मनुष्य के साथ हुआ है कि हर आदमी किसी और जैसा होना चाह रहा है और कौन सिखा रहा है यह? यह षडयंत्र कौन कर रहा है? यह हजार-हजार साल से शिक्षा कर रही है। वह कह रही राम जैसे बनो, बुद्ध जैसे बनो। या अगर पुरानी तस्वीरें जरा फीकी पड़ गईं, तो गांधी जैसे बनो, विनोबा जैसे बनो। किसी न किसी जैसे बनो लेकिन अपने जैसा बनने की भूल कभी मत करना, किसी जैसे बनना, किसी दूसरे जैसे बनो क्योंकि तुम तो बेकार पैदा हुए हो। असल में तो गांधी मतलब से पैदा हुए। तुम्हारा तो बिलकुल बेकार है, भगवान ने भूल की जो आपको पैदा किया। क्योंकि अगर भगवान समझदार होता तो राम और गांधी और बुद्ध ऐसे कोई दस पंद्रह आदमी के टाइप पैदा कर देता दुनिया में। या अगर बहुत ही समझदार होता, जैसा कि सभी धर्मों के लोग बहुत समझदार हैं, तो फिर एक ही तरह के ‘टाइप’ पैदा कर देता। फिर क्या होता? अगर दुनिया में समझ लें कि तीन अरब राम ही राम हों तो कितनी देर दुनिया चलेगी? पंद्रह मिनट में सुसाइड हो जाएगा। टोटल, यूनिवर्सल सुसाइड हो जाएगा। सारी दुनिया आत्मघात कर लेगी। इतनी बोर्डम पैदा होगी राम ही राम को देखने से। सब मर जाएगा एक दम, कभी सोचा? सारी दुनिया में गुलाब ही गुलाब के फूल हो जाएं और सब पौधे गुलाब के फूल पैदा करने लगें, क्या होगा? फूल देखने लायक भी नहीं रह जाएंगे। उनकी तरफ आंख करने की भी जरूरत नहीं रह जाएगी। नहीं, यह व्यर्थ नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना व्यक्तित्व है। यह गौरवशाली बात है कि आप किसी दूसरे जैसे नहीं हैं और यह कंपेरिजन कि कोई ऊंचा है और आप नीचे हो, नासमझी का है। कोई ऊंचा और नीचा नही है! प्रत्येक व्यक्ति अपनी जगह है और प्रत्येक व्यक्ति दूसरा अपनी जगह है। नीचे-ऊंचे की बात गलत है। सब तरह का वैल्युएशन गलत है। लेकिन हम यह सिखाते रहे हैं।
विद्रोह का मेरा मतलब है, इस तरह की सारी बातों पर विचार, इस तरह की सारी बातों पर विवेक, इस तरह की एक-एक बात को देखना कि मैं क्या सिखा रहा हूं इस बच्चे को। जहर तो नहीं पिला रहा हूं? बड़े प्रेम से भी जहर पिलाया जा सकता है और बड़े प्रेम से शिक्षक, मां-बाप जहर पिलाते रहे हैं, लेकिन यह टूटना चाहिए।
दुनिया में अब तक धार्मिक क्रांतियां हुई हैं। एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोग हो गए। कभी समझाने-बुझाने से हुए, कभी तलवार छाती पर रखने से हो गए लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा। हिंदू मुसलमान हो जाए तो वैसे का वैसा आदमी रहता है, मुसलमान ईसाई हो जाए तो वैसा का वैसा आदमी रहता है, कोई फर्क नहीं पड़ा धार्मिक क्रांतियों से। राजनैतिक क्रांतियां हुई हैं। एक सत्ताधारी बदल गया, दूसरा बैठ गया। कोई जरा दूर की जमीन पर रहता है, वह बदल गया, तो जो पास की जमीन पर रहता है, वह बैठ गया। किसी की चमड़ी गोरी थी वह हट गया तो किसी की चमड़ी काली थी वह बैठ गया, लेकिन भीतर का सत्ताधारी वही का वही है।
