ओशो- एक गुरुकुल से तीन युवक शिक्षा लेकर वापस लौटते थे। उनकी सभी विषयों में परीक्षा ले ली गई थी। केवल ‘धर्म’ रह गया था। और वे हैरान थे कि धर्म की परीक्षा क्यों नहीं ली गई? और अब तो परीक्षा का कोई सवाल ही नहीं था। वे उत्तीर्ण भी घोषित कर दिए गए थे। वे गुरुकुल से थोड़ी दूर ही गए होंगे कि सूर्य ढलने लगा था और अब रात्रि उतर रही थी। एक झाड़ी के पास पगडंडी पर बहुत से कांटे पड़े थे। पहला युवक छलांग लगा कर कांटों को पार कर गया। दूसरा युवक पगडंडी छोड़ किनारे से निकल कर उनके पार हो गया। लेकिन तीसरा रुक गया। और उसने कांटों को बीन कर झाड़ी में डाला और तब आगे बढ़ा। शेष दो ने उससे कहा कि यह क्या करते हो, रात बढ़ रही है और हमें शीघ्र ही वन के पार हो जाना है। वह हंसा और बोला, इसलिए इन्हें दूर करता हूं कि रात उतरने को है और हमारे बाद जो भी इस राह पर आएगा उसे कांटे दिखाई नहीं पड़ सकेंगे। वे यह यह बात करते ही थे कि उनके आचार्य झाड़ी के बाहर आ गए। वे झाड़ी में छिपे थे। और उन्होंने तीसरे को कहा: मेरे बेटे, तू जा! तू धर्म की परीक्षा में भी उत्तीर्ण हो गया है। और शेष दो युवकों को लेकर वे गुरुकुल वापस लौट गए। उनकी धर्म की शिक्षा अभी पूरी नहीं हुई थी। जीवन की क्या परीक्षा है सिवाय जीवन के? और धर्म तो जीवन ही है। इसलिए जो मात्र परीक्षाएं पास करके समझते हैं कि वे शिक्षित हो गए, वे भूल में हैं। वस्तुतः तो जहां परीक्षाएं समाप्त होती हैं, वहीं असली शिक्षा शुरू होती है क्योंकि वहीं जीवन शुरू होता है।
फिर धर्म की शिक्षा के लिए हम क्या करें?
धर्म का बीज तो प्रत्येक में है, क्योंकि सत्य प्रत्येक में है, क्योंकि जीवन प्रत्येक में है। इस बीज के विकास के लिए अवसर जुटाने हैं और उस विकास-पथ की बाधाएं दूर करनी हैं। यह हो सके तो फिर बीज तो स्वयं अपनी शक्ति से, अपनी जीवंतता से अंकुर बन जाता है। उसे अंकुर बनाना थोड़े ही पड़ता है। और अंकुर पौधा बन जाता है। और पौधा पत्तों से, फूलों से, फलों से भर जाता है। हम सिर्फ अवसर जुटा देते हैं और फिर शेष सब अपने आप हो जाता है। धर्म की शिक्षा क्या होगी? हां, धर्म का बीज विकसित हो सके—शिक्षालय इसके लिए अवसर अवश्य ही जुटा सकते हैं। और उस बीज के विकास-पथ की बाधाएं दूर कर सकते हैं। इस अवसर जुटाने में तीन तत्व बड़े महत्वपूर्ण हैं।
पहला तत्व तो है, साहस। व्यक्ति में अदम्य साहस चाहिए। सत्य की खोज में या परमात्मा के आरोहण में साहस अत्यंत प्राथमिक है। हिमालय चढ़ने में या प्रशांत की गहराइयों में जाने के लिए जो साहस चाहिए, परमात्मा की खोज में उससे भी बड़े और गहरे साहस की जरूरत है। क्योंकि न तो उससे ऊंचा कोई शिखर है और न उससे गहरा कोई सागर है।
लेकिन तथाकथित धार्मिक व्यक्ति साहसी नहीं होते हैं। वस्तुतः उनकी धार्मिकता उनकी भीरुता का ही आवरण होती है। उनके धर्म और उनके भगवान के पीछे उनका भय ही होता है।
और मैं कहना चाहता हूं कि भयभीत चित्त कभी धार्मिक हो ही नहीं सकता है क्योंकि अभय तो धर्म का प्राण है।
साहस आता है अभय से। इसलिए पहली बात—भय न सिखाएं, किसी भी भांति का भय न सिखाएं। और दूसरी बात—अभय में दीक्षा दें। आह! अभय कैसी शक्ति है, अभय कैसी दीप्ति है, अभय कैसा तेज है? अभय की चट्टान पर ही तो धर्म का भवन खड़ा होता है। लेकिन हमारे तथाकथित धर्म भय का ही शोषण करते रहे हैं और इसीलिए तो आज तक धर्म का भवन खड़ा नहीं हो पाया है। भय की रेत पर भी कहीं भवन बने हैं? और बन भी जावें तो वे कितनी देर टिक सकते हैं?
