समाज शिक्षक को व्यर्थ ही आदर नहीं देता है, इस आदर के बदले बड़े सस्ते में वह बहुत महंगा काम उससे लेता है, क्या शिक्षकों को इसका बोध है? “ओशो”

 समाज शिक्षक को व्यर्थ ही आदर नहीं देता है, इस आदर के बदले बड़े सस्ते में वह बहुत महंगा काम उससे लेता है, क्या शिक्षकों को इसका बोध है? “ओशो”

ओशो- शिक्षा के कारण ही तो दुनिया में युद्ध और हिंसा और भांति-भांति की मूर्खताएं चलती रही हैं और चल रही हैं।
क्या इस दुष्टचक्र को अब भी नहीं तोड़ना है? क्या अणु युद्ध के बाद ही अनुशासन लाने वाली शिक्षा बंद होगी? लेकिन तब तो बंद करने की कोई जरूरत ही नहीं होगी। क्योंकि तब न तो अनुशास्ता ही बचेंगे और न अनुशासित ही। मनुष्य के भविष्य के लिए अनुशासित बुद्धि के लोगों से जितना खतरा है, उतना किसी और से नहीं। क्योंकि वे केवल आज्ञाएं मानना ही जानते हैं। अणु-अस्त्रों को चलाने के लिए भी वे आज्ञाशील व्यक्ति सदा तैयार और तत्पर हैं! काश! अनुशासन की जगह विवेक सिखाया गया होता, आज्ञाकारिता की जगह विचार सिखाया गया होता! तो निश्चय ही दुनिया बिलकुल दूसरी ही हो सकती थी।
शिक्षा अनुशासन देने को नहीं, आत्म-विवेक देने को है। उससे ही जो अनुशासन फलित होगा, वही शुभ और मंगलदायी हो सकता है। क्योंकि उस अनुशासन का फिर शोषण नहीं किया जा सकता। धर्म पुरोहितों और राजनीतिज्ञों के हाथ में हिंसा और युद्ध के लिए उसे उपकरण नहीं बनाया जा सकता। उसके आधार पर हिंदू को मुसलमान से नहीं लड़ाया जा सकता है। और न राष्ट्रों की झूठी और कल्पित सीमाओं पर ही रक्तपात के तांडव-नृत्य किए जा सकते हैं। अनुशासन और आज्ञाकारिता के नाम पर मनुष्य से क्या नहीं कराया गया है?
समाज, शिक्षक के द्वारा नई पीढ़ी को इसी भांति अनुशासित करने का काम लेता रहा है। शिक्षक बहुत से शोषणों का औजार रहा है। वह बहुत से रोगों को संक्रमित करने वाला उपकरण है। और शायद उसे इसका पता भी नहीं है। क्योंकि वह स्वयं भी ऐसी ही शिक्षा का शिकार है! प्रत्येक पीढ़ी अपनी ईर्ष्याएं, अपने द्वेष, अपने वैमनस्य, अपनी शत्रुताएं, अपनी मूढ़ताएं, सभी शिक्षक के द्वारा नई पीढ़ी को वसीयत में दे जाती है। अपने अनुभवों और ज्ञान के साथ ही साथ वे अपने रोग और जड़ताएं भी सौंप जाती हैं। और ज्ञान और अनुभव से भी ज्यादा आग्रह और सचेतता वे अपने रोगों को देने में बरतती हैं। क्योंकि उनकी शत्रुताएं और उनके अंधविश्वास उनके अहंकार ही होते हैं। हिंदू बाप अपने बच्चों को हिंदू होना सिखा जाता है, और जैन अपने बच्चों को जैन, और मुसलमान अपने बच्चों को मुसलमान। और मनुष्य विरोधी जिन संप्रदायों में वह पला था, उसी विष को वह अपने बच्चों को भी सौंप जाना चाहता है।
