ओशो : गांधी वैसे ईमानदार आदमी थे। और जो भी कर रहे थे वह भला गलत हो, लेकिन उन्होंने किया बड़ी निष्ठा से। उनकी निष्ठा में कोई संदेह नहीं है।
ऐसे ही जैसे कोई आदमी निष्ठापूर्वक रेत में से तेल निकालने की कोशिश कर रहा हो। उसकी निष्ठा में मैं शक नहीं करता। वह बड़े भाव से कर रहा है। बड़ा आयोजन किया है। जीवन लगा दिया है। लेकिन फिर भी मैं क्या कर सकता हूं! मैं यही कहूंगा कि रेत से तेल नहीं निकलता। तुम्हारी निष्ठा ठीक है, लेकिन निष्ठा क्या करेगी? यह तेल निकलेगा नहीं।नैतिक, निष्ठावान, ईमानदार आदमी हैं। लुई फिशर ने गांधी के संबंध में एक लेख लिखा। और उसमें लिखा कि गांधी एक धार्मिक पुरुष हैं, जिन्होंने पूरे जीवन राजनैतिक होने की चेष्टा की है। गांधी ने तत्क्षण जवाब दिया कि यह बात उलटी है। मैं एक राजनैतिक व्यक्ति हूं, जिसने जीवन भर धार्मिक होने की चेष्टा की है।उनकी ईमानदारी सौ टका है। इसमें कोई शक-शुबहा नहीं है कि वे कभी भी अपने संबंध में झूठ नहीं बोले हैं। लेकिन इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। वे राजनैतिक व्यक्ति हैं और उन्होंने जीवन भर धार्मिक होने की चेष्टा की है। इसमें मैं इतना और जोड़ देना चाहता हूं कि वह चेष्टा असफल हुई है। वे धार्मिक हो नहीं पाए। वे राजनीतिज्ञ ही विदा हो गए हैं।
फर्क नाजुक है। तो कई बार तो ऐसा लगता है, महावीर की अहिंसा तुम्हें दिखाई ही न पड़ेगी, गांधी की दिखाई पड़ेगी। क्योंकि गांधी की अहिंसा का बड़ा विस्तार है: आंदोलन हैं, क्रांति है, सारे विश्व पर इतिहास पर छाप है। महावीर की कौन सी छाप है? होगा, कोई चींटी न मरी होगी, वे सम्हल कर चले होंगे। चींटी कोई इतिहास लिखती है! कि उन्होंने पानी छान कर पीया होगा, कुछ कीटाणु न मरे होंगे। उन कीटाणुओं ने कोई शोरगुल मचाया? महावीर ने उस्तरे से अपने बाल न बनाए, क्योंकि कहीं कोई जूं पड़ गया हो और उस्तरे में दब कर मर जाए। उन्होंने बाल उखाड़े। वे केश-लुंच करते थे। साल भर में बाल उखाड़ डालते थे। लेकिन क्या अगर कोई जूं बच गया होगा बालों में इस भांति, वह कोई आत्मकथा लिखेगा कि इस महावीर ने हम पर बड़ी अहिंसा की?महावीर की अहिंसा का कोई इतिहास थोड़े ही है! भीतर की घटना है। जिनके भीतर घटेगी वे ही पहचान सकते हैं। गांधी की अहिंसा तो हजारों साल तक याद रहेगी। उसके प्रमाण हैं। महावीर की अहिंसा का क्या प्रमाण है? इतना ही हम कह सकते हैं कि उन्होंने हिंसा नहीं की। अहिंसा की, ऐसा हम क्या कह सकते हैं?
