जो शिक्षा तुम्हारे भीतर वैयक्तिकता विकसित नहीं करती वह शिक्षा नहीं है, वह अशिक्षा है

 जो शिक्षा तुम्हारे भीतर वैयक्तिकता विकसित नहीं करती वह शिक्षा नहीं है, वह अशिक्षा है

ओशो– मैं एक ऐसी शिक्षा प्रणाली चाहूंगा, जो तुम्हें उत्तर ने दे बल्कि तुम्हारे प्रश्न अधिक तीव्र करे, तुम्हारी बुद्धि अधिक पैनी करे और तुम्हें एक अखंडता प्रदान करे।-ओशो

मैंने सुना है, प्रथम विश्वयुद्ध के बाद मनोवैज्ञानिक ने पहली बार आदमी की बुद्धि नापने की कोशिश की। इस काम के लिए सेना बहुत अच्छी जगह थी। और यह देखकर बहुत धक्का लगा कि सेना में हर सैनिकों की औसतन मानसिक आयु केवल तेरह साल है। आदमी चाहे सत्तर साल का हो, लेकिन उसके मन ने तेरह साल के बाद विकसित होना बंद कर दिया है। लेकिन सेना में वे बुद्धिमान लोग नहीं चाहते हैं….हर सेना सुबह शाम लोगों को प्रशिक्षण देती रहती है तुम सोचते हो, यह प्रशिक्षण है—यह प्रशिक्षण नहीं है। यह उनकी बुद्धि को नष्ट करने का आयोजन है। यह उस बात की तैयारी है, जब वे आदेश देंगे, बंदूक चलाओ, तो वे यह नहीं सोचने, क्यों? वे सब गोली चला देता हैं। वे यह नहीं सोचते कि इस आदमी आदमी ने मेरा कुछ नहीं बिगाड़ा है, मैं इस पर क्यों गोली चलाऊं? इस अनुशासन में उनका क्यों खो जाता है। अनुशासन की अपनी वजह है।

लेकिन यह अनुशासन सिर्फ सेना में नहीं होता, यह समाज मे सब जगह पाया जाता है। अगर तुम अपने माता—पिता से परमात्मा के संबंध में पूछो तो, उनके पास कोई उत्तर नहीं है। क्योंकि उनके माता पिता ने उन्हें कोई उत्तर नहीं दिया था। वे कहते हैं, रुको, जब तुम बड़े हो जाओगे। तब जान जाओगे।मेरे पिता के एक मित्र शहर के सबसे ज्ञानी व्यक्ति माने जाते थे। और मैं उनसे पूछता था, और वे हर बात में कहते, जरा रुको। जब तुम बड़े हो जाओगे, जरा प्रौढ़ हो जाओगे तब तुम समझोगे। बात इसी तरह चलती रही। फिर मैं विश्वविद्यालय से वापिस आया। विश्वविद्यालय में मैं प्रथम आया था। मैं उनके पास गया, कि सब समय आ गया है। मैं पूरे विश्वविद्यालय में प्रथम आया हूं। मेरे सवालों का क्या? वे बोले, तुम जरा ठहरो। मैंने कहा, बस अब बहुत ज्यादा हो गया। मैंने बहुत प्रतीक्षा कर ली। ईमानदारी से कहो, आप इनके उत्तर जानते हैं या नहीं? वे ईमानदार आदमी थे। उन्होंने कहा, सच कहूं, तो मैं नहीं इनके उत्तर जानते हैं या नहीं? वे ईमानदार आदमी थे। उन्होंने कहा, सच कहूं, तो मैं नहीं जानता। यह सिर्फ एक चाल थी, जो सदियों तक इस्तेमाल की गई थी। तुम्हारे साथ मुश्किल यह है कि तुम पूछते ही चले जाते हो। अधिकतर लोग जब बड़े हो जाते हैं, तब अन्य बातों में उलझ जाते हैं। और इन बातों को उन्हें कोई परवाह नहीं होता, वे भूल ही जाते हैं। और अधिकतर तो उनकी शादी हो जाती है। उनके बच्चे उनसे पूछने लगते हैं और वे कहने लगते हैं, रुको, जब तुम बड़े हो जाओगे तब तुम्हें उत्तर मिल जाएगा। तुम्हारे साथ मुश्किल यह है कि तुम अविवाहित हो।मैंने कहा, यह तो बड़ी अजीब बात हुई। आप सोचते हैं कि शादी सब समस्याएं सुलझा देगी। मुझे तो इसमें कोई तुक नहीं दिखाई देती कि विवाह करने से ही मैं ईश्वर को जान लूंगा। अन्यथा जो विवाहित हैं, उस ने जान लिया होता। आपने तीन बार शादी की है, आप सब रहस्य जान गए होंगे।