मैं मंदिरों में, मस्जिदों में, गिरजों में जाकर देखता हूं तो पाता हूं कि वहां भय से कांपते हुए लोग इकट्ठे हैं। उनकी प्रार्थनाएं उनके भय के ही साकार रूप हैं। और जिस भगवान के सामने वे घुटने टेके खड़े होते हैं, वह उनके भीतर के भय का ही प्रक्षेपण है। इसीलिए दुख में आदमी भगवान की तरफ भागता है क्योंकि तब वह ज्यादा भयभीत होता है। बुढ़ापे में आदमी भगवान की तरफ भागता है क्योंकि तब नजदीक आती मृत्यु उसे बहुत भयभीत करती है। मंदिरों में जाकर देखिए, चर्चों में जाकर खोजिए, वहां आपको ऐसे व्यक्ति ही दिखाई पड़ेंगे जो कि या तो मर गए हैं या मरने के करीब हैं।
ऐसा भय हमें नहीं सिखाना है। सिखाना है अभय। और तभी धर्म जीवितों का धर्म हो सकता है। अभय सिखाने में भय क्या है? एक भय है कि कहीं युवक ईश्वर को ही इनकार न कर दें। यह भय इसीलिए है कि हमारा ईश्वर भय पर ही खड़ा है। किंतु ऐसे ईश्वर को अस्वीकार कर देने में बुराई क्या है? वस्तुतः तो उसे स्वीकार करना ही बुरा है।
मैं तो अभय को उस सीमा तक लाने के लिए ही उत्सुक हूं कि उस परमात्मा को भी अस्वीकार किया जा सके जिसे कि हम नहीं जानते हैं। असत्य का अस्वीकार जहां नहीं है, वहां अभय ही नहीं है। और जहां असत्य का अस्वीकार नहीं है, वहां सत्य की खोज भी कैसे हो सकती है?
अभय से आई नास्तिकता को मैं आस्तिकता का ही दूसरा पहलू कहता हूं। ऐसी नास्तिकता सच्ची आस्तिकता की अनिवार्य सीढ़ी बनती है। जो व्यक्ति नास्तिक ही नहीं बन सकता, वह आस्तिक भी कैसे बनेगा? आस्तिकता तो नास्तिकता से बहुत कठिन है। और जो नास्तिक होने से भयभीत है, उसकी आस्तिकता भी झूठी ही होगी। वह नास्तिक न हो जाए, इसी भय से ही आस्तिक होता है। ऐसी आस्तिकता का मूल्य ही क्या हो सकता है?