इसको थोड़ा समझ लें। महावीर के जीवन को अगर हम गौर से देखें तो इतना ही कह सकते हैं कि उन्होंने हिंसा नहीं की। गांधी ने अहिंसा की। गांधी के कृत्य में अहिंसा है। महावीर के होने में अहिंसा है। और होना भीतर है, कृत्य बाहर है।इसलिए गांधी की अहिंसा बहुत दफे डगमगा जाती है। सारा खेल राजनीति का है।
एक बात गांधी को समझ में आ गई कि अंग्रेजों से लड़ कर तो जीतने का कोई उपाय नहीं है। और गांधी को यह भी समझ में आ गया कि अगर कोई भी संभावना कभी जीतने की है तो वह कुछ ऐसी विधि से जीतने की है कि अंग्रेज उसका प्रतिकार न कर पाएं। अहिंसा का कोई प्रतिकार करना अंग्रेजों की समझ के बाहर था। अब अहिंसा का प्रतिकार कैसे करो?एक ही उपाय था कि गांधी अनशन करें तो वाइसराय भी अनशन करे। उसके लिए बड़ी तैयारी चाहिए। अहिंसा का प्रतिकार कैसे करो? एक आदमी छुरा लेकर लड़ने आए तो तुम बड़ा छुरा लेकर आ जाओ। लेकिन एक आदमी उपवास करे, अब तुम क्या करो? वाइसराय कोई महात्मा नहीं है। उपवास का भी बड़ा अभ्यास करना पड़ता है। गांधी ने चालीस साल अभ्यास किया तब वे कर सकते थे। या इंग्लैंड का बादशाह उपवास करे। तो उपवासों में टक्कर हो। फिर जिसका उपवास टिक जाए ज्यादा लंबा, वह जीत जाए।
ऐसा हुआ, मैंने सुना कि एक शरारती आदमी ने एक सज्जन आदमी के घर के सामने बिस्तर फैला दिया। और उसने कहा कि हम अनशन करते हैं, नहीं तो तुम्हारी लड़की से शादी करो। अहिंसात्मक आंदोलन कर दिया। आदमी घबड़ाया। गांव के लुच्चे-लफंगे, जिनको लोग राजनैतिक कहते हैं, वे सब इकट्ठे हो गए। उन्होंने कहा, यह आदमी ठीक कहता है। इसमें खराबी क्या है? और यह अहिंसात्मक आंदोलन कर रहा है। कुछ बुरा भी नहीं कर रहा है। सर्वोदयी है। यह कहता है, हम मर जाएंगे, या शादी करो। हम अपना जीवन देने को…किसी को डरा-धमका तो रहा नहीं है। किसी को छुरा नहीं बता रहा है। पुलिस भी कुछ नहीं कर सकती। पुलिस भी खड़ी हो गई। पुलिस भी क्या करे? यह किसी को मारने की धमकी दे, छुरा लाए, कुछ करे…यह तो बेचारा यह कह रहा है कि हम मर जाएंगे। सत्याग्रह कर रहे हैं।
दो दिन में तो पूरा गांव उसके पक्ष में हो गया। क्योंकि कोई फिक्र ही नहीं करता कि तुम किसलिए सत्याग्रह कर रहे हो। लोगों ने कहा, बेचारा सात्विक पुरुष है, सज्जन आदमी है! कुछ बुरी बात भी नहीं कह रहा है। शादी किसी से तो करोगे। आखिर इसमें क्या खराबी है? जिद छोड़ो अपनी। अकड़ छोड़ो।वह आदमी बहुत घबड़ा गया। वह भागा एक पुराने नेता के पास गया। उसने कहा कि हम क्या करें? उन्होंने कहा, कुछ करना नहीं है। तुम एक काम करो, गांव में एक वेश्या है बूढ़ी, कुरूप, उसको देख कर आदमी डरते हैं। उसको तुम लिवा लाओ। दो-चार रुपये लेगी। उसको बिठा दो इस आदमी के खिलाफ कि हम तुझसे विवाह करेंगे, नहीं तो अनशन करेंगे।
वह उस औरत को लिवा लाया। उसने भी बिस्तर लगा दिया। वह आदमी बोला, क्या बात है? उस स्त्री ने कहा कि हम तुमसे विवाह करेंगे। अन्यथा मर जाएंगे।
उसी रात अपना बिस्तर लेकर वह भाग गया। क्योंकि अनशन से अनशन ही हारता है।
अब गांधी को हराना मुश्किल हो गया। ब्रिटिश राजनीतिज्ञों की समझ में ही न आया कि अब करें क्या! यह आदमी मरने को तैयार है। मारने की बात ही नहीं करता। मारने की करता तो ठिकाने लगा देते। यह मरने की बात करता है।
और यह भी ध्यान रखना कि अगर ब्रिटिश लोगों की जगह जर्मन होते, जापानी होते, तो गांधी सफल नहीं हो सकते थे। ब्रिटिश कौम की अपनी एक शालीनता है, अपना संस्कार है। वैसी कौम पृथ्वी पर बहुत कम हैं। एक नीतिमत्ता है। यह बात तो उनको समझ में आ गई कि यह आदमी अपने को ही सताता है, अब इसको मारना क्या! लेकिन अगर हिटलर होता या जापानी होते, तो वे कहते, ठीक है, मजे से मर जाओ। कोई फिक्र ही न करता। पता ही न चलता गांधी कब मर जाते।
