विज्ञान ने महत्वाकांक्षी मनुष्य के हाथों में असीम शक्ति दे दी है, अब यदि धर्म ने मनुष्य के चित्त से महत्वाकांक्षा न छीनी तो विनाश सुनिश्चित है “ओशो”

 विज्ञान ने महत्वाकांक्षी मनुष्य के हाथों में असीम शक्ति दे दी है, अब यदि धर्म ने मनुष्य के चित्त से महत्वाकांक्षा न छीनी तो विनाश सुनिश्चित है “ओशो”

ओशो- यह जानना अत्यंत आवश्यक है कि यह जो कुरूप जगत है—हिंसा, क्रोध,घृणा और युद्ध का यह जो तांडव चल रहा है, उसमें प्रत्येक व्यक्ति साझीदार है। इसका उत्तरदायित्व प्रत्येक पर है। प्रत्येक इसके लिए उत्तरदायी है। बड़े से बड़े युद्ध के लिए छोटे से छोटा व्यक्ति भी उत्तरदायी है। क्योंकि व्यक्ति ही तो फैलकर समाज बन जाता है। समाज और कहां है? व्यक्ति ही तो समाज है!
और व्यक्ति है महत्वाकांक्षा के ज्वर से ग्रस्त। प्रत्येक कुछ होना चाहता है! और इस कुछ होने की दौड़ में वह भूल ही जाता है उसे जो कि वह है! और आश्चर्यों का आश्चर्य तो यह है कि प्रत्येक केवल वही हो सकता है जो वह है। स्वयं के अतिरिक्त और अन्यथा होना असंभव है। क्योंकि जो बीज में नहीं है वह वृक्ष में कैसे हो सकता है? लेकिन प्रत्येक वही होने की दौड़ में है जो वह नहीं है। इससे एक ज्वरग्रस्त जीवन पैदा होता है जो कि अनिवार्यतः हिंसा और विध्वंस में ले जाता है। व्यक्ति जो बीजतः होता है, उसके विकास में न तो दौड़ होती है और न ज्वर होता है और न विक्षिप्तता होती है। उसमें तो एक शांत और मौन और अदृश्य विकास होता है। उसमें तो जो गति होती है उसकी पगध्वनियां भी नहीं सुनाई पड़ती हैं। लेकिन व्यक्ति जो नहीं है उसके होने में शोरगुल तो बहुत होता है और होता कुछ भी नहीं है। यह शोरगुल, यह संघर्ष, यह तनाव, यह अशांति पैदा होती है प्रतिस्पर्धा से।
व्यक्ति जो है, वही होने में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं होती है। वह होता है बस अपने में, अन्य की तुलना में नहीं। वैसे विकास में अन्य की कोई प्रतिभा ही नहीं होती है। इसलिए चित्त कलह से मुक्त शांत गति करता है। शक्ति का संघर्ष में, स्पर्धा में होने वाला अपव्यय बचता है और व्यक्ति शक्ति का संरक्षित सरोवर बन जाता है। शक्ति का, ऊर्जा का यह शांत संचय जीवन को एक ऐसा गत्यात्मक रूप देता है, जिसमें कि गति तो होती है पूर्ण लेकिन घर्षण शून्य होता है। लेकिन जहां व्यक्ति अन्य की तुलना में जीता है, वहां तो वह जीता ही नहीं है।
जीवन तो है स्वयं में, वह अन्य में नहीं है। अन्य की तुलना में है ईर्ष्या, क्रोध, हिंसा—और वे जीवन नहीं हैं, वे तो हैं मृत्युएं। इन मृत्युओं में व्यक्ति जीता हो तो जगत जैसा कुरूप हो गया है, वैसा होना अनिवार्य ही है। और फिर जब सब भांति की महत्वाकांक्षाओं और प्रतिस्पर्धाओं में जीने के बाद भी आनंद के द्वार नहीं खुलते हैं और दुख का नर्क और गहरे से गहरा होता जाता है तो व्यक्ति इस विफलता और विषाद में सारे जगत से ही प्रतिशोध लेने लगता है। वह हो जाता है विध्वंसक। वह, जो स्वयं को सृजन नहीं कर पाया है, उसके प्रतिशोध में अन्यों का विध्वंस करने लगता है।
आत्म-सृजन का अभाव विध्वंस और हिंसा बन जाता है। इसलिए मैं कहता हूं कि महत्वाकांक्षा के आधार पर खड़ा जगत कभी भी अहिंसक नहीं हो सकता है, फिर चाहे यह महत्वाकांक्षा संसार की हो या मोक्ष की। जहां महत्वाकांक्षा है, वहां हिंसा है। वस्तुतः तो महत्वाकांक्षा ही हिंसा है। और विज्ञान ने महत्वाकांक्षी मनुष्य के हाथों में असीम शक्ति दे दी है। अब यदि धर्म ने मनुष्य के चित्त से महत्वाकांक्षा न छीनी तो विनाश सुनिश्चित है।
