व्यक्ति का अलग होकर कुछ कर लेना, अत्यंत नैतिक शक्ति का, आत्मिक शक्ति का प्रतीक है “ओशो”

 व्यक्ति का अलग होकर कुछ कर लेना, अत्यंत नैतिक शक्ति का, आत्मिक शक्ति का प्रतीक है “ओशो”

ओशो– बहुत पुराने समय की बात है, एक पहाड़ के ऊपर, एक बहुत दुर्गम पहाड़ के ऊपर एक स्वर्ण का मंदिर था। उस मंदिर में जितनी संपदा थी, उतनी उस समय सारी जमीन पर भी मिला कर नहीं थी। सारा मंदिर ही स्वर्ण का था, रत्न रचित था। उस मंदिर का जो प्रधान पुजारी था, उसकी मृत्यु निकट आई, तो उसके सामने सवाल उठा कि वह मंदिर के दूसरे पुजारी को नियुक्त कर दे। उस मंदिर की प्रथा थी कि जो व्यक्ति उस युग का सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति हो, वही मंदिर का पुजारी हो सकता था। तो सारे देश में शक्तिशाली व्यक्ति को खोजने की योजना बनी। कैसे सारे देश में सबसे शक्तिशाली व्यक्ति को खोजा जाए? तो घोषणा की गई कि जो व्यक्ति एक निश्चित समय पर, जिन-जिन व्यक्तियों को भी यह ख्याल हो कि वे शक्तिशाली हैं, पर्वत के नीचे इकट्ठे हो जाएं। निश्चित समय पर, सारे प्रतियोगी पर्वत की चढ़ाई पर निकलें, जो सबसे पहले मंदिर में पहुंच जाएगा, वही शक्तिशाली सिद्ध होगा और मंदिर का पुजारी हो जाएगा।स्वाभाविक था कि जिनमें भी बल था, वे सारे लोग इकट्ठे हुए, बहुत से युवक इकट्ठे हुए, ऐसा मौका कौन चूक सकता था। निश्चित दिन पर उन सारे लोगों ने पर्वत की चढ़ाई शुरु की। बलिष्ठ से बलिष्ठ लोग आये थे, बहुत दुर्गम चढ़ाई थी, चढ़ाई शुरु करते वक्त जो जितना बलिष्ठ था, उसने उतना ही बड़ा पत्थर भी अपने कंधे पर रख लिया, इसलिए ताकि उसका पौरुष उस पत्थर के भार से प्रकट हो सके। पौरुष चिह्न की तरह, अपनी शक्ति के चिह्न की तरह कुछ तो डर ही गए, उनसे पत्थर उठाते नहीं बने, वे यह सोच कर कि जब हम से पत्थर भी नहीं उठता और लोग इतने-इतने बड़े पत्थर लेकर पहाड़ चढ़ रहे हैं, भाग गये और लौट गये। फिर भी सौ युवक बड़े-बड़े पत्थर लेकर पहाड़ पर चढ़ने शुरु हुए, वैसे ही पहाड़ कठिन था; ऊंची दुर्गम चढ़ाई थी, फिर पत्थरों का भार था, कोई एक महीने की लम्बी चढ़ाई थी। बहुत दूर, बहुत दुर्गम में वह मंदिर था; इसीलिए तो स्वर्ण का था, इसीलिए तो रत्न खचित था, जो मंदिर जितना दूर होता है, उतना ही सोने का होता है। जो मंदिर जितना दुर्गम होता है, उतना ही रत्न खचित होता है। और जहां जितनी संपदा है, जितना धन है उतनी ही दुर्गम चढ़ाई है।बहुत पुराने समय की बात है, एक पहाड़ के ऊपर, एक बहुत दुर्गम पहाड़ के ऊपर एक स्वर्ण का मंदिर था। उस मंदिर में जितनी संपदा थी, उतनी उस समय सारी जमीन पर भी मिला कर नहीं थी। सारा मंदिर ही स्वर्ण का था, रत्न रचित था। उस मंदिर का जो प्रधान पुजारी था, उसकी मृत्यु निकट आई, तो उसके सामने सवाल उठा कि वह मंदिर के दूसरे पुजारी को नियुक्त कर दे। उस मंदिर की प्रथा थी कि जो व्यक्ति उस युग का सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति हो, वही मंदिर का पुजारी हो सकता था। तो सारे देश में शक्तिशाली व्यक्ति को खोजने की योजना बनी। कैसे सारे देश में सबसे शक्तिशाली व्यक्ति को खोजा जाए? तो घोषणा की गई कि जो व्यक्ति एक निश्चित समय पर, जिन-जिन व्यक्तियों को भी यह ख्याल हो कि वे शक्तिशाली हैं, पर्वत के नीचे इकट्ठे हो जाएं। निश्चित समय पर, सारे प्रतियोगी पर्वत की चढ़ाई पर निकलें, जो सबसे पहले मंदिर में पहुंच जाएगा, वही शक्तिशाली सिद्ध होगा और मंदिर का पुजारी हो जाएगा।