लेकिन ब्रिटेन धीरे-धीरे छोड़ दिया। यह बात अशोभन लगी कि जो लोग मरने को तैयार हैं उनको मारा जाए। इसमें गांधी की सफलता जितनी है उतनी ही ब्रिटिश नीतिमत्ता की भी सफलता है। यह पचास-पचास प्रतिशत है। पचास प्रतिशत गांधी का आंदोलन है, पचास प्रतिशत ब्रिटिश जाति की शालीनता है। इसलिए यह आंदोलन सफल हुआ। लेकिन गांधी समझ गए कि लड़ कर कोई उपाय नहीं है। उन्होंने एक नई तरकीब ईजाद कर ली। लेकिन अहिंसा एक राजनैतिक उपाय थी।
इसीलिए चर्चिल के खिलाफ और ब्रिटेन के खिलाफ तो अहिंसा जीत गई, लेकिन जिन्ना के खिलाफ न जीत सकी। लाख उपाय किए गांधी ने, लेकिन जिन्ना को न जीत सके। क्या मामला है? क्योंकि जिन्ना को समझ में है साफ कि ये सब राजनैतिक दांव-पेंच हैं। इसलिए जिन्ना पर इसका कोई परिणाम न पड़ा। न मुसलमानों पर कोई परिणाम पड़ा। पाकिस्तान बंट कर रहा।
न परिणाम पड़ने का कारण है, क्योंकि जिन्ना भलीभांति जानता है कि राजनैतिक दांव-पेंच है यह। इसमें अहिंसा कुछ भी नहीं है। इसमें कोई बड़ा प्रेम नहीं है, यह सिर्फ होशियारी है।
पर गांधी आदमी ईमानदार हैं। उन्होंने जो भी किया, सदा–इससे हित होगा–इस आकांक्षा से किया। पर वह कृत्य से गहरा नहीं है। उनके अस्तित्व में नहीं है अहिंसा। इसको अगर तुम उनका जीवन गौर से देखो तो तुम्हें समझ में आ जाएगा कि उनके अस्तित्व में अहिंसा नहीं है। छोटी-छोटी बात पर वे हिंसक हो उठते थे।
कस्तूरबा ने दूसरों का पाखाना साफ करने से मना कर दिया। तो गांधी इतने नाराज हो गए कि गर्भवती कस्तूरबा को आधी रात घर के बाहर निकाल दिया। दरवाजा बंद करके धक्का देकर बाहर कर दिया। आठ महीने का गर्भ! पाखाना साफ करना पड़ेगा।
पाखाना साफ करना या न करना, किसी और के द्वारा थोपी जाने वाली बात नहीं होनी चाहिए। यह कस्तूरबा का अपना निर्णय होना चाहिए। अगर उसे ठीक नहीं लगता तो गांधी कौन हैं? लेकिन पति, स्वामी! ये सब हिंसा की धारणाएं हैं। और इस पत्नी को बाहर निकाल देना गर्भ की ऐसी अवस्था में जब कि खतरा हो सकता है।
गांधी के बच्चे…गांधी ने चालीस साल की उम्र में ब्रह्मचर्य का नियम ले लिया। तब तक उनके तो कई बच्चे पैदा हो चुके थे। चालीस साल का मतलब आधी उम्र तो जा ही चुकी। चालीस साल की उम्र में ब्रह्मचर्य का व्रत लेना कोई बहुत महत्वपूर्ण बात नहीं है। चालीस साल की उम्र तक अगर किसी ने कामवासना का भोग किया है तो सहज ही ब्रह्मचर्य का निर्णय ले लेगा। कोई मूढ़ ही होगा जो उसके बाद भी ब्रह्मचर्य का निर्णय न ले। यह तो सहज स्वाभाविक होना चाहिए। इस उम्र के अनुभव के बाद उन्होंने निर्णय ले लिया। लेकिन लड़के उनके थे, हरिदास था, वह अठारह साल का है; वे उसको भी कहते हैं कि तू ब्रह्मचर्य का निर्णय ले। कसम खा ब्रह्मचर्य की।
यह हिंसा है। तुम चालीस साल में निर्णय लिए, पांच-सात बच्चों के बाप होने के बाद। तुम इस लड़के को अठारह साल की उम्र में कहते हो कि तू ब्रह्मचर्य का निर्णय ले। यह निर्णय भी कैसे ले? इसे अभी कामवासना का भी पता नहीं है।
यह आग्रह इतना जबरदस्त हो गया–कि तू ब्रह्मचर्य का निर्णय ले–कि हरिदास भाग गया। उसने भाग कर शादी कर ली। जब उसने शादी कर ली तो गांधी ने उसका निष्कासन कर दिया कि अब उससे मेरा कोई संबंध नहीं।
