जिंदगी का एक नियम ख्याल में रखने जैसा है, कि जो आगे नहीं बढ़ते, वह अपनी जगह खड़े नहीं रह जाते, वह पीछे हटते जाते हैं, जिंदगी में ठहराव जैसी कोई चीज नहीं होती “ओशो”

 जिंदगी का एक नियम ख्याल में रखने जैसा है, कि जो आगे नहीं बढ़ते, वह अपनी जगह खड़े नहीं रह जाते, वह पीछे हटते जाते हैं, जिंदगी में ठहराव जैसी कोई चीज नहीं होती “ओशो”

ओशो- मैंने सुना है, फ्रान्स की क्रांति के समय, वहां का जो सबसे खतरनाक कारागृह था, जहां आजीवन कैदी रखे जाते थे, क्रांतिकारियों ने उसे तोड़ दिया। उस कारागृह में ऐसे लोग बंदी थे, कोई बीस वर्ष से, कोई तीस वर्ष से, कोई पचास वर्ष से भी उस कारागृह की जंजीरें और बेड़ियां, सदा के लिए लगती थी। फिर जब आदमी मरता था, तो उसके हाथ तोड़ कर ही, खोली जाती थी। क्योंकि बीच में खुलने का कोई सवाल नहीं था, वह सिर्फ आजन्म कैदियों के लिए था। क्रांतिकारियों ने जाकर जेल की दीवारें तोड़ दीं, दरवाजे. तोड़ दिये, कारागृह में बंद कैदियों को बाहर निकाला। और जबरजस्ती उनकी जंजीरें तोड़ दीं। कई कैदियों ने इंकार भी किया। उन कैदियों ने कहा कि हम अपनी कोठरियों के बाहर हम नहीं आ सकते हैं। हम अंधेरे के आदि हो गए हैं। रोशनी में आंखों को तकली.फ होती है। लेकिन क्रांतिकारी नहीं माने। उन्होंने उनकी जंजीरें भी तोड़ दी, और उन्हें जेल खाने से बाहर कर दिया। एक चमत्कार घटा, लेकिन यह चमत्कार दुनिया को रहा होगा, हम समझ सकते हैं कि यह चमत्कार नहीं, बड़ा स्वाभाविक है। सांझ होते-होते आधे कैदी वापस लौट आए। और उन्होंने क्रांतिकारियों से कहा हम बाहर जाने से इंकार करते हैं। और बिना जंजीरों के हम जी नहीं सकते, क्योंकि वह हमारे शरीर के हिस्से हो गई हैं। अब जब हम चलते हैं तो हमें ऐसा लगता है हम नंगे-नंगे हैं, कुछ खाली-खाली है। हमारी जंजीरें हमें वापस लौटा दो। स्वाभाविक है, जिनके हाथ-पैरों में, सेरों व.जन की जंजीरे पड़ी रही हों, वर्षों तक जो उनके साथ सोए हों, उठे हों, जागे हों, बैठे हों, वह जंजीरें अब जंजीरें नहीं, उनके शरीर के हिस्से हो गई हैं। उनके बिना अब उन्हें नींद न आ सकेगी। ऐसा ही हमारे देश के साथ हुआ है। हमारा अधूरा अध्यात्म, सच है, लेकिन आधा सच। और हमने भौतिकवाद मैटेरियलिज्म को इंकार पर उसे खड़ा किया है। भारत के जिंदगी के अधिकतम दुर्भाग्य का कारण, भारत का भौतिकवाद को इंकार करना है। क्योंकि जैसे ही हम भौतिकवाद को इंकार करते हैं, पूरा जीवन अस्वीकृत हो जाता है। क्योंकि जीवन के सारे आधार भौतिक हैं। शरीर भी भौतिक है, मस्तिष्क भी भौतिक है, .जमीन भी भौतिक है, वृक्ष, पाधे, पशु-पक्षी यह सारा जीवन भौतिक है। इस भौतिक जीवन में अध्यात्म के फूल लगते हैं जरूर, लेकिन यह भौतिक जीवन जब सम्पन्न हो, समृद्ध हो, यह भौतिक जीवन जब संतृप्त हो, जब यह भौतिक जीवन पूरी तरह भरा-पूरा हो, ओवरलोइंग हो, असल में अध्यात्म भौतिक जीवन की ओवरलोइंग है। ऊपर से बह जाना है। मेरी दृष्टि मे अध्यात्म आखिरी लग्जरी है। आखिरी विलास है जो मनुष्य जाति उपलब्ध कर सकती है। लेकिन जिन्होंने भौतिक जीवन को इंकार कर दिया हो, एक आदमी अपने शरीर को इंकार करे, भोजन बंद कर दे, पानी देना बंद कर दे, श्वांस लेना बंद कर