शिक्षा के अनेक-अनेक माध्यमों से यह विष फैलाया जाता है। और ऐसी विषाक्त सिखावन के कारण मनुष्यता एक नहीं हो पाती है। और उस धर्म के प्रति भी हमारी आंखें नहीं उठ पाती हैं जो कि एक है, और एक हो सकता है।
ऐसे ही राष्ट्रीयताएं सिखाई जाती हैं। और राष्ट्रीय अहंकारों को गौरवान्वित किया जाता है। एक देश को दूसरे देशों के विरोध में पाला-पोसा और खड़ा किया जाता है। परिणाम में हिंसा फलती-फूलती है और युद्धों की अग्नि जलती है।
जहां अहंकार हैं—वहां हिंसा है, वहां युद्ध हैं। ऐसे ही और भी बहुत से रोग हैं जिनके कीटाणु शिक्षक अबोध बच्चों में संक्रमित करते रहते हैं। मनुष्य के साथ किए जाने वाले जघन्य से जघन्य अपराधों में से एक यह है। शिक्षक अत्यंत जागरूक हो तो ही इस लांछना से वह बच सकता है।
समाज में जो सत्ताधिकारी हैं, वे समाज के ढांचे को कभी भी बदलना नहीं चाहते हैं। क्योंकि उनकी सत्ता, स्वार्थ और शोषण उस ढांचे पर ही निर्भर होता है। इस ढांचे को भी शिक्षक नये बच्चों के मनों में बैठाता रहता है। वह उन्हें गतानुगतिक बनाता रहता है और मृत परंपराओं से बांधता रहता है। वह उन्हें विद्रोह नहीं सिखाता है। और जहां विद्रोह नहीं है, वहां विकास नहीं है। शिक्षक का कर्तव्य क्या है? उसका कर्तव्य है विद्रोह सिखाना—जिस दिन भी शिक्षा विद्रोह होगी, उसी दिन एक बिलकुल ही नई मनुष्यता का जन्म हो सकता है।
विद्रोह से क्या अर्थ है?
विद्रोह से अर्थ है—मूल्यों में क्रांति! निश्चय ही जीवन मूल्य गलत हैं अन्यथा मनुष्य के जीवन में यह अशांति, यह अर्थहीनता, यह विभ्रांति क्यों होती? यह कुरूपता, यह हिंसा, यह ईर्ष्या, यह अधर्म—यह सब क्या अकारण हैं? नहीं, जीवन मूल्य गलत हैं और उसका ही यह सहज परिणाम है!
जीवन मूल्य बदलने होंगे। मनुष्य के लिए नये मूल्य चाहिए। और उसके लिए एक बड़े विद्रोह की तैयारी आवश्यक है।
शिक्षक को निद्रा से जागना ही होगा। उसके अतिरिक्त और कोई भागीरथ नहीं है जो कि विद्रोह की गंगा को पृथ्वी पर ला सके। लेकिन शिक्षक बड़े भ्रमों में है। समाज उसे भूखा भले मारे लेकिन उसके प्रति आदर खूब दिखाता है। शिक्षक को सदा से ही आदर और सम्मान दिया गया है। वह गुरु है, सम्माननीय है, ऐसे उसके अहंकार को पोषित किया जाता है, और उसे भ्रम में डाला जाता है। और फिर उसके द्वारा नई पीढ़ियों को पुराने ढांचों में ढालने का कार्य लिया जाता है। ऐसे बड़े आदरपूर्वक शिक्षक का शोषण होता है। समाज शिक्षक को व्यर्थ ही आदर नहीं देता है। इस आदर के बदले बड़े सस्ते में वह बहुत महंगा काम उससे लेता है। मैं पूछता हूं कि क्या शिक्षकों को इसका बोध है?