आर्थिक क्रांतियां हो गई हैं दुनिया में। मजदूर बैठ गए, पूंजीपति हट गए। लेकिन बैठने से मजदूर पूंजीपति हो गया। पूंजीवाद चला गया तो उसकी जगह मैनेजर्स आ गए। वे उतने ही दुष्ट, उतने ही खतरनाक! कोई फर्क नहीं पड़ा। वर्ग बने रहे। पहले वर्ग था, जिसके पास धन है—वह, और जिसके पास धन नहीं है—वह। अब वर्ग हो गया—जिसमें धन वितरित किया जाता है—वह और जो धन वितरित करता है—वह। जिसके पास ताकत है, स्टेट में जो है वह, राज्य में जो है वह, और राज्यहीन जो है वह। नया वर्ग बन गया, लेकिन वर्ग कायम रहा। अब तक इन पांच-छह हजार वर्षों में जितने प्रयोग हुए हैं मनुष्य के लिए, कल्याण के लिए, सब असफल हो गए। अभी तक एक प्रयोग नहीं हुआ है, वह है शिक्षा में क्रांति। वह प्रयोग शिक्षक के ऊपर है कि वह करे। और मुझे लगता है, यह सबसे बड़ी क्रांति हो सकती है। शिक्षा में क्रांति सबसे बड़ी क्रांति हो सकती है। राजनीतिक, आर्थिक या धार्मिक कोई क्रांति का इतना मूल्य नहीं है जितना शिक्षा में क्रांति का मूल्य है। लेकिन शिक्षा में क्रांति कौन करेगा? वे विद्रोही लोग कर सकते हैं जो सोचें, विचार करें—हम यह क्या कर रहे हैं! और इतना तय समझ लें कि जो भी आप कर रहे हैं वह जरूर गलत है क्योंकि उसका परिणाम गलत है। यह जो मनुष्य पैदा हो रहा है, यह जो समाज बन रहा है, यह जो युद्ध हो रहे हैं, यह जो सारी हिंसा चल रही है, यह जो सफरिंग इतनी दुनिया में है, इतनी पीड़ा, इतनी दीनता, दरिद्रता है, यह कहां से आ रही है। यह जरूर हम जो शिक्षा दे रहे हैं उसमें कुछ बुनियादी भूलें हैं। तो यह विचार करें, जागें। लेकिन आप तो कुछ और हिसाब में पड़े रहते होंगे।
शिक्षकों के सम्मेलन होते हैं तो वे विचार करते हैं, विद्यार्थी बड़े अनुशासनहीन हो गए, इनको डिसिप्लिन में कैसे लाया जाए! कृपा करें, इनको पूरा अनुशासनहीन हो जाने दें, क्योंकि आपके डिसिप्लिन का परिणाम क्या हुआ है, पांच हजार साल से—डिसिप्लिन में तो थे, क्या हुआ? और डिसिप्लिन सिखाने का मतलब क्या है? डिसिप्लिन सिखाने का मतलब है कि हम जो कहें उसको ठीक मानो। हम ऊपर बैठें, तुम नीचे बैठो, हम जब निकलें तो दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम करो या और ज्यादा डिसिप्लिन हो तो पैर छुओ और हम जो कहें उस पर शक मत करो, हम जिधर कहें उधर जाओ, हम कहें बैठो तो बैठो, हम कहें उठो तो उठो। यह डिसिप्लिन है? डिसिप्लिन के नाम पर आदमी को मारने की करतूतें हैं, उसके भीतर कोई चैतन्य न रह जाए, उसके भीतर कोई होश न रह जाए, उसके भीतर कोई विवेक और विचार न रह जाए। मिलिटरी में क्या करते हैं? एक आदमी को तीन-चार साल तक कवायद करवाते हैं—लेफ्ट टर्न, राइट टर्न। कितनी बेवकूफी की बातें हैं कि आदमी से कहो कि बाएं