दे, क्योंकि यह सब भौतिक हैं। कितनी देर उसकी आत्मा टिकेगी ? और अगर उसकी आत्मा खो जाए, तो कौन जिम्मेदार होगा? आत्मा को बचाने की कोशिश में हमने आत्मा भी खो दी है। आत्मा की चर्चा हम करते रहे हैं, हमसे आत्महीन लोग खोजने कठिन हैं। क्योंकि एक हजार साल तक अगर लोग गुलाम रह सकते हों तो उनके भीतर आत्मा है, यह मानने में शक होता है। और अगर तीन हजार साल तक दीन, दरिद्र रह सकते हों तो यह मानने में थोड़ी सी हिम्मत जुटानी पड़ती है, कि वह जीवित हैं।अध्यात्म हमने बीमारी की तरह पकड़ लिया। अध्यात्म बीमारी बन जाता है, अगर भौतिकता के विपरीत हो। तो मैं यह कहना चाहता हूं कि अगर भारत अपने दुर्भाग्य की कहानी बदलना चाहता हो तो उसे एक मैटेरियलिस्ट स्प्रीचुअलिज्म एक भौतिकवादी अध्यात्म विकसित करना अनिवार्य हो गया है। हमने एक एंटी मैटेरियलिस्ट स्प्रीचुअलिज्म में अपने दिन गुजारे हैं, हमने सब इंकार किया, जो भी जिंदगी में था, सबको कंडेन्ट किया, निंदा की, और धीरे-धीरे हम खुद निंदित हो गए। और इस पृथ्वी पर हम सम्मान योग्य नहीं रह गए। फिर हमने सम्मान की नई तरकीबें निकाली। और हम अपने को ही, अपनी प्रशंसा मंें दिन बिताने लगे। शायद पृथ्वी पर हमसे ज्यादा आत्मप्रशंसा करने वाली कोई भी कौम नहीं है। यह सूचक है। यह इस बात की खबर है कि अब हमें और कोई प्रशंसा करने वाला नहीं मिलता, अब हमें अपनी प्रशंसा खुद ही करनी पड़ती है।शंकराचार्य मुझे पीछे मिले। वह जगतगुरू हैं। मैंने उनसे पूछा, कि जगत से पूछ कर आप गुरू हैं ? जगत ने कोई स्वीकृति दी है आपके गुरू होने की ? बहुत नाराज हो गए। नाराज होना स्वाभाविक है। क्योंकि जगत से पूछें हम जगतगुरू हैं। और एक आदमी हो तो हम समझ सकते हैं दिमाग खराब है। पूरा मुल्क जगतगुरू है। हम सबको यह ख्याल है कि हम सारी दुनिया के गुरू हैं। दुनिया से बिना पूछे। और दुनिया हमारे इन दावों पे हंसती है या, शायद अब हंसने योग्य भी नहीं समझती। वह अपेक्षा से गुजर जाती है। कोई फिक्र भी नहीं करता कि हम क्या दावे कर रहे हैं ? क्योंकि दावे उनके फिक्र किये जा सकते हैं, जिनके दावों के पीछे बल हो। हमारे निर्बल के दावे हैं। जिनके पीछे कोई बल नहीं है। कारण क्या है ? वजह क्या है ?पहला आपसे कारण कहना चाहता हूं और वह यह है, कि जिंदगी अध्यात्म और भौतिकता का समन्वय है। जिंदगी में ये दो चीजें अलग नहीं हैं। आदमी में आत्मा और शरीर ऐसे दो अस्तित्व नहीं हैं। आदमी आत्मा और शरीर का संयुक्त जोड़ है। शायद यह संयुक्त जोड़ कहना भी ठीक नहीं है। यह हमारी पुरानी भाषा की कमजोरी है। इसलिए संयुक्त जोड़ कहना पड़ता है। .ज्यादा बेहतर होगा यह कहना, कि शरीर आत्मा का दिखाई पड़ने वाला हिस्सा है। और आत्मा शरीर का न दिखाई पड़ने वाला हिस्सा है। उचित होगा कहना कि आत्मा का जो हिस्सा आंखों और हाथों की पकड़ में आ जाता है, वह शरीर है। और आत्मा का जो हिस्सा हाथों और आंखों की पकड़ में नहीं आता, वह आत्मा है। आत्मा अदृश्य शरीर है, शरीर दृश्य आत्मा है। यह दो चीजें नहीं हैं, ऐसा नहीं है कि कहीं शरीर समाप्त होता है और आत्मा शुरू होती है। और ऐसा भी नहींे है कि आत्मा अलग-थलग शरीर से टूटकर जीती है। यह शरीर और आत्मा एक ही तरंग के दो रूप