मनुष्य का इतिहास मूर्खताओं से भरा है। अंधविश्वासों और अज्ञानों से सब कहीं डेरे डाल रखे हैं। लेकिन शिक्षक उस श्रृंखला से नई पीढ़ियों को अलग नहीं होने देता है। वह उसी श्रृंखला से ये नये आगंतुकों को बांधता चला जाता है। वह अतीत का चाकर है और इस भांति भविष्य का दुश्मन सिद्ध होता है। क्या यह उचित नहीं है कि अतीत का भार हमारे सिर पर न हो? वह पैरों के तले की भूमि बने यह तो ठीक, लेकिन सिर का बोझ बने यह तो ठीक नहीं है। भविष्य के निर्माण के लिए अतीत से मुक्त चित्त चाहिए।
अतीत के अनुभव मनुष्य के ज्ञान को बढ़ाएं लेकिन वे उसे बांधें नहीं। क्योंकि उसे उनसे भी आगे जाना है। अतीत उसकी यात्रा का प्रारंभ है, अंत नहीं। विगत पीढ़ी ने जहां उसे छोड़ा है, उसे उससे आगे जाना है। हर पीढ़ी को, पिछली पीढ़ी को, सब भांति पीछे छोड़ देना है। भौतिक दृष्टि से ही नहीं, मानसिक और आत्मिक दृष्टि से भी। निश्चय ही विदा होती पीढ़ी के अहंकार को इससे चोट लगती है। और इसी अहंकार के कारण वह अपने से आगे कोई भी यात्रा और विकास नहीं देखना चाहती है।
शायद प्रत्येक व्यक्ति में जो अहंता और ईर्ष्या होती है वही अहंता और ईर्ष्या पूरी पीढ़ी को भी पकड़ लेती है। पहले धर्मगुरु, आगे और धर्म संस्थापकों के जन्म मना ही कर गए हैं। प्रत्येक पैगंबर अपने आपको अंतिम बता गया है। और प्रत्येक ने स्वयं के सर्वज्ञ होने की भी घोषणा कर रखी है, और इस भांति ज्ञान के आगे और विकास के सब द्वार अवरुद्ध कर दिए हैं। स्वर्ण-युग तो पीछे थे! आगे तो सब पतन और ह्वास है। मनुष्य को अतीत के खूंटों से बांधना अत्यंत अकल्याणकर है। लेकिन पुरानी पीढ़ी तो अपने शास्त्र, अपने सिद्धांत, अपने गुरु सभी नई पीढ़ी पर थोप जाना चाहती है। सैकड़ों वर्षों से यह होता ही रहा है। और परिणाम में मनुष्य की आत्मा जितनी विकसित हो सकती थी वह नहीं हो पाई। उसे जो प्रौढ़ता मिल सकती थी वह नहीं मिल पाई। वह अतीत के पाषाणों के नीचे दबी है, और अतीत से इतनी भारग्रस्त है कि उसका सभी ऊर्ध्वगमन बंद हो गया है।
शिक्षा को मनुष्य की आत्मा को निर्भार करना है। क्योंकि निर्भार आत्माएं ही परमात्मा के शिखरों तक गति कर सकती हैं। जड़ संस्कारों का भार चेतना के बीज को अंकुरित ही नहीं होने देता, और वह भूमि में दबा-दबा ही नष्ट होता रहता है। अतीत से निर्भार हुए बिना व्यक्ति के स्वयं के व्यक्तित्व का अंकुरण हो ही नहीं सकता है। अतीत की जकड़ ढीली हो तो ही मनुष्य में विकास होता है। अतीत तो सीढ़ी है जिस पर से गुजर जाना है। उसे सिर पर लिए फिरना समझदारी नहीं है।
संसार में भौतिक समृद्धि तो बढ़ती है, क्योंकि हर पीढ़ी उसे पिछली पीढ़ी से आगे ले जाती है। लेकिन आत्मिक समृद्धि नहीं बढ़ती, क्योंकि हमारे मन उस दिशा में अतीत से अत्यधिक बंधे हुए हैं। पिता ने जो मकान बनाया था, उसे और बनाने में पुत्र संकोच नहीं करता है। लेकिन राम, कृष्ण या बुद्ध या महावीर या क्राइस्ट जो वसीयत छोड़ गए हैं, उसके आगे बढ़ाने में कोई बहुत-बहुत गहरा भय हमारे प्राणों को रोक लेता है। यह सिखाया हुआ है, यह भय आरोपित किया हुआ है।
गीता पर टीका लिखी जा सकती है। लेकिन गीता से आगे विचार नहीं किया जा सकता। कुरान से आगे कुछ है ही नहीं। इससे मनुष्य-जाति अत्यधिक पंगु और आत्मिक दृष्टि से दीन-हीन हो गई है। बाप से बेटा आगे जाए इसमें उसका असम्मान या अपमान नहीं है। वस्तुतः इसमें ही उसका सम्मान है। यही उसका गौरव है। क्रमशः…..

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३