ओशो- हिंदुस्तान में साधु-संन्यासी, सज्जन जिनको हम कहें, वे सब आधुनिकता के बड़े विपरीत हैं। वे कहते हैं, आधुनिक हुए तो अपना सब खो जाएगा, भारतीय न रह जाओगे। अतीत की संपदा है, वह खो जाएगी। वे कहते हैं कि आधुनिक होने से बचना, अन्यथा अपनी संस्कृति खो जाएगी।असल में जो संस्कृति जिंदा होती है, वह आधुनिक होकर ही बचती है। आधुनिक होकर खोती नहीं हैं। सिर्फ जिस संस्कृति को मरना हो वहीं आधुनिक होने से बचती सकती है। जैसे मैंने कल भी श्वासें ली थीं और अगर मैं यह सोचूं कि अगर मैं आज भी श्वास लूंगा तो कलवाला आदमी मर जाएगा, तो फिर मैं मरूंगा। मुझे आज श्वास लेनी पड़ेगी। तो ही मैं जिंदा रह सकता हूं।आधुनिकता का मतलब है कि आज वर्तमान में श्वास लेने की क्षमता। और जिंदगी रोज बदलती जाती है, जिंदगी को रोज आधुनिक होना पड़ता है। उसे रोज नये कदम उठाने पड़ते हैं, उसे नये रास्तों पर चलना पड़ता है, नई बातें सीखनी पड़ती हैं, नये वातावरण, नये माहौल से समायोजित होना पड़ता है।
भारत एक अगर कसम लेकर बैठ जाए कि हम तो सब पक्के वही रहेंगे, जो हम पीछे थे, हम तो अपनी चोटी बढ़ा कर रखेंगे, नहीं तो भारतीय नहीं रह जाएंगे, हम तो जनेऊ पहनेंगे नहीं तो भारतीय नहीं रह जाएंगे…।
और यह छोटे-मोटे भारतीय का मामला नहीं है, जिनको हम बड़े-बड़े भारतीय कहते हैं, उनकी बुद्धि भी उतनी ही छोटी होती है। उसमें कोई बड़ा फर्क नहीं होता है। मदनमोहन मालवीय जैसा आदमी अंग्रेज से हाथ मिलाने में डरते थे कि कहीं अपवित्र न हो जाएं।
जो कौम इतनी घबड़ाई हुई हो जाएगी कि किसी से हाथ न मिला सके, उस कौम का कोई भविष्य नहीं हो सकता। इंग्लैंड गए थे गोलमेज कांफ्रेंस में, तो गंगाजल साथ में ले गए थे पीने के लिए। थेम्स नदी का जल जो है, वह भगवान का बनाया हुआ नहीं है।
वह गंगा ही का जल भगवान ने बनाया हुआ है। वह गंगा का जल उनको जाता रहा पीने के लिए। क्या पागलपन है? ऐसी कौम जिंदा नहीं रह सकती है। इधर शंकर जी की पिंडी छिपाए हुए थे पगड़ी में भीतर, जिससे शंकर जी रक्षा करते रहें। कोई अपवित्र छू न जाए।ऐसे आदमी के साथ शंकर जी भी अपवित्र हो जाएंगे। ज ऐसा अपवित्रता से डरा हुआ है, वह जिंदा कैसे रहेगा? यह आदमी जिंदा रहने की कोशिश नहीं कर रहा है। पूरी कौम हमारी ऐसी हो गई है, तो हम ऐसे डर गए और हम अपनी प्राचीनता को किसी भी तरह घसीटने के लिए कुछ भी दलीलें दिए चले जाते हैं।मैंने एक किताब पढ़ी। एक सज्जन ने वह किताब लिखी है। हिंदू धर्म वैज्ञानिक है, उसने सिद्ध किया है। उसने बड़े मजे की बातें लिखी है। इतने मजे की बातें कि पश्चिम के वैज्ञानिकों को पता चल जाए तो उनको भी बड़ा लाभ हो।
उसने लिखा है कि हमने चोटी क्यों बढ़ाई, उसका वैज्ञानिक कारण है। जैसे कि मकानों के ऊपर लोहे के डंडे लगाते हैं बिजली गिराने को, जिससे बिजली का असर न हो। हम बड़े वैज्ञानिक थे। हमने चोटी बांध कर खड़ी कर ली थी जिससे बिजली पार हो जाए।
हमारी चोटी की वैज्ञानिकता सिद्ध कर रहे हैं। हम सारी दुनिया में अपने को हंसी-योग्य सिद्ध कर लेने में लगे हैं। हम पागलपन में लगे हैं। इस भांति हम जिंदा न रह सकेंगे। उस किताब में लिखा है, खड़ाऊं हिंदू क्यों पहनते हैं। नस दब जाती है पैर की, उस नस के दबने के कारण आदमी ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जाता है।
तो वैसी नस को पैर से काट ही डालो तो बड़ा अच्छा हो जाए! उसको दबा ही दोे। अब तो दबाने के बड़े उपाय हैं, खड़ाऊं पहनने की जरूरत नहीं है। नस को दबा ही दोे, नसबंदी बहुत अच्छी होगी। यह इस तरह की नसबंदी बहुत अच्छी हो जाएगी, बर्थ-कंट्रोल के लिए बड़े फायदे की होगी। हम अपनी व्यर्थता को भी आधुनिक ढांचा पहनाने में उत्सुक हैं।
नहीं, जो व्यर्थ है उसे छोड़ना पड़ेगा और अगर उसे हम नहीं छोड़ें तो उसके साथ हम मूढ़ बनते हैं। हम सारे जगत में हंसने योग्य हुए चले जा रहे हैं। हम व्यर्थ ही अपने आप हंसने योग्य बनने की कोशिश में लगे हैं। हमें आधुनिक होना पड़ेगा। आधुनिक होना जीवन का धर्म है।आधुनिक होने का मतलब है कि जो आज है जिंदगी हमें उसके योग्य होकर खड़ा होना पड़ेगा। इसका यह मतलब नहीं है–आधुनिक होने का मतलब पाश्चात्यीकरण नहीं हैं। मॉर्डनाइजेशन का मतलब वेस्टर्नाइजेशन नहीं है। पाश्चात्यीकरण की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन आधुनिकीकरण तो करना ही पड़ेगा। जिंदगी को सब तरफ से नया करना पड़ेगा। नहीं करेंगे तो हम मरेंगे। किसी और को उससे नुकसान नहीं होगा।