मनुष्य-जाति जिस कुरूपता और अपंगता में फंसी है, उसके मूलभूत कारण शिक्षा में ही छिपे हैं “ओशो”

 मनुष्य-जाति जिस कुरूपता और अपंगता में फंसी है, उसके मूलभूत कारण शिक्षा में ही छिपे हैं “ओशो”

ओशो- शिक्षा की स्थिति देख कर हृदय में बहुत पीड़ा होती है। शिक्षा के नाम पर जिन परतंत्रताओं का पोषण किया जाता है उनसे एक स्वतंत्र और स्वस्थ मनुष्य का जन्म संभव नहीं है। मनुष्य-जाति जिस कुरूपता और अपंगता में फंसी है, उसके मूलभूत कारण शिक्षा में ही छिपे हैं। शिक्षा ने प्रकृति से तो मनुष्य को तोड़ दिया है लेकिन संस्कृति उससे पैदा नहीं हो सकी है, उलटे पैदा हुई है—विकृति। इस विकृति को ही प्रत्येक पीढ़ी नई पीढ़ियों पर थोपे चली जाती है। और फिर जब विकृति ही संस्कृति समझी जाती हो तो स्वभावतः थोपने का कार्य पुण्य की आभा भी ले लेता हो तो आश्चर्य नहीं है। और जब पाप पुण्य के वेश में प्रकट होता है, तो अत्यंत घातक हो ही जाता है।
इसलिए ही तो शोषण सेवा की आड़ में खड़ा होता है, और हिंसा अहिंसा के वस्त्र ओढ़ती है, और विकृतियां संस्कृति के मुखौटे पहन लेती हैं। अधर्म का धर्म के मंदिरों में आवास अकारण नहीं है। अधर्म सीधा और नग्न तो कभी उपस्थित ही नहीं होता है। इसलिए यह सदा ही उचित है कि मात्र वस्त्रों में विश्वास न किया जाए। वस्त्रों को उघाड़ कर देख लेना अत्यंत ही आवश्यक है।
मैं भी शिक्षा के वस्त्रों को उघाड़ कर ही देखना चाहूंगा। इसमें आप बुरा तो न मानेंगे? विवशता है, इसलिए ऐसा करना आवश्यक है। शिक्षा की वास्तविक आत्मा को देखने के लिए उसके तथाकथित वस्त्रों को हटाना ही होगा। क्योंकि अत्यधिक सुंदर वस्त्रों में जरूर ही कोई अस्वस्थ और कुरूप आत्मा वास कर रही है; अन्यथा मनुष्य का जीवन इतनी घृणा, हिंसा और अधर्म का जीवन नहीं हो सकता था।
जीवन के वृक्ष पर कड़वे और विषाक्त फल देख कर क्या गलत बीजों के बोए जाने का स्मरण नहीं आता है? बीज गलत नहीं तो वृक्ष पर गलत फल कैसे आ सकते हैं? वृक्ष का विषाक्त फलों से भरा होना बीज में प्रच्छन्न विष के अतिरिक्त और किस बात की खबर है? मनुष्य गलत है तो निश्चय ही शिक्षा सम्यक नहीं है।
यह हो सकता है कि आप इस भांति न सोचते रहे हों और मेरी बात का आपकी विचारणा से कोई मेल न हो। लेकिन मैं माने जाने का नहीं, मात्र सुने जाने का निवेदन करता हूं। उतना ही पर्याप्त भी है। सत्य को शांति से सुन लेना ही काफी है। असत्य ही माने जाने का आग्रह करता है। सत्य तो मात्र सुन लिए जाने पर ही परिणाम ले आता है।
सत्य का सम्यक श्रवण ही स्वीकृति है।
शिक्षाशास्त्र से भी मेरी दृष्टि भिन्न और विरोधी हो सकती है। मैं न तो शिक्षाशास्त्री ही हूं और न समाजशास्त्री ही। किंतु यह सौभाग्य की बात है। क्योंकि जो जितना अधिक शास्त्र को जानते हैं, उनके लिए जीवन को जानना उतना ही कठिन हो जाता है। शास्त्र सदा ही सत्य के जानने में बाधा बन जाते हैं। शास्त्र से भरे हुए चित्त में चिंतन समाप्त हो जाता है। चिंतन के लिए तो निर्भार और पक्षपात मुक्त चित्त चाहिए न! शास्त्र और सिद्धांत पक्ष पैदा करते हैं। और तब जीवन और उसकी समस्याओं के प्रति निष्पक्ष और निर्दोष दृष्टि नहीं रह जाती है। शास्त्र जिसके लिए महत्वपूर्ण हैं, उसके समक्ष समाधान समस्याओं से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं। वह समस्याओं के अनुरूप समाधान नहीं, वरन समाधानों के अनुरूप ही समस्याओं को देखने लगता है! इससे जो मूढ़तापूर्ण स्थिति पैदा होती है, उससे समाधानों से समस्याओं का अंत नहीं, अपितु और बढ़ती होती है। मनुष्य का पूरा इतिहास ही इसका प्रमाण है।
