वह परम भोग है, ईशावास्य उपनिषद की आधारभूत घोषणा : सब कुछ परमात्मा का है “ओशो”

ओशो- ईशावास्य उपनिषद की आधारभूत घोषणा : सब कुछ परमात्मा का है। इसीलिए ईशावास्य नाम है — ईश्वर का है सब कुछ।

मन करता है मानने का कि हमारा है। पूरे जीवन इसी भ्रांति में हम जीते हैं। कुछ हमारा है — मालकियत, स्वामित्व — मेरा है। ईश्वर का है सब कुछ, तो फिर मेरे मैं को खड़े होने की कोई जगह नहीं रह जाती।

ध्यान रहे, अहंकार भी निर्मित होने के लिए आधार चाहता है। मैं को भी खड़ा होने के लिए मेरे का सहारा चाहिए। मेरे का सहारा न हो तो मैं को निर्मित करना असंभव है।
साधारणत: देखने पर लगता है कि मैं पहले है, मेरा बाद में है। असलियत उलटी है। मेरा पहले निर्मित करना होता है, तब उसके बीच में मैं का भवन निर्मित होता है।सोचें, आपके पास जो—जो भी ऐसा है, जिसे आप कहते हैं मेरा, वह छीन लिया जाए सब, तो आपके पास मैं भी बच नहीं रहेगा। मेरे का जोड़ है मैं। मेरा धन, मेरा मकान, मेरा धर्म, मेरा मंदिर, मेरी मस्जिद, मेरा पद, मेरा नाम, मेरा कुल, मेरा वंश। इन सारे लाखों मेरे के बीच में मैं निर्मित होता है। एक—एक मेरे को हम गिराते चले जाएं, तो मैं की भूमि छिनती चली जाती है। अगर एक भी मेरा न बचे, तो मैं के बचने की कोई जगह नहीं रह जाती।

मैं के लिए मेरे का नीड़ चाहिए, निवास चाहिए, घर चाहिए। मैं के लिए मेरे के बुनियादी पत्‍थर चाहिए, अन्यथा मैं का पूरा मकान गिर जाता है।

ईशावास्य की पहली घोषणा उस पूरे मकान को उस देने वाली है। कहता है ऋषि. सब कुछ परमात्मा का है। मेरे का कोई उपाय नहीं। मैं भी अपने को मेरा कह सकूं, इसका भी उपाय नहीं। कहता हूं अगर, तो नाजायज। अगर कहता ही चला जाता हूं तो विक्षिप्त। मैं भी मेरा नहीं डू। और तो सब ठीक ही है।

इसे दो—तीन दिशाओं से समझने की कोशिश करनी जरूरी है।
पहला तो, आप जन्मते हैं, में जन्मता हूं लेकिन मुझसे कोई पूछता नहीं। मेरी इच्छा कभी जानी नहीं जाती कि में जन्मना चाहता हूं! जन्म मेरी इच्छा, मेरी स्वीकृति पर निर्भर नहीं है। मैं जब भी अपने को पाता हूं जन्मा हुआ पाता हूं। जन्मने के पहले मेरा कोई होना नहीं है।
जो जन्म हमारी इच्छा के बिना है, उसे मेरा कहना एकदम नासमझी है। जिस जन्म के पहले मुझसे पूछा ही नहीं जाता कभी, उसे मेरे कहने का क्या अर्थ हैं? न ही मौत आएगी तो पूछकर आएगी। न ही मौत पूछेगी कि क्या इरादे हैं? चलते हैं, नहीं चलते हैं? आएगी और बस आ जाएगी। ऐसे ही अनजानी जैसा जन्म आता है। ऐसे ही बिना पूछे, द्वार पर दस्तक दिए बिना, बिना किसी पूर्व—सूचना के, बिना आगाह किए, बस चुपचाप खडी हो जाएगी। और कोई विकल्प नहीं छोड़ती — कोई आल्टरनेटिव नहीं, कोई चुनाव नहीं, कोई च्‍वायेस नहीं। यह भी नहीं कि क्षणभर रुक जाना चाहूं तो रुक सकूं।तो जिस मौत मैं मेरी इतनी भी मर्जी नहीं है, उसे मेरी मौत कहना बिलकुल पागलपन है। जिस जन्म मे मेरी मर्जी नहीं है, वह जन्म मेरा नहीं है। जिस मौत में मेरी मर्जी नहीं है, वह मौत मेरी नहीं है। और उन दोनो के बीच में जो जीवन है, वह मेरा कैसे हो. सकता है?

उन दोनों के बीच मैं जिस जीवन को हम भरते हैं, जब उसके दोनों छोर मेरे नहीं हैं — दोनों बुनियादी छोर मेरे नही है,, दोनों अनिवार्य छोर मेरे नहीं हैं, जिनके बिना मैं हो भी नहीं सकता —— तो बीच का जो भराव है, वह भी धोखा है, डिसेप्शन है। और उसे हम भरते हैं, और हम मौत और जन्म को बिलकुल भूल जाते है।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३ 

ईशावास्‍य उपनिषाद–प्रवचन–02