हैं। यह शरीर और आत्मा एक ही चीज की सघनताओं के भेद हैं। बहुत जो सघन कंडेन्स है, वो शरीर की तरह मालूम पड़ रहा है, बहुत विरल और तरल, और वायवीय जो है, वो आत्मा की तरह मालूम पड़ रहा है। लेकिन हम एक कठिनाई में जी रहे हैं, एक द्वंद्व में। हमने शरीर को अलग, और आत्मा को अलग मान रखा है। उस अलग मानने की वजह से स्वभावतः एक संघर्ष, एक आंतरिक द्वंद्व पैदा हो गया है। शरीर से लड़ों और आत्माओं को बचाओ। तो हमने शरीर से लड़ने की बहुत सी तरकीबंें विकसित की हैं। हमारा पूरा धर्म, हमारी पूरी तपश्चर्या, हमारी साधना की सारी व्यवस्थाएं शरीर से लड़ने की व्यवस्थाएं हैं। और जिसमे जीना है, उससे जो लड़ेगा, उसका जीवन अगर जहर से भर जाए, तो आश्चर्य नहीं है।

जिस घर में मुझे रहना है, उस घर की दीवालों से मैं लड़ूं, तो घर को नुकसान कम, मुझे ही नुकसान ज्यादा पहुंचने वाला है। और जिस जगह मुझे रहना है, उसे मैं इंकार करूं, दुश्मनी करूं, शत्रुता करूं, तो जीना कठिन हो जाएगा, जीना एक भार और एक बोझ बन जाएगा। इसलिए भारत का मन निरंतर एक बात सोच रहा है कि जीवन से छुटकारा कैसे हो ? जिस जीवन में हमें रहना है, हम उसे छुटकारे की भाषा में सोचते हैं, जिस जीवन में हमें आनंद और शांति और सुख खोजना है, उससे हम भागने की, मुक्त होने की भाषा में विचार कर रहे हैं, तो फिर कठिन हो जाएगा। हम जीवन, दुव्र्यवहार कर रहे हैं। हम जीवन के साथ वैसा ही व्यवहार कर रहे हैं, जैसा रेलवे स्टेशन पर, वेटिंग रूम के साथ यात्री करते हैं।वे यात्री बैठे हैं अपनी ट्रेन की प्रतीक्षा में। उन्हें उस वेटिंग रूम से कोई प्रयोजन नहीं है। वह वहां छिलके भी डालते हैं, पान भी थूकते हैं, गंदगी भी फेंकते हैं। और अगर किसी यात्री से कहो, यह क्या कर रहे हो ? तो वह कहता है, यह हमारे बाप का घर है ? यह किसी का भी नहीं है, यह सिर्फ विश्रामालय है, यहां थोड़ी देर रूकना है, हमारी ट्रेन आएगी, हम चले जाएंगे। उसके पहले जो रूके थे, उन्होंने भी उसके साथ यही व्यवहार किया था। उनके बाद जो आएंगे, वह भी यही व्यवहार करेंगे। अगर जिंदगी गंदगी और कुरूपता से भर जाए तो कौन जिम्मेवार है ? भारत में हम जीवन के साथ विश्रामालय का व्यवहार कर रहे हैं, एक घर का नहीं। सबको मरने की प्रतीक्षा है, जल्दी से किसी को स्वर्ग जाना है। किसी को मजबूरी में नर्क जाना पड़े, वो बात दूसरी है। कोई मोक्ष जाने की तैयारी में बैठा है, सब अपनी-अपनी ट्रेन की प्रतीक्षा में यह जो घर है, यह जो जीवन है, इसे सजाने, इसे सुंदर बनाने, इसे सुखी बनाने के लिए कोई, कोई आकांक्षा नहीं है। यह आकांक्षा अगर न हो तो यह घर सुंदर न बन पाएगा। जीवन हमारा निर्माण है, जीवन हमारा सृजन है, वो हमारा क्रिएशन है। जीवन हमें रखा हुआ नहीं मिलता है, वह कोई रेडीमेड चीज नहीं है, जो मिल गई है। उसे रोज-रोज बनाना पड़ता है। जो कौमें बनाती हैं, वह बना लेती हैं। जो कौमें नहीं बनाती हैं, वह खो देती हैं। और ध्यान रखें जिंदगी का एक नियम ख्याल में रखने जैसा है, कि जो आगे नहीं बढ़ते, वह अपनी जगह खड़े नहीं रह जाते, वह पीछे हटते जाते हैं। जिंदगी में ठहराव जैसी कोई चीज नहीं होती।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३