मनुष्य का विचार और आचार इतना भिन्न, स्व-विरोधी क्यों है? शास्त्रों और सिद्धांतों के आधार पर जीवन पर थोपे गए समाधानों का ही यह परिणाम है। समाधान समस्याओं से नहीं जन्में हैं, उन्हें समस्याओं के ऊपर थोपा गया है। समाधान ऊपर हैं, समस्याएं भीतर हैं। समाधान बुद्धि में हैं, समस्याएं जीवन में हैं। और यह अंतर्द्वंद्व आत्मघाती हो गया है। सभ्यता के भीतर इस भांति जो विक्षिप्तता चलती रही है वह अब विस्फोट की स्थिति में आ गई है। उसके विस्फोट की संभावना से पूरी मनुष्यता भयाक्रांत है। लेकिन मात्र भयभीत होने से क्या होगा? भय की नहीं, वरन साहसपूर्वक पूरी स्थिति को जानने और पहचानने की जरूरत है।
मैं शास्त्रों को बीच में नहीं लूंगा, क्योंकि मैं समाधानों से अंधा नहीं होना चाहता। मैं तो आपसे कुछ ऐसी बातें करना चाहता हूं जो कि समस्याओं को सीधा देखने से पैदा होती हैं।
क्या यह संभव नहीं है कि हम जीवन को सीधा देख सकें? क्या यह संभव नहीं है कि हम जीवन को वैसा देखें जैसे कि पहले आदमी ने उसे देखा होगा? क्या हमारा मन उतनी सरलता और स्वतंत्रता और सहजता से जीवन को नहीं देख सकता है?
शिक्षा के समक्ष इसे मैं सबसे अहम समस्या मानता हूं।
शिक्षा व्यक्ति के चित्त को इतना बोझिल, जटिल और बूढ़ा कर दे कि उसका जीवन से सीधा संपर्क छिन्न-भिन्न हो जाए तो वह शुभ नहीं है। बोझिल और बूढ़ा चित्त जीवन के ज्ञान, आनंद और सौंदर्य, सभी से वंचित रह जाता है। ज्ञान, आनंद और सौंदर्य की अनुभूति के लिए तो युवा चित्त चाहिए। शरीर तो बूढ़ा होने को आबद्ध है, लेकिन चित्त नहीं। चित्त तो सदा युवा रह सकता है। मृत्यु के अंतिम क्षण तक चित्त युवा रह सकता है। और ऐसा चित्त ही जीवन और मृत्यु के रहस्यों को जान पाता है। ऐसा चित्त ही धार्मिक चित्त है।
लेकिन शिक्षा तो चित्त को बूढ़ा करती है। यह चित्त को जगाती नहीं, भरती है; और भरने से चित्त बूढ़ा होता है। विचार भरने से चित्त थकता, बोझिल होता और बूढ़ा होता है! विचार देना, स्मृति को भरना है। वह विचार या विवेक का जागरण नहीं है। स्मृति विवेक नहीं है। स्मृति तो यांत्रिक है। विवेक है चैतन्य। विचार नहीं देना है, विचार को जगाना है। विचार जहां जाग्रत है, वहां चित्त सदा युवा है। और जहां चित्त युवा है, वहां जीवन का सतत संघर्ष है, वहां चेतन के द्वार खुले हैं और वहां सुबह की ताजी हवाएं भी आती हैं, और नये उगते सूरज का प्रकाश भी आता है। व्यक्ति जब दूसरों के विचारों और शब्दों की कैद में हो जाता है, तो सत्य के आकाश में उसकी स्वयं की उड़ने की क्षमता ही नष्ट हो जाती है। लेकिन शिक्षा क्या करती है? क्या वह विचार करना सिखाती है, या कि मात्र मृत और उधार विचार देकर ही तृप्त हो जाती है? विचार से जीवंत और शक्ति कौन सी है।
लेकिन मात्र दूसरों के विचारों को सीख लेने से जड़, और मृत भी कोई दूसरी जड़ता नहीं है। विचार संग्रह जड़ता लाता है। विचार संग्रह से विचार और विवेक का जन्म नहीं होता है। क्रमशः…..

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३