यह महत्वाकांक्षा पैदा ही क्यों होती है और कहां से होती है? महत्वाकांक्षा पैदा होती है हीनता के भाव से। व्यक्ति है स्वयं के अंतस में अत्यंत दीन-हीन। वहां है सब रिक्त और शून्य। वहां कुछ भी नहीं है। वहां है सब अभाव, सब भांति का खालीपन। इस अभाव, इस रिक्तता से ही वह भागता है। और इस पलायन के लिए ही वह महत्त्वाकांक्षा के लक्ष्य निर्मित करता है ताकि वे उसे दौड़ने के लिए ज्वर और त्वरा दे सकें। मूलतः वह किसी स्थान के लिए नहीं भागता है, वरन किसी स्थान से भागता है।
लेकिन मात्र किसी स्थान से भागे जाना बिना किसी स्थान के लिए एकदम असंभव है, इसलिए वह लक्ष्य और गंतव्य निर्धारित करता है। अभाव से पलायन है मूल में, लेकिन प्रकटतः दिखाई पड़ता है कि प्रत्येक व्यक्ति कहीं पहुंचने के लिए दौड़ रहा है। वस्तुतः हम भाग रहे हैं स्वयं से बचने के लिए। लेकिन इस तथ्य को देखना भी दौड़ की हत्या करना है। इसलिए कहीं पहुंचने की, किन्हीं मंजिलों की, किन्हीं आदर्शों की, किन्हीं मोक्षों की हम बातें कर रहे हैं। यह आत्मवंचना बहुत गहरी है। और जो इस आत्मवंचना को तोड़ने का साहस नहीं करता है वह महत्वाकांक्षा के ज्वर से कभी स्वस्थ नहीं हो सकता है। उसकी एक महत्वाकांक्षा व्यर्थ सिद्ध होगी तो वह दूसरी निर्मित कर लेगा।
संसार की महत्वाकांक्षाएं व्यर्थ होंगी तो वह मोक्ष की, ब्रह्म को पाने की महत्वाकांक्षाओं को बना लेगा। संसारी संसार से छूट भी नहीं पाता है कि संन्यासी हो जाता है। और ऐसे महत्वाकांक्षा नये वस्त्रों में पुनः वापस लौट आती है। और क्या महत्वाकांक्षा ही संसार नहीं है?
धर्म का जीवन में अवतरण उसी क्षण से होता है, जब से व्यक्ति अपनी दौड़ के मूल कारण को देखना और पहचानना शुरू करता है। यह सत्य दिखाई पड़ जाना कि महत्त्वाकांक्षा का मूल आंतरिक अभाव से पलायन है, जीवन में एक नई ही दिशा का उदघाटन बन जाता है।
स्वयं की आंतरिक रिक्तता से भागना संसार है। और स्वयं की आंतरिक रिक्तता और शून्य में जागना धर्म। भागना संसार है, जागना धर्म है। और जो भागता है वह पाता है कि शून्य बढ़ता ही जाता है। और जो जागता है वह पाता है कि शून्य है ही नहीं। निद्रा में जो शून्य प्रतीत होता था, जागृति में वही पूर्ण हो जाता है। मित्र, भागने से शून्य बढ़ता है क्योंकि हम स्वयं से जितने दूर होते हैं उतने ही रिक्त और शून्य हो जाते हैं। हमारी स्वयं की सत्ता से जो दूरी होती है, वही दूरी हमारी रिक्तता का अनुपात भी है। यह स्मरण रहे कि मनुष्य में जितना बड़ा सिकंदर छिपा होता है, उसके हाथ उतने ही खाली होते हैं।
और स्वयं से भागने से शून्य इसलिए भी बढ़ता है कि भागने का मूल है भय। भागना भय की स्वीकृति है। पलायन भय को गले लगा लेना है। और जिसे हम स्वीकार करते हैं और जिसे हम गले लगा लेते हैं, वह बढ़ता ही जाता है। भय भागने से घटता नहीं, बढ़ता है। और भय जितना बढ़ता है स्वयं का होना उतना ही घटता है। और ऐसे स्वयं की रिक्तता और भी बढ़ जाती और पीड़ादायी हो जाती है।
किंतु जो स्वयं से भागता नहीं, वरन स्वयं के प्रति जागता है, वह जीवन के एक बिलकुल दूसरे ही अनुभव को उपलब्ध होता है। उसके हाथ खाली नहीं रह जाते हैं। उसके प्राण खाली नहीं रह जाते हैं। उसका समग्र जीवन ही एक अनूठी संपदा से भर जाता है।
