ओशो- पुरूष शब्द का अर्थ ठीक से समझ ले। पुरूष का अर्थ यह मत समझ लेना कि जो नारी नहीं है। इस सुत्र को लिखने वाला होगा कोई पंडित, होगा कोई थोथी, व्यर्थ की बौद्धिक बातों से भरा हुआ आदमी। पुरूष का अर्थ ठीक उस शब्द में छिपा है। पुर का अर्थ होता है: नगर। नागपुर, कानपुर, उदयपुर, जयपुर। पुर का अर्थ होता है नगर। और पुरूष का अर्थ होता है: नगर के भीतर जो बसा है। शरीर है नगर, सच मैं ही नगर है। विज्ञान की दृष्टि में भी नगर है। वैज्ञानिक कहते है: एक शरीर में सात अरब जीवाणु होते है।
अभी तो पूरी पृथ्वी की भी इतनी संख्या नहीं; अभी तो चार अरब को पर कर गई है। लेकिन एक-एक शरीर में सात अरब जीवाणु है। सात अरब जीवित चेतनाओं का यह नगर है। और उसके बीच में तुम बसे हो। मूर्च्छित हो, इसलिए पता नहीं। होश में आ जाओ तो पता चले। तुम देह नहीं हो, मन नहीं हो, भाव नहीं हो।
देह का परकोटा बाहरी परकोटा है तुम्हारे नगर का, जैसे बड़ी दीवाल होती है, पुराने नगरों के चारों और—किले की दीवले। फिर मन का परकोटा है—और एक दीवाल।
और फिर भावनाओं का परकोटा सबसे अंतरंग हे—और एक दीवाल। और इन तीन दीवालों के पीछे तुम हो चौथे। जिसको जानने वालों ने तुरिया कहा है। तुरीय का अर्थ होता है। चौथा। और जब तुम चौथे को पहचान लोगे; तुरीय को पहचान लोगे, इतने जाग जाओगे कि जान लोगे—न मैं देह हूं, न मैं मन हूं, न मैं ह्रदय हूं। मैं तो केवल चैतन्य हूं। सिर्फ बुद्धत्व हूं—उस क्षण तुम पुरूष हुए।
स्त्री भी पुरूष हो सकती है। और तुम्हारे “तथाकथित” पुरूष भी पुरूष हो सकते है। स्त्री और पुरूष से इसका कुछ लेना देना नहीं है। स्त्री का देह का परकोटा भिन्न है। यह परकोटे की बात है। घर यूं बनाओ या यूं बनाओ। घर का स्थापत्य भिन्न हो सकता है। द्वार-दरवाजे भिन्न हो सकते है। घर के भीतर के रंग-रौनक भिन्न हो सकती है। घर के भीतर की साज-सजावट भिन्न हो सकती है।
मगर घर के भीतर रहने वाला जो मालिक है, वह एक ही है। वह न तो स्त्री है, न पुरूष तुम्हारे अर्थों में। स्त्री और पुरूष दोनों के भीतर जो बसा हुआ चैतन्य है, वही वस्तुत: पुरूष है।