मैं भय पर आधारित आस्तिकता से अभय पर प्रतिष्ठित नास्तिकता का ही आदर करता हूं। क्योंकि जहां भय है, वहां धर्म कभी भी नहीं हो सकता है और जहां अभय है, वहां धर्म का द्वार है। अभय से जन्मी नास्तिकता से गुजरना एक आनंद है, एक अनुभव है। उससे आत्मा निश्चित ही बलवान होती है। और जो नास्तिक होने के पहले ही आस्तिक हो जाता है, उसकी आस्तिकता इसीलिए झूठी होती है क्योंकि उसके भीतर का नास्तिक सदा के लिए ही भीतर छिपा रह जाता है। लेकिन जो अपने नास्तिक को जी लेता है वह उसका अतिक्रमण भी कर जाता है और उससे मुक्त भी हो जाता है। नास्तिकता का अर्थ है: अस्वीकार का काल। यदि समाज ईश्वर और धर्म विरोधी है, तो इसके अस्वीकार से गुजरना भी नास्तिकता है। स्वीकृत और माने हुए के अस्वीकार से गुजरना नास्तिकता है। व्यक्तित्व की प्रौढ़ता के लिए यह काल अत्यंत मूल्यवान और लाभप्रद है। जो इससे नहीं गुजरता है, वह सदा के लिए अप्रौढ़ रह जाता है। यह गुजरना साहस और अभय से ही हो सकता है।
और सबसे बड़ा साहस क्या है? सबसे बड़ा साहस है, झूठे ज्ञान को अस्वीकार करने का साहस। यदि आपको ज्ञात नहीं है कि ईश्वर है तो मानने को राजी मत होना। चाहे कोई कितना ही झुकाए, स्वर्ग जाने का प्रलोभन दे, या नर्क जाने के भय से भयभीत करे, तो भी उसे मानने को राजी मत होना जो कि आपको ज्ञात नहीं है। स्वर्ग खोने या नर्क जाने को राजी होना अच्छा है, लेकिन भयभीत होना अच्छा नहीं। और जिसमें इतना साहस होता है, वही और केवल वही सत्य को खोजने में समर्थ हो पाता है। भयभीत चित्त कर ही क्या सकता है? वह तो अपने भय के कारण ही कुछ भी मानने को राजी हो जाता है। आस्तिक समाज में वह आस्तिक हो जाता है। और सोवियत रूस में हो, तो नास्तिक हो जाता है। वह तो समाज का एक मृत अंग ही होता है। वह जीवंत व्यक्ति नहीं होता है। क्योंकि व्यक्तित्व में जीवंतता तो केवल अभय से ही आती है।
एक व्यक्ति कल ही मुझे मिले थे। वे कहने लगे, मैं तो आत्मा की अमरता में विश्वास करता हूं। और उनके चेहरे पर सब तरह से मृत्यु का भय लिखा हुआ था! मैंने उनसे कहा, यह विश्वास कहीं मृत्यु के भय के कारण ही तो नहीं है? क्योंकि जो लोग मृत्यु से भयभीत हैं, उन्हें यह जान कर बड़ी सांत्वना मिलती है कि आत्मा अमर है। यह सुन वे कुछ परेशान हो आए और पूछने लगे थे कि क्या आत्मा अमर नहीं है? मैंने कहा: नहीं, यह सवाल नहीं है? आत्मा की अमरता, न अमरता का सवाल नहीं है। सवाल यह है कि जो मृत्यु से भयभीत है, क्या वह आत्मा को खोज या जान सकता है? सत्य की खोज के लिए अभय अत्यंत आवश्यक है। यही में आपसे भी कहना चाहता हूं। जो व्यक्ति मृत्यु से जितना भयभीत होता है, वह आत्मा की अमरता में उतना ही विश्वास करने लगता है। इस विश्वास का अनुपात और तीव्रता उतनी ही होती है जितना कि उसका भय होता है। और ऐसा व्यक्ति क्या जीवन के सत्य के प्रति आंखें खोलने को राजी हो सकता है? सत्य का मार्ग अभय के अतिरिक्त और कहीं से भी नहीं जाता है। आत्मा अमर्त्य है, यह भयभीत चित्त का विश्वास नहीं, वरन पूर्ण अभय चेतना का साक्षात्कार है।