क्योंकि जो स्वयं के प्रति जागता है, वह पाता है कि वहां तो कोई अभाव ही नहीं है। वहां तो स्वयं परमात्मा है। अभाव स्वयं में नहीं, स्वयं के प्रति मूर्च्छा में है। मैं सोया हूं—यही है अभाव। मैं जाग जाऊं तो अभाव वैसे ही नहीं पाया जाता है जैसे कि सूर्य के निकलते ही अंधकार नहीं पाया जाता है।
क्या आपको ज्ञात है कि एक बार अंधकार ने सूर्य को पत्र लिखा था और शिकायत की थी कि आप अकारण ही मेरे पीछे क्यों पड़े हुए हैं। सूर्य अंधकार के इस पत्र को पाकर बहुत हैरान हुआ था। और उसने खबर भिजवाई थी कि मित्र, मैं तो आपको जानता भी नहीं हूं। कभी आएं और मेरा आतिथ्य स्वीकार करें। अनजाने में कोई भूल मुझसे हो गई हो तो मैं प्रत्यक्ष सेवा से क्षमा मांगना चाहता हूं। किंतु इस आमंत्रण को दिए गए अनगिनत सदियां बीत गई हैं। और अंधकार आज तक भी सूर्य से मिलने नहीं आ सका है। और अब तो सूर्य को संदेह भी होने लगा है कि अंधकार कहीं है भी या नहीं? वह पत्र जाली भी तो हो सकता था!
मैं जैसे ही जागता हूं, वैसे ही कोई अभाव नहीं है। मैं जैसे ही सूर्य बनता हूं, वैसे ही कोई अंधकार नहीं है। और यह मैं जाग कर कह रहा हूं। मैं यह सूर्य बन कर कह रहा हूं। मैं यह सब भांति भरा हुआ होकर कह रहा हूं, आओ! और मेरे हाथ देखो! क्या वे भरे हुए नहीं हैं?
और स्मरण रहे कि सूर्य आप भी हो और हाथ आपके भी भरे हुए हैं। लेकिन आप आंखें बंद किए हो और सो रहे हो, और इस निद्रा के कारण भरे हुए हाथ दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। और तब उन्हें भरने के लिए हजार-हजार सपने देखे जा रहे हैं।
लेकिन मित्र, क्या वे हाथ कभी भरे जा सकते हैं जो कि खाली ही नहीं हैं? और क्या उस आंतरिक अभाव को भरा जा सकता है जो कि है ही नहीं? इसलिए ही तो मनुष्य की सब दौड़ अनिवार्यतः असफल हो जाती है। और यह अनिवार्य असफलता ही तो मनुष्य का संताप है।
और फिर जो संताप में है वह दूसरों को भी संताप देता है। जो दुख में है वह दुख बांटता है। मनुष्य जो है, उसे ही बांटने को आबद्ध है और समर्थ है। क्योंकि स्वयं को बांटे बिना जिया ही नहीं जा सकता है। फूल सुगंध बांटते हैं क्योंकि वे सुगंध हैं। तारों से प्रकाश बंटता है क्योंकि वे प्रकाश हैं। मनुष्य दुख बांटता है क्योंकि वह दुख है। लेकिन, मनुष्य आनंद भी बांट सकता है क्योंकि वह आनंद भी हो सकता है।
धर्म आनंद का द्वार है। क्योंकि धर्म स्वयं के प्रति जागरण है। जो स्वयं के प्रति जागता है वह पाता है कि वहां अभाव नहीं है, और यह साक्षात आनंद से भर देता है क्योंकि फिर कुछ पाने को नहीं रह जाता है। वह सब जो भी पाने जैसा है, पाया जाता है, कि पाया ही हुआ है।
अभाव स्वरूप नहीं है, स्वरूप है आनंद। और इसलिए स्वयं के प्रति सचेत होना ही आनंद को पा लेना है। और आनंद मिलते ही आनंद वितरित होने लगता है। आनंद की किरणों को बिखेरता चित्त ही धर्म में प्रतिष्ठित चित्त है। और ऐसे चित्त के हाथों में विज्ञान की शक्ति स्वर्ण में सुगंध है। विज्ञान और धर्म का ऐसा मिलन चिरप्रतीक्षित है।
मेरे मित्रो, क्या आप वह सेतु बनोगे जो कि इस सम्मिलन को ला सके? मनुष्य को ही तो सेतु बनना है। प्रत्येक को ही तो सेतु बनना है। क्योंकि ऐसे सेतु से ही धरा पर प्रतीक्षित स्वर्ण-युग का अवतरण होगा जो कि अतीत में आकर चला नहीं गया है, वरन भविष्य में है और अभी आने को है। क्रमशः………

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३