ओशो- मेरे प्रिय आत्मन्! ज्ञान शक्ति है, ज्ञान ही मुक्ति भी। और ज्ञान ही विजय की यात्रा है। जिसे हम जान लेते हैं, उससे हम मुक्त हो जाते हैं। और जिसे हम जान लेते हैं, उसे हम जीत भी लेते हैं। हमारी हार और पराजय हमारे अज्ञान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। अंधकार है, इसलिए पराजय है। प्रकाश हो तो पराजय असंभव है। प्रकाश विजय बन जाता है।मृत्यु के संबंध में पहली बात आपसे यह कहना चाहूंगा कि मृत्यु से अधिक असत्य और कुछ भी नहीं है। लेकिन मृत्यु ही सत्य मालूम होती है। न केवल सत्य मालूम होती है, बल्कि जीवन का केंद्रीय सत्य भी वही मालूम होती है। और ऐसा प्रतीत होता है कि सारा जीवन मृत्यु से घिरा हुआ है। और चाहे हम भूल जाते हों, भुला देते हों, लेकिन फिर भी मृत्यु चारों तरफ निकट ही खड़ी रहती है। अपनी छाया से भी ज्यादा अपने पास मृत्यु है।जीवन का जो रूप हमने दिया है, वह भी मृत्यु के भय के कारण ही दिया है। मृत्यु के भय ने समाज बनाया है, राष्ट्र बनाए हैं, परिवार बनाए हैं, मित्र इकट्ठे किए हैं। मृत्यु के भय ने धन इकट्ठे करने की दौड़ दी है, मृत्यु के भय ने पदों की आकांक्षा दी है, और सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि मृत्यु के भय ने ही हमारे भगवान और हमारे मंदिर भी खड़े कर दिए हैं। मृत्यु से भयभीत घुटने टेककर प्रार्थना करते हुए लोग हैं। मृत्यु से भयभीत आकाश की तरफ, परमात्मा की तरफ हाथ जोड़े हुए लोग हैं। और मृत्यु से ज्यादा असत्य कुछ भी नहीं है। इसीलिए मृत्यु को सत्य मानकर हमने जो भी जीवन की व्यवस्था की है, वह सब भी असत्य हो गई है।लेकिन मृत्यु का असत्य हमें कैसे पता चले? यह हम कैसे जान पाएं कि मृत्यु नहीं है? और जब तक हम यह न जान पाएं, तब तक हमारा भय भी विलीन नहीं होगा। और जब तक हम यह न जान पाएं कि मृत्यु असत्य है, तब तक जीवन हमारा सत्य नहीं हो सकता है। जब तक मृत्यु का भय है, तब तक जीवन सत्य नहीं हो सकता है। और जब तक मृत्यु से हम डरे हुए कंप रहे हैं, तब तक जीवन को जीने की क्षमता भी हम नहीं जुटा सकते।
जीवन को केवल वही जी सकता है, जिसके सामने से मृत्यु की छाया विदा और विलीन हो गई है। कंपता हुआ मन कैसे जीएगा? डरा हुआ मन कैसे जीएगा? और मौत जब प्रतिपल आती हुई मालूम पड़ती हो तो हम कैसे जीएं? हम कैसे जी सकते हैं?
और हम कितना ही भुलाए रखें मृत्यु को, वह भूली नहीं रहती। मरघट हम गांव के बाहर बनाएं तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, वह दिखाई पड़ ही जाता है। रोज कोई न कोई मरता है, रोज कहीं न कहीं मृत्यु घटित होती है और हमारे जीवन की सारी की सारी नींव हिल जाती है। और प्रत्येक बार जब भी मृत्यु घटती हुई दिखाई पड़ती है, तभी हम जानते हैं कि मैं भी मरूंगा। जब हम किसी की मृत्यु पर रोते हैं, तब हम सिर्फ उसकी मृत्यु पर ही नहीं रोते, अपनी मृत्यु की खबर पर भी रोते हैं। और जब हम दुखी और पीड़ित होते हैं मृत्यु को देखकर, तो हम दूसरे की मृत्यु को देखकर ही दुखी और पीड़ित नहीं होते, उसमें हमारे मरने की संभावना भी प्रकट हो गई होती है।
हर मृत्यु हमारी मृत्यु भी है। और ऐसे जब तक हम घिरे रहें, तब तक हम कैसे जी सकेंगे? तब तक जीना असंभव है। तब तक हमें जीवन का पता भी नहीं चल सकता, न उसके आनंद का, न उसके सौंदर्य का, न उसके रस का। तब तक जीवन का जो परम सत्य है–परमात्मा, उसके मंदिर के द्वार पर भी हम नहीं पहुंच सकते।