घूमो, दाएं घूमो। घुमाते रहो तीन-चार साल तक, उसकी बुद्धि नष्ट हो जाएगी। एक आदमी को बाएं-दाएं घुमाओगे, क्या होगा? कितनी देर तक उसकी बुद्धि स्थिर रहेगी। उससे कहो बैठो, उससे कहो खड़े होओ, उससे कहो दौड़ो और जरा इनकार करे तो मारो। तीन-चार वर्ष में उसकी बुद्धि क्षीण हो जाएगी, उसकी मनुष्यता मर जाएगी। फिर उससे कहो, राइट टर्न, तो वह मशीन की तरह घूमता है। फिर उससे कहो, बंदूक चलाओ, तो वह मशीन की तरह बंदूक चलाता है। आदमी को मारो, तो वह आदमी को मारता है। वह मशीन हो गया, वह आदमी नहीं रह गया—यह डिसिप्लिन है? और यह है डिसिप्लिन, हम चाहते हैं कि बच्चों में भी हो। बच्चों में मिलिट्राइजेशन हो…उनको भी एन.सी.सी. सिखाओ, मार डालो दुनिया को, एन.सी.सी. सिखाओ, सैनिक शिक्षा दो, बंदूक पकड़वाओ, लेफ्ट-राइट टर्न करवाओ, मारो दुनिया को। पांच हजार साल में आदमी को…मैं नहीं समझता कि कोई समझ भी आई हो कि चीजों के क्या मतलब है? डिसिप्लिनड आदमी डेड होता है। जितना अनुशासित आदमी होगा उतना मुर्दा होगा।
तो क्या मैं यह कह रहा हूं कि लड़कों को कहो कि विद्रोह करो, भागो, दौड़ो, कूदो क्लास में, पढ़ने मत दो। यह नहीं कह रहा हूं। यह कह रहा हूं कि आप प्रेम करो बच्चों को। बच्चों के हित, भविष्य की मंगलकामना करो। उस प्रेम और मंगलकामना से एक डिसिप्लिन आनी शुरू होती है जो थोपी हुई नहीं है, जो बच्चे के विवेक से पैदा होती है। एक बच्चे को प्रेम करो और देखो कि वह प्रेम उसमें एक अनुशासन लाता है। वह अनुशासन लेफ्ट-राइट टर्न करने वाला अनुशासन नहीं है। वह उसकी आत्मा से जगता है, प्रेम की ध्वनि से जगता है, थोपा नहीं जाता है, उसके भीतर से आता है। उसके विवेक को जगाओ, उसके विचार को जगाओ, उसको बुद्धिहीन मत बनाओ। उससे यह मत कहो कि हम जो कहते हैं वही सत्य है।
सत्य का पता है आपको? लेकिन दंभ कहता है कि मैं जो कहता हूं वही सत्य है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आप तीस साल पैदा पहले हो गए, वह तीस साल पीछे हो गया तो आप सत्य के जानकार हो गए और वह सत्य का जानकार नहीं रहा। जितने अज्ञान में आप हो उससे शायद हो सकता है वह कम अज्ञान में हो क्योंकि अभी वह कुछ भी नहीं जानता है, और आप न मालूम कौन-कौन सी नासमझियां, न मालूम क्या-क्या नॉनसेंस जानते होंगे, लेकिन आप ज्ञानी हैं क्योंकि आपकी तीस साल उम्र ज्यादा है। क्योंकि आप ज्ञानी हैं, आपके हाथ में डंडा है इसलिए आप उसको डिसिप्लिनड करना चाहते हैं। नहीं, डिसिप्लिनड कोई किसी को नहीं करना चाहिए, न कोई किसी को करे तो दुनिया बेहतर हो सकती है। प्रेम करें, प्रेम आपका हक है। आप प्रेमपूर्ण जीवन जीयें। आप मंगल कामना करें उसकी, सोचें उसके हित के लिए कि क्या हो सकता है, वैसा करें। और वह प्रेम, वह मंगल कामना असंभव है कि उसके भीतर अनुशासन न ला दे, आदर न ला दे!