स्वाभाविक था कि जिनमें भी बल था, वे सारे लोग इकट्ठे हुए, बहुत से युवक इकट्ठे हुए, ऐसा मौका कौन चूक सकता था। निश्चित दिन पर उन सारे लोगों ने पर्वत की चढ़ाई शुरु की। बलिष्ठ से बलिष्ठ लोग आये थे, बहुत दुर्गम चढ़ाई थी, चढ़ाई शुरु करते वक्त जो जितना बलिष्ठ था, उसने उतना ही बड़ा पत्थर भी अपने कंधे पर रख लिया, इसलिए ताकि उसका पौरुष उस पत्थर के भार से प्रकट हो सके। पौरुष चिह्न की तरह, अपनी शक्ति के चिह्न की तरह कुछ तो डर ही गए, उनसे पत्थर उठाते नहीं बने, वे यह सोच कर कि जब हम से पत्थर भी नहीं उठता और लोग इतने-इतने बड़े पत्थर लेकर पहाड़ चढ़ रहे हैं, भाग गये और लौट गये। फिर भी सौ युवक बड़े-बड़े पत्थर लेकर पहाड़ पर चढ़ने शुरु हुए, वैसे ही पहाड़ कठिन था; ऊंची दुर्गम चढ़ाई थी, फिर पत्थरों का भार था, कोई एक महीने की लम्बी चढ़ाई थी। बहुत दूर, बहुत दुर्गम में वह मंदिर था; इसीलिए तो स्वर्ण का था, इसीलिए तो रत्न खचित था, जो मंदिर जितना दूर होता है, उतना ही सोने का होता है। जो मंदिर जितना दुर्गम होता है, उतना ही रत्न खचित होता है। और जहां जितनी संपदा है, जितना धन है उतनी ही दुर्गम चढ़ाई है।तीव्रता से वह गया और सबसे पहले पहुंच गया। वह सुबह पहुंच गया, दूसरे सांझ पहंुचे। लेकिन जो दूसरे थे उन्होंने सोचा, पागल है, इसका प्रयोजन क्या है, पहुंच जाने का। कौन इसे पूछेगा? लेकिन जब वे सांझ पहुंचे तो चकित रह गये, पुजारी ने उसे भार सौंप दिया था। वह नया पुजारी नियुक्त हो गया था। उन सबने शिकायत की जाकर कि यह क्या बात है? यह कैसा अन्याय है, यह कैसा धोखा है? उस पुजारी ने कहाः न तो धोखा है, न अन्याय है और न ही ऐसी बात है कि मुझे तथ्यों का पता न हो। लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि इस जगत में सबसे शक्तिशाली वही है, जो अपने भार को छोड़ने का सामथ्र्य रखता है। और मैं तुमसे यह भी पूछना चाहता हूं कि किसने तुमसे कहा था कि तुम पत्थर लेकर चढ़ो? यह किसने तुम्हें सुझाव दिया था कि तुम अपने कंधों पर पत्थर भी ले लेना? बात तो सिर्फ चढ़ने की थी, भार लेने की कहां थी? निश्चित ही तुम्हारे अहंकार ने तुम्हें सुझाव दिया होगा कि मैं हूं बड़ा बली, तो बड़ा पत्थर लेकर चलूं। तुम्हारे अहंकार ने तुम्हारे कान में कहा होगा कि पत्थर सिर पर ले लो। अन्यथा ऐसी तो कोई बात न थी, किसने खबर की थी? इस युवक ने अदभुत साहस का, शक्ति का परिचय दिया है और सबसे बड़ी शक्ति और साहस यह है कि जबकि तुम सब पत्थर से बंधे थे, उस अकेले ने पत्थर छोड़ने की हिम्मत की।दुनिया में भीड़ से अलग होने से बड़ी और कोई कठिन बात नहीं है। जो भीड़ कर रही हो, जो सब कर रहे हों उससे एक व्यक्ति का अलग होकर कुछ कर लेना, अत्यंत नैतिक शक्ति का, आत्मिक शक्ति का प्रतीक है। इसलिए इसे मंदिर का पुजारी बना दिया। और उसने उन सबको विदा करते वक्त कहा और स्मरण रखो अंत में भगवान के दरवाजे पर वे ही प्रविष्ट होंगे, जिनके कंधे पर कोई भार नहीं है, जो निर्भार है, जो जितना निर्भार है, वह उतना ही ऊपर उठ जाता है। जो जितना भारी है वह नीचे बैठ जाता है।

🍁🍁ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३ 🍁🍁
स्वयं की सत्ता-(प्रवचन-06)
छठवां प्रवचन-(भार क्या है?)