भयभीत चित्त सत्य नहीं, सुरक्षा चाहता है।
भयभीत चित्त सत्य नहीं, संतोष चाहता है।
और तब जो धारणा भी सुरक्षा और संतोष देती मालूम पड़ती है, वह उसे ही पकड़ लेता है।
और धारणाएं, कोरी मान्यताएं, अन-अनुभूत विश्वास भी क्या सुरक्षा दे सकते हैं, संतोष दे सकते हैं? सत्य के अतिरिक्त और कोई सुरक्षा नहीं है, संतोष नहीं है, शांति नहीं है। और सत्य को पाने के लिए जरूरी है कि चित्त झूठी सुरक्षाओं और संतोषों को छोड़ने का साहस कर सके। इसलिए साहस को मैं सबसे बड़ा धार्मिक गुण कहता हूं।
एक धर्मगुरु कुछ बच्चों को साहस के संबंध में समझा रहा था। बच्चों ने कहा: कोई उदाहरण दें। वह धर्मगुरु बोला: मान लो, एक पहाड़ी सराय के एक ही कमरे में बारह बच्चे ठहरे हुए हैं। रात्रि बहुत सर्द है। और जब वे दिन भर की यात्रा के बाद थके-मांदे सोने जाते हैं, तो ग्यारह बच्चे तो कंबल ओढ़ कर अपने-अपने बिस्तर में घुस जाते हैं, लेकिन एक लड़का उस सर्द रात्रि में भी दिवसांत की अपनी प्रार्थना करने को कमरे के एक कोने में घुटने टेक कर बैठ जाता है। इसे मैं साहस कहता हूं। क्या यह साहस नहीं है? और तभी एक बच्चा उठा और उसने कहा: मान लें, एक सराय में बारह पादरी ठहरे हुए हैं। ग्यारह पादरी रात्रि में सोने के पहले घुटने टेक कर प्रार्थना करने बैठ गए हैं, लेकिन एक पादरी कंबल ओढ़ कर अपने बिस्तर में सो जाता है! क्या यह भी साहस नहीं है?
मैं नहीं जानता की उस पादरी पर फिर क्या गुजरी…या उसने क्या कह कर उन बच्चों से अपनी जान छुड़ाई। लेकिन एक बात मैं अवश्य ही जानता हूं कि स्वयं होने की शक्ति का नाम ही साहस है। भीड़ से मुक्त व्यक्ति होने की क्षमता का नाम ही साहस है।
व्यक्ति को व्यक्ति बना देना ही, उसे साहस देना है। साहस स्वयं पर विश्वास है। साहस आत्मविश्वास है। और साहस के साथ सिखाएं—विवेक, जागरूकता। धर्म-शिक्षा में वह दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है। विवेक न हो तो साहस खतरनाक भी हो सकता है। फिर वह आत्म-विश्वास न होकर विक्षिप्त अहंकार भी हो सकता है। साहस शक्ति है, विवेक आंख है। साहस चलाता है, विवेक देखता है।
सुनी है न वह अंधे और लंगड़े की कहानी। जंगल में लग गई थी आग। और एक अंधे और लंगड़े को भाग कर अपना जीवन बचाना था। अंधा भाग सकता था, लेकिन देख नहीं सकता था। और आग लगे जंगल में बिना आंखों के भागने का मृत्यु के अतिरिक्त और क्या अर्थ था? लंगड़ा देख सकता था, लेकिन भाग नहीं सकता था। और बिना पैरों के देखने वाली आंखों का मूल्य ही क्या था? और तभी उन्हें एक तरकीब सूझी और वे दोनों मृत्यु से बच सके। क्या थी उनकी तरकीब? बहुत सरल, एकदम सीधी। अंधे ने लंगड़े को अपने कंधे पर बैठा लिया था।
वह कथा अंधे और लंगड़े की नहीं, साहस और विवेक की ही कथा है। अज्ञान के अग्नि लगे जंगल से जीवन को बचाना है तो साहस के कंधों पर विवेक को बैठाना जरूरी है।