मृत्यु के भय ने एक तरह के मंदिर निर्मित किए हैं, वे परमात्मा के मंदिर नहीं हैं। और मृत्यु के भय से एक तरह की प्रार्थनाएं निर्मित हुई हैं, वे भी परमात्मा की प्रार्थनाएं नहीं हैं। परमात्मा के मंदिर पर तो वह पहुंचता है, जो जीवन के आनंद से परिपूरित हो जाता है। और परमात्मा की सीढ़ियां जीवन के सौंदर्य और जीवन के रस से भरी हुई हैं। और परमात्मा के द्वार की घंटियां सिर्फ उनके लिए बजती हैं, जो सब तरह के भय से मुक्त होकर अभय हो जाते हैं।तब तो बड़ी कठिनाई मालूम पड़ती है। हम मृत्यु से भरे हुए जीना चाहते हैं। ऐसा कभी भी नहीं हो सकता है। दो में से एक ही बात सत्य हो सकती है। ध्यान रहे, यदि जीवन सत्य है, तो मृत्यु सत्य नहीं हो सकती; और अगर मृत्यु सत्य है, तो जीवन सिर्फ एक सपना होगा–एक झूठ। वह सत्य नहीं हो सकता है। ये दोनों बातें एक साथ होनी असंभव हैं।
लेकिन हमने इन दोनों बातों को एक साथ पकड़ रखा है। ऐसा भी लगता है कि हम जीते हैं, और ऐसा भी लगता है कि हम मरेंगे।
मैंने सुना है, किसी दूर पहाड़ की तलहटी के पास एक फकीर का निवास था। बहुत लोग उसके पास बहुत-सी बातें पूछने चले जाते थे। एक बार एक आदमी उससे पूछने गया कि हमें जीवन और मृत्यु के संबंध में कुछ बताओ। उस फकीर ने कहा, अगर जीवन के संबंध में जानना हो तो स्वागत है तुम्हारा, आओ द्वार खुले हैं। लेकिन अगर मृत्यु के संबंध में जानना हो तो कहीं और जाओ, क्योंकि मैं न तो कभी मरा हूं और न कभी मर सकता हूं। मृत्यु का मुझे कोई अनुभव नहीं है। अगर मृत्यु के संबंध में जानना है तो उनसे पूछो जो मर चुके हैं, उनसे पूछो जो मर गए हैं। लेकिन तब वह फकीर हंसने लगा और उसने कहा कि उनसे तुम पूछोगे कैसे जो मर ही चुके हैं! उनसे पूछने का भी तो उपाय नहीं है। और उस फकीर ने यह भी कहा कि अगर तुम मुझसे यह पूछो कि किसी मरे हुए का पता-ठिकाना दे दूं, तो भी मैं नहीं दे सकता। क्योंकि जब से मुझे यह पता चला है कि मैं नहीं मर सकता हूं, तब से मुझे यह भी पता चल गया है कि कोई कभी नहीं मरता है। कोई मरा ही नहीं है, उस फकीर ने कहा।
कैसे हम मानें उसकी बात? हम तो रोज किसी को मरते देखते हैं। रोज मृत्यु घटित होती है। मृत्यु बड़ा सत्य है, प्राणों को छेदकर दिखाई पड़ता है। आंखें बंद करें कितनी ही, तो भी दिखाई पड़ता है। कितने ही भागें और बचें, वह तो हमें घेर ही लेती है। इस सत्य को कैसे झुठला दें?
कुछ लोग झुठलाने की कोशिश भी करते हैं। कुछ लोग मृत्यु से भय के कारण ही यह मान लेते हैं कि आत्मा अमर है–सिर्फ भय के कारण। जानते नहीं हैं, सिर्फ मान लेते हैं। कुछ लोग रोज सुबह उठकर यह दोहरा रहे हैं–मंदिरों में बैठकर, मस्जिदों में बैठकर–कि आत्मा अमर है, आत्मा कभी नहीं मरती है, आत्मा अमर है। और वे इस भ्रम में हैं कि शायद बार-बार दोहराने से आत्मा अमर हो जाएगी। और शायद वे इस खयाल में हैं कि बार-बार दोहराने से मौत को झूठा किया जा सकता है।
मौत झूठी नहीं होती दोहराने से। मौत तो सिर्फ जानने से झूठी हो सकती है।
ध्यान रहे, यह बहुत आश्चर्य की बात है कि हम जिस बात को दोहराते हैं, उससे विपरीत को हम सदा स्वीकार करते हैं। जब एक आदमी कहता है कि मैं अमर हूं, आत्मा अमर है, और इसको दोहराता है, तब इस बात का पता देता है कि भीतर वह जानता है कि मैं मरूंगा, मुझे मरना पड़ेगा। अगर वह यह जानता है कि मैं मरूंगा नहीं, तो अब इस बात को दोहराने की कोई भी जरूरत नहीं है। इसे सिर्फ दोहराता वही है, जो डरा हुआ है।
और इसलिए यह दिखाई पड़ेगा कि जो देश, जो समाज आत्मा की अमरता की बातें करते हैं, उनसे ज्यादा मौत से डरने वाले लोग खोजने कठिन हैं। यह हमारा ही देश है, जो आत्मा की अमरता की बात करते थकता नहीं है, लेकिन फिर भी हमसे ज्यादा मौत से कोई डरता है इस पृथ्वी पर? हमसे ज्यादा मौत से कोई भी नहीं डरता है।
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३ मैं मृत्यु सिखाता हूं प्रवचन ३