आखिर शादी ऐसा क्या पाप है? गांधी ने खुद की। सारी दुनिया करेगी। लेकिन यह जिद क्या है और जबरदस्ती क्या है? अगर इस व्यक्ति को ब्रह्मचर्य की तरफ नहीं जाना तो तुम कौन हो? सिर्फ बाप होने के कारण! यह हिंसा है। और इस हिंसा ने हरिदास को बरबाद कर दिया। जब गांधी ने इनकार कर दिया, वह असहाय हो गया। न उसके पास पैसा, न भोजन, न रहने का मकान–और शादी कर ली। तो वह उधार लेने लगा यहां-वहां से। वह जुआ खेलने लगा। वह उधारी पर ही जीने लगा। जब उसने काफी उधारी कर ली और अदालत में मुकदमा पहुंचा, तो गांधी ने अखबारों में वक्तव्य दे दिया कि मैं अब उसका पिता नहीं हूं, न वह मेरा बेटा है।
फिर वह शराब पीने लगा। जब उधारी न चुकी तो अब और क्या करे! चोरी करने लगा, शराब पीने लगा। वह बरबाद होता चला गया। वह हालत यहां पहुंच गई कि वह अपना चेहरा दिखाने योग्य किसी को न रहा। क्रोध में वह मुसलमान हो गया। उसने अपना नाम हरिदास से अब्दुल्ला कर लिया।
मरते वक्त, जब गांधी मरे, गांधी की जब मृत्यु हुई, तब हरिदास सम्मिलित हुआ था उस जुलूस में दिल्ली में। लेकिन ऐसा समझा जाता है कि अनुयायियों ने उसे पास नहीं पहुंचने दिया। और ऐसा समझा जाता है–हकदार वही था बड़े बेटे की तरह कि गांधी की चिता में आग देता, लेकिन उसको चिता में आग नहीं दी जाने दी गई।
अब यह हद की बात हो गई। बेहूदी हो गई। चाहे वह शराब पीता हो, चाहे मुसलमान हो, इससे क्या फर्क पड़ता है! बड़ा बेटा वही था। लेकिन गांधी का जीवन भर का विरोध इतना था कि अनुयायियों को भी पता था कि इसको पास नहीं आने देना। लाश के पास भी देखने नहीं आने दिया गया। वह भीड़ में दूर हजारों आदमियों में छिपा हुआ गया। दूर से खड़े होकर उसने बाप को जलते देखा। वह अग्नि नहीं दे सका।
ये सब हिंसाएं हैं। अहिंसक व्यक्ति के ये लक्षण नहीं। और अगर तुम गांधी के पूरे जीवन को गौर से देखोगे तो तुम बहुत चकित हो जाओगे कि छोटे-छोटे मामलों में बहुत हिंसा है, बड़े-बड़े मामलों में बड़ी अहिंसा है।
यह बड़ी सोचने की बात है। बड़े मामले में अहिंसक होना बहुत आसान है। छोटे मामले में अहिंसक होना मुश्किल है। क्योंकि छोटा मामला इतना छोटा होता है कि इसके पहले कि तुम सजग होओ, वह हो गया होता है। बड़े मामले में तो सोच-विचार की सुविधा होती है। ब्रिटिश गवर्नमेंट से लड़ना है, अहिंसा से लड़ सकते हो, योजना बना सकते हो। लेकिन किसी ने तुम्हारे पैर पर पैर रख दिया, वह एक क्षण में हो गई बात। उस वक्त क्रोध आ गया तो आ गया। उसके लिए कोई योजना नहीं बनाई जा सकती। असल में, छोटी बातों से ही पता चलता है कि आदमी अहिंसक है या हिंसक। बड़ी बातों का कोई हिसाब नहीं है। बड़ी बातें व्यर्थ हैं। छोटी बातें ही सार्थक हैं।गांधी के जीवन को छोटे-छोटे हिसाब से अगर जांचने चलोगे तो बड़े चकित हो जाओगे। बहुत हैरान होओगे। लेकिन वे आदमी ईमानदार थे, इसमें मुझे रत्ती भर संदेह नहीं है। वे तुम्हारे और तथाकथित साधुओं से ज्यादा ईमानदार थे। लेकिन उनकी ईमानदारी भ्रांत दिशा में थी। वे अहिंसक न हो पाए, न हो सकते थे। क्योंकि सारी चेष्टा अहिंसा को एक हथियार की तरह उपयोग करने के लिए थी। उन्होंने अहिंसा का हथियार बनाया। लड़ना तो था। लड़ने में हिंसा छिपी थी। लेकिन लड़ने का और कोई उपाय न था, तो उन्होंने अहिंसा का हथियार बनाया। अहिंसा भी हिंसा में नियोजित हो गई।
महावीर की बात बिलकुल भिन्न है। महावीर की कोई नीति नहीं है, कोई राजनीति नहीं है। महावीर की अहिंसा समाधि से उत्पन्न है। उन्होंने स्वयं को जाना। स्वयं को जान कर पाया कि सबके भीतर वही है, एक ही है। इसलिए अब दूसरे को चोट पहुंचानी अपने को ही चोट पहुंचानी है। कोई पराया न रहा, तो प्रेम का सहज आविर्भाव हुआ। कोई दूसरा न रहा, तो दुख पहुंचाने की बात गिर गई। महावीर की अहिंसा धार्मिक; गांधी की अहिंसा कभी-कभी नैतिक, अधिकतर राजनैतिक है।