साधारणतः मनुष्य मूर्च्छित ही जीता है—जैसे वह एक नींद में हो। यह नींद स्व-विस्मरण की है। स्व-स्मरण से, स्वयं के प्रति सचेतन और जागरूक होने से वह नींद टूटती है और विवेक का जन्म होता है। स्व-स्मरण, स्वयं के प्रति सम्यक स्मृति, आत्म-बोध की दिशा में बच्चों को शिक्षित किया जा सकता है।
चेतना का तीर सामान्यतः बाहर की ओर है। वह जो स्वयं के बाहर है उसके प्रति ही केवल हम जाग्रत हैं, इस तीर को स्वयं की ओर भी किया जा सकता है। तब जिसका बोध है वही हमारी सत्ता है। और उसके बोध के साथ ही वह घटना घटित होती है, जो कि अंधेरे के निद्रित जीवन से चैतन्य के जाग्रत में ले जाती है।
लेकिन धर्म के नाम पर जो प्रार्थनाएं और भजन, कीर्तिनादि चलते हैं, वे स्व-स्मरण तो नहीं, उलटे आत्म-विस्मृति लाते हैं। उनका सुख निद्रा और बेहोशी का सुख है, वे सब मानसिक मादकताएं हैं।
मैं निद्रा, बेहोशी या तंद्रा में नहीं, वरन परिपूर्ण होश और जागृति को ही धर्म की साधना कहता हूं। इस होश के लिए विद्यापीठ भूमिका और अवसर बन सकते हैं। शरीर के तल पर, मन के तल पर और आत्मा के तल पर जागरूकता सिखाई जा सकती है। प्रत्येक कार्य को सतत होश से करने की विधि क्रमशः जीवन को चेतना से भर देती है। और प्रत्येक मानसिक प्रक्रिया के प्रति सचेत और साक्षी रहने की साधना चित्त को अपूर्व रूप से जाग्रत करने वाली है। और प्रतिपल उसका भी बोध जो कि मैं हूं, अंत में आत्म-जागरण बन जाता है।
और तीसरा सूत्र है: मौन!
शब्द, शब्द और शब्द चित्त को बहुत अशांति और तनाव से भर देते हैं। विचार, विचार और विचार और मन सारा विश्राम खो देता है।
मौन का अर्थ है: मन का विश्राम।
मौन को जानने और जीने से ही मन सदा ताजा और युवा बना रहता है। और मौन में, पूर्ण मौन में ही चित्त एक दर्पण बन जाता है जिसमें कि सत्य प्रतिफलित होता है।
अशांत चित्त तो जान ही क्या सकता है? वह तो खोज ही क्या सकता है? वह तो स्वयं में ही इस भांति उलझ जाता है कि किसी और दिशा में उन्मुख ही नहीं हो सकता है। सत्य के लिए तो चाहिए गहरी शांति, समग्र मौन, निर्विचार चित्त की पूर्ण विश्राम स्थिति। ऐसी चित्तदशा का नाम ही ध्यान है।
बच्चों को चित्त-विश्राम की दिशा में अग्रसर किया जा सकता है।
चित्त-विश्राम का आधारभूत नियम है—चित्त को समग्ररूप से शिथिल और मुक्त छोड़ देना। जैसे कोई नदी में बहता हो—तैरता नहीं, बहता हो—ऐसे ही चित्त की लहरों पर बहना, बस बहना! तैरना जरा भी नहीं, ऐसा प्रयासरहित प्रयास उस शांति में ले जाता है जिससे कि मनुष्य बिलकुल ही अपरिचित है।
जीवन में जो भी अर्थ और आनंद छिपा है, वह सब इस शांति में प्रकट हो जाता है। और जीवन में जो भी सत्य है, वह उपलब्ध हो जाता है। वस्तुतः तो वह उपलब्ध ही था लेकिन अशांति में दिखाई नहीं पड़ता था और शांति में अनावृत होकर स्वयं के समक्ष आ जाता है।
धर्म की शिक्षा—साहस, विवेक और शांति की शिक्षा है।
धर्म की शिक्षा—अभय, जागरूकता और निर्विचार मौन की शिक्षा है।
और ऐसी शिक्षा निश्चय ही एक नई मनुष्यता की आधारशिला बन सकती है। क्रमशः……