फर्क होगा। अभी जो जितना चैतन्य बच्चा है वह उतना ही ज्यादा इनडिसिप्लिन में होगा और जो जितना ईडियट है, जो जितना जड़बुद्धि है वह उतना डिसिप्लिन में होगा। जिस बात को में कह रहा हूं अगर प्रेम के माध्यम से अनुशासन आए तो जो जितना ईडियट है उसमें कोई अनुशासन पैदा न होगा; जो जितना चैतन्य है उसमें उतना ज्यादा अनुशासन पैदा होगा। अभी अनुशासन में वह है जो डल है, जिसमें कोई जीवन नहीं है, स्फुरणा नहीं है। अभी वह अनुशासनहीन है—जिसमें चैतन्य है, विचार है, अगर प्रेम हो तो वह अनुशासनबद्ध होगा, जिसमें विचार है और चैतन्य है, और वह अनुशासनहीन होगा जो जड़ है।
जड़ता के अनुशासन का कोई मूल्य है? नहीं, चैतन्यपूर्वक जो अनुशासन है उसका मूल्य है क्योंकि चैतन्यपूर्वक अनुशासन का अर्थ यह होता है कि वह विचारपूर्वक अनुशासन में है और अगर आप गलत अनुशासन की मांग करेंगे तो वह इनकार कर देगा। अगर पाकिस्तान-हिंदुस्तान के युवक विवेकपूर्वक अनुशासन में हों तो क्या यह संभव है कि पाकिस्तान की हुकूमत उनसे कहे कि जाओ, और हिंदुस्तान के लोगों को मारो या हिंदुस्तान के युवक, अगर अनुशासन में विवेकपूर्वक हों तो क्या यह संभव है कि कोई राजनीतिज्ञ उनसे कहे कि जाओ और पाकिस्तान के लोगों को मारो!…तो वह कहेंगे कि यह बेवकूफी की बातें बंद करो। हम समझते हैं कि क्या विवेकपूर्ण है, यह हम नहीं कर सकते, लेकिन अभी तो जड़बुद्धियों को अनुशासन सिखाया गया है, उनसे कहा है जाए—मारो, फिर वे बिलकुल नहीं देखते, क्योंकि अनुशासन ही सत्य है, उसको ही मानना है।
दुनिया में राजनीतिज्ञों ने, धर्म पुरोहितों ने खूब शिक्षा दी है कि अनुशासित होना चाहिए। क्यों? क्योंकि अनुशासित आदमी में कोई विद्रोह नहीं होता, कोई विवेक नहीं होता, कोई विचार नहीं होता। उनकी तो पूरी कोशिश है, सारी दुनिया मिलिटरी कैंप हो जाए। कोई आदमी कोई गड़बड़ न करे, उनकी कोशिश चल रही है हजार-हजार ढंग से।
शायद आपको पता हो या न पता हो, अब तक बहुत से रास्ते अख्तियार किए गए हैं। अब रूस में उन्होंने माइंड-वॉश निकाल लिया है, एक मशीन बना ली है। जिस आदमी के दिमाग में विद्रोह होगा, विचार होगा उसके दिमाग को वह मशीन के द्वारा साफ कर देंगे, उसके विचार को खत्म कर देगें। क्योंकि विद्रोही आदमी खतरनाक है, वह हुकूमत के खिलाफ बोल सकता है, लड़ सकता है, लोगों को भड़का सकता है कि यह गलत है, यह जो व्यवस्था है, इसलिए उसके दिमाग को ठंडा कर दो। पहले अनुशासन की तरकीब लगाते थे, वह पूरी कारगर नहीं हुई। फिर भी कुछ विद्रोही पैदा हो जाते हैं। बहुत कम होते हैं, लेकिन फिर भी कुछ हो ही जाते हैं। अब उन्होंने नई से नई तरकीब निकाली है कि जिस बच्चे के दिमाग में ऐसा लगे कि शक-शुबहा है इसके दिमाग को ही ठीक कर दो। बिजली की जोरदार करंट इसके दिमाग में पहुंचाओ, इसके दिमाग को शिथिल कर दो। ये बड़े खतरनाक मामले हैं जो सारी दुनिया में चल रहे हैं। एटम बम, हाइड्रोजन बम से भी ज्यादा खतरनाक ईजाद यह है।
लेकिन क्या शिक्षक इसमें सहयोगी होगा? मैं इस प्रश्न पर ही अपनी चर्चा को आप पर छोड़ना चाहूंगा कि क्या आप इस दुनिया से सहमत हैं? क्या इस मनुष्य से सहमत हैं जैसा आज आदमी है? क्या इस इंतजाम से सहमत हैं आप, इन युद्धों से, हिंसा से, बेईमानी से सहमत हैं? अगर सहमत नहीं हैं तो पुनर्विचार करिए, आपकी शिक्षा में कहीं बुनियादी भूल है। आप जो दे रहे हैं, वह गलत है।
