ओशो- भारत में दो परम्पराएं हैं—एक परम्परा है वेदों की और दूसरी है तंत्र की। वेदों की परम्परा अधिक औपचारिक है, जिसकी प्रकृति में संस्कार है। वेद कहीं अधिक सामाजिक और संगठनात्मक है जबकि तंत्र वैयक्तिक अधिक है। उसका सम्बन्ध, संस्कारों, आदतों और रूपों से बहुत कम है, उसका सम्बंध आधारभूत तत्व से अधिक है, वह बाह्य रूप आकृति से कम, आत्मा से अधिक सबंधित है।वेदों में सब कुछ सम्मिलित नहीं है, काफी कुछ वर्जनाएं हैं। उसमें कहीं अधिक कट्टर धार्मिकता और नैतिकता है। तंत्र में उदारता है, उसमें सभी कुछ सम्मिलित है, वह अधिक मानवीय और इसी पृथ्वी से जुड़ा हुआ है। तंत्र कहता है कि प्रत्येक चीज का प्रयोग करना चाहिए और कुछ भी— अस्वीकारने जैसा नहीं है। बाउल, वेदों की अपेक्षा, तंत्र के अधिक निकट हैं। तंत्र में वहां केवल एक ही सुधार और प्रगति है और वही दोनों में एकमात्र अंतर है। तंत्र में सब कुछ समाहित है। यह पुरुष प्रधान की अपेक्षा स्त्री प्रधान अधिक है, जबकि वेद अधिक पुरुष प्रधान है। तंत्र में स्त्री की अधिक प्रमुखता है। वास्तव में पुरुष की अपेक्षा उसमें स्त्री की भागीदारी अधिक है। पुरुष स्त्री में ही सम्मिलित है, लेकिन स्त्री पुरुष में सम्मिलित नहीं है।पुरुष होना एक तरह की विशेषता लगता है। स्त्री कहीं अधिक सामान्य, अधिक तरल और कहीं अधिक स्वीकार है। तंत्र का मार्ग ताओ की भांति स्त्रैण मार्ग है।
लेकिन बाउल तंत्र से अधिक विकसित हैं। तंत्र अत्यधिक यांत्रिक है। तंत्र शब्द का अर्थ ही है—विधि। यह अधिक वैज्ञानिक लेकिन थोड़ा सख्त है। बाउल लोग कहीं अधिक काव्यात्मक हैं। बाउल लोग कहीं अधिक कोमल गायक और नर्त्तक है।
तंत्र सेक्स का प्रयोग उससे ऊपर उठने के लिए करता है, लेकिन वह उसका प्रयोग करता है। सेक्स एक उपकरण या माध्यम बन जाता है। बाउल कहते हैं—यह बहुत अधिक असम्मानपूर्ण है : तुम किसी ऊर्जा का प्रयोग कैसे कर सकते हो? उस ऊर्जा को तुम माध्यम या उपकरण कैसे बना सकते हो? वे सेक्स का माध्यम की भांति प्रयोग नहीं करते, वे उसमें प्रसन्नता और आनंद का अनुभव करते हैं। वे बिना किसी यांत्रिकता के उसे एक पूजा या आराधना बना देते हैं। प्रेम करना कोई यांत्रिकता नहीं है। वे प्रेम करते हैं और प्रेम के द्वारा रूपांतरण स्वत: घटता है।तंत्र में तुम्हें उससे तादात्म्य न जोड़कर अनासक्त रहना होता है। यहां तक के सेक्स का प्रयोग समाधि के लिए एक माध्यम के रूप में करते हुए भी तुम्हें सेक्स के प्रति अनासक्त रहना होता है, पूरी तरह तटस्थ, पूरी तरह एक दर्शक बने रहना होता है, ठीक एक साक्षी बनकर या उस वैज्ञानिक की भांति जो अपनी प्रयोगशाला में कार्य कर रहा है। तांत्रिक कहते हैं—तंत्र की विधियां उस स्त्री के साथ, जिससे तुम प्रेम करते हो, नहीं की जा सकतीं। क्योंकि प्रेम ही बाधक बन जाता है। तुम उसके प्रति आसक्त हो जाओगे। तुम उससे निरासक्त बने रहकर उससे बाहर नहीं, इसलिए तांत्रिक किसी ऐसी स्त्री को खोजेंगे जिसके साथ वे प्रेम नहीं करते, जिससे उनका पूरा व्यवहार पूरी तरह तटस्थ दर्शक का बना रह सके।यहीं पर बाउल उनसे पृथक हैं। वे कहते हैं कि यह कहीं अधिक निर्दयता है। यह भावनाशून्य व्यवहार बहुत अधिक क्रूर है। वहां इतना कठोर और रूखा बने रहने की कोई आवश्यकता नहीं। प्रेम के द्वारा रूपांतरण सम्भव है। यही कारण है कि मैं उनके व्यवहार और आचरण को कहीं अधिक काव्यात्मक, कहीं अधिक मानवीय और कहीं अधिक कीमती मानता हूं। बाउल कहते हैं कि तुम संसा से बंध कर रहते हुए भी उससे निरासक्त भी रह सकते हो, तुम एक स्त्री से प्रेम करते हुए भी प्रेम के साक्षी बने रह सकते हो और तुम बाजार के बीच खड़े हुए भी उसके पार हो सकते हो।
तुम संसार में जीते हुए भी उससे पृथक हो सकते हो।
यही दृष्टि मेरी भी दृष्टि है। यही मेरे संन्यास का नाम है—संसार में रहो पर उसके होकर मत रहो। और किसी भी चीज का कोई मूल्य नहीं, यदि वह प्रेम के द्वारा न की जाए।इसी वजह से जहां तंत्र में कुछ भी कमी है, तो वह मनुष्यता की कमी है। यदि तुम किसी स्त्री से प्रेम करते हो, तो तंत्र सम्भव नहीं है। तुम्हें प्रेम से बिलकुल पृथक, अलिप्त रहना होगा। तब सेक्स बहुत अधिक वैज्ञानिक प्रक्रिया बन जाती है।
वह विधि बन जाती है—कुछ ऐसी चीज नहीं, जिसे नियंत्रित करना है, कुछ ऐसी चीज जिसे किये जाना है, कोई ऐसी चीज जिसके अंदर बने रहना है, कोई ऐसी चीज नहीं है जो तुम्हें अपने में जज्व कर लेती है कोई ऐसी चीज नहीं ,जिसमें सागर में डूब जाने की या समाहित होकर सर्वोच्च परमानंद पाने की अनुभूति होती है, बल्कि वह ऐसी क्रिया बन जाती है, जिसे तुम कर रहे हो। किसी स्त्री अथवा किसी पुरुष में कोई भी चीज करने का विचार इसीलिए उठता है, क्योंकि तुम समाधि को उपलब्ध होना चाहते हो, दूसरे व्यक्ति को साधन या एक माध्यम बनाने का विचार ही कुरूप और अनैतिक है।
इसीलिए जहां कहीं भी बाउल होते हैं उनकी एक भिन्न सुवास होती है। वे कहते हैं—वहां इतना अधिक कठोर होने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। वहां किसी को माध्यम की भांति प्रयोग करने की या साधन प्रधान होने की कोई आवश्यकता ही नहीं। प्रेम सब कुछ स्वत: कर देगा और हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि उनका प्रेम करने से अर्थ क्या है।