वे बोले, मैं कुछ नहीं जानता। लेकिन बच्चों से छुटकारा पाने का यही उपाय है, नहीं तो वे तुम्हारा सिर खा जाएंगे।

लेकिन इससे उनकी बुद्धि का विकास नहीं होगा। बेहतर होता यदि वे कहते, हमें पता नहीं है, हम खुद खोज रहे हैं तो उसमें ज्यादा प्रामाणिकता होती; उसमें अधिक धार्मिकता होती। यह तो धूर्तता हुई। और यह धार्मिक नहीं है। और सारा समाज इस पाखंड में जी रहा है। तुम ईश्वर को नहीं जानते, फिर भी उसकी पूजा करते हो। तुम कुछ नहीं जानते, फिर भी उत्तर देने के लिए तैयार हो चूंकि वे उत्तर तुम्हें दिए गए हैं, तुम उन्हें तोतों की तरह दोहराते रहते हो।
मैं एक ऐसी शिक्षा प्रणाली चाहूंगा, जो तुम्हें उत्तर ने दे बल्कि तुम्हारे प्रश्न अधिक तीव्र करे, तुम्हारी बुद्धि अधिक पैनी करे और तुम्हें एक अखंडता प्रदान करे। तुम्हारी शरीर की समुचित देखभाल की जाए, तुम्हारे मन में एक स्वच्छता हो और तुम्हारी आत्मा जो कि पूरी तरह से उपेक्षित है; उसका कोई उल्लेख ही नहीं करता। तुम्हें ध्यान के अनुकूल वातावरण मिलना चाहिए। तुम्हें मौन होने की कला सिखायी जानी चाहिए। और मौन न हिंदू होता है, न मुसलमान होता है, न ईसाई। मौन सिर्फ मौन होता है। शांति की गहन झीन बनने में तुम्हारी मदद करनी चाहिए, ताकि तुम अपनी आत्मा को पहचान सको। यह तुम्हें यह धार्मिक व्यक्ति बनाएगा—बिना तुम्हें ईश्वर की जानकारी दिए, बिना तुम्हें ऐसी बातें सिखाए जिन पर मूढ़ से मूढ़ व्यक्ति को भी संदेह होगा। तुम मुसलमान नहीं बनाए जाओगे, ईसाई या जैन या सिख नहीं बनाए जाओगे, बल्कि तुम एक संगठित, स्वस्थ, सचेतन, आत्मवान, दृढ़मूल व्यक्ति बनोगे। लेकिन यह बस सभी शक्ति के खिलाफ जाती हैं। क्योंकि तब फिर वे तुम्हें गुलाम नहीं बना सकते।बाकी सब बातें जो सिखायी जा रही है, सिखायी जा सकती है, लेकिन उनमें ये बात और जोड़ देनी चाहिए। जो शिक्षा तुम्हारे भीतर वैयक्तिकता विकसित नहीं करती वह शिक्षा नहीं है, वह अशिक्षा है.

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३ 
फिर अमरित की बूंद पडी-5