शिक्षक एक विद्रोही हो, विवेक और विचारपूर्ण उसकी जीवन दृष्टि हो तो वह समाज के लिए हितकर है, भविष्य में नये से नये समाज के पैदा होने में सहयोगी है। और अगर यह नहीं है तो वह केवल पुराने मुर्दों को नये बच्चों के दिमाग में भरने के अतिरिक्त उसका और कोई काम नहीं है। इस काम को करता चला जाए।
एक क्रांति होनी चाहिए, एक बड़ी क्रांति होनी चाहिए कि शिक्षा का आमूल ढांचा तोड़ दिया जाए और एक नया ढांचा पैदा किया जाए और उस नये ढांचे के मूल्य अलग हों। सफलता उसका मूल्य न हो, महत्वाकांक्षा उसका मूल्य न हो, आगे और पीछे होना सम्मान-अपमान की बातें न हों। एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति की कोई तुलना न हो। प्रेम हो, प्रेम से बच्चों के विकास की चेष्टा हो। तो एक नई, बिलकुल एक अदभुत सुवास से भरी हुई दुनिया पैदा की जा सकती है। यह थोड़ी सी बातें मैंने आपसे कहीं, इस खयाल से कहीं कि कोई नींद में हो तो थोड़ा-बहुत तो जागे। लेकिन कई की नींद इतनी गहरी होती है कि वह सिर्फ यही समझ रहे होंगे कि क्या गड़बड़ चल रहा है, नींद सब खराब किए दे रहे हैं। लेकिन अगर थोड़ा-बहुत भी जागें, थोड़ा-बहुत आंख खोल कर देखें तो जो मैंने कहा है, शायद उसमें से कोई बात उपयोगी लगे, ठीक लगे।
यह मैं नहीं कहता हूं कि मैंने जो कहा है वह सच है और ठीक है। क्योंकि यह तो पुराना शिक्षक कहता था। यह तो आप कहते हैं। मैं तो यह कह रहा हूं कि मैंने अपनी दृष्टि आपको बताई, वह बिलकुल ही गलत हो सकती है। हो सकता है, उसमें कणमात्र भी सत्य न हो इसलिए मैं यह नहीं कहता कि मैंने जो कहा है उसको आप विश्वास कर लें। मैं कहता हूं, उस पर विचार करना। थोड़ा सा विचार करना और अगर कुछ उसमें से ठीक लगे तो वह मेरी बात नहीं होगी। वह आपका अपना विचार होगा, उस कारण आप मेरे अनुयायी नहीं बन जाएंगे। उस कारण आपने मेरी बात स्वीकार की ऐसा समझने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि वह आपने अपने विवेक से जानी और पहचानी, वह आपकी बन गई है। यह थोड़ी सी बातें कहीं ताकि आप कुछ विचार करें। दुनिया में इस वक्त बहुत धक्के देने की जरूरत है ताकि कुछ विचार पैदा हो। लोग करीब-करीब सो गए हैं, करीब-करीब मर ही गए हैं और सब चला जा रहा है। भगवान करे थोड़ा-बहुत धक्का कई तरफ से लगे और आंखें खुलें और थोड़ा सोचें।
और शिक्षक की सबसे बड़ी जिम्मेवारी है, राजनीतिज्ञों से बचे, राष्ट्रपतियों से, प्रधानमंत्रियों से बचे। इन्हीं नासमझों की वजह से तो दुनिया में परेशानी है सारी, इसी पॉलिटिशियन की वजह से तो सारा उपद्रव है। इनसे बचे। और बच्चों में पॉलिटिशियंस पैदा न होने दें, लेकिन वह पैदा कर रहा है एम्बिशन। नंबर एक आओ, तो फिर आगे क्या होगा। फिर आगे कहां जाएंगे। फिर नंबर एक तो केवल पॉलिटिक्स में ही आ सकते हैं, और तो कोई आता नहीं। और किसी की अखबार में फोटो नहीं छपती, नाम नहीं छपता। फिर तो वहीं आ सकते हैं, फिर तो वह वहीं जाएगा।।
बच्चों में प्रतिस्पर्धा पैदा न होने दें। प्रेम जगाएं, जीवन के प्रति आनंद जगाएं, जीवन के प्रति उल्लास जगाएं—प्रतियोगिता नहीं, प्रतिस्पर्धा नहीं। क्योंकि जो दूसरों से जूझता है, वह धीरे-धीरे जूझने में समाप्त हो जाता है। और जो अपने आनंद को खोजता है, अपने आनंद को, दूसरे से प्रतियोगिता को नहीं, उसका जीवन एक अदभुत फूल की भांति हो जाता है—जिसमें सुवास होती है, सौंदर्य होता है। क्रमशः…….