पहला प्रश्न भगवान,सत्यं परं परं सत्य। सत्येन न स्वर्गाल्लोकाच च्यवन्ते कदाचन। सतां हि सत्य। तस्मात्सत्ये रमन्ते।
अर्थात सत्य परम है, सर्वोत्कृष्ट है, और जो परम है वह सत्य है। जो सत्य का आश्रय लेते हैं वे स्वर्ग से, आत्मोकर्ष की स्थिति से च्युत नहीं होते। सत्पुरुषों का स्वरूप ही सत्य है। इसलिए वे सदा सत्य में ही रमण करते हैं।
भगवान, श्वेताश्वतर उपनिषद के इस सूत्र को हमारे लिए विशद रूप से खोलने की अनुकंपा करें।
ओशो– सत्यं परम परम सत्य।
परम का अर्थ सर्वोत्कृष्ट नहीं होता। वैसा भाषांतर भूल भरा है। सर्वोत्कृष्ट तो उसी शृंखला का हिस्सा है। सीढ़ी का आखिरी हिस्सा कहो, मगर सीढ़ी वही है। पहला पायदान भी सीढ़ी का है और सबसे ऊंचा पायदान भी सीढ़ी का है।
सर्वोत्कृष्ट में गुणात्मक भेद नहीं होता, केवल परिमाणात्मक भेद होता है। परम का अर्थ सर्वोत्कृष्ट नहीं है।
परम का अर्थ है-जो शृंखलाओं और श्रेणियों का अतिक्रमण कर जाए। जिसे किसी श्रेणी में और किसी कोटि में रखने की संभावना न हो। जो स्वरूपतः अनिर्वचनीय है। जिसके संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। जिसके संबंध में कुछ भी कहो तो भूल हो जाएगी।
लाओत्सू का प्रसिद्ध वचन है: सत्य को बोला कि बोलते ही सत्य असत्य हो जाता है। बोलते ही। क्योंकि सत्य है विराट आकाश जैसा और शब्द बहुत छोटे हैं, आंगन से भी बहुत छोटे हैं, शब्दों में सत्य का आकाश कैसे समाए?
और हमारी कोटियां हमारे मन के ही विभाजन हैं। इसे कहते पदार्थ, इसे कहते चेतना, लेकिन कौन करता है निर्णय? कौन करता है भेद? भेद करने की प्रक्रिया तो मन की है। और सत्य है मनातीत, मन के पार। इसलिए सत्य को मन की किसी कोटि में नहीं रखा जा सकता। सर्वोत्कृष्ट कहने की भूल में मत पड़ जाना। सबसे ऊंचा भी हो तो भी नीचे से ही जुड़ा होगा। वृक्ष कितना ही आकाश में ऊपर उठ जाए, तो भी उन्हीं जड़ों से जुड?ा होगा जो गहरी जमीन में चली गयी हैं।
फ्रेड्रिक नीत्शे का प्रसिद्ध वचन है कि अगर किसी वृक्ष को आकाश के तारे छूने हों, तो उसे अपनी जड़े पाताल तक भेजनी होंगी। और वृक्ष एक है। पाताल तक गयी जड़े, स्वर्ग को छूती हुई शाखाएं अलग-अलग नहीं हैं; एक ही जीवनधारा दोनों को जोड़े है। तुम्हारे पैर और तुम्हारा सिर अलग-अलग नहीं हैं। यह अलग-अलग होने की भ्रांति ने बड़े पागलपन पैदा कर दिया. मनुस्मृति कहती है: ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए। क्यों? क्योंकि मुख सर्वोत्कृष्ट। और शूद्र ब्रह्मा के पैरों से पैदा हुए। क्योंकि पैर अत्यंत निकृष्ट। वैश्य जंघाओं से पैदा हुए। शूद्रों से जरा ऊपर! मगर फिर भी निम्न का ही अंग। क्योंकि आदमी को दो हिस्सों में बांट दिया। कमर के ऊपर जो है, श्रेष्ठ और कमर के नीचे जो है, अश्रेष्ठ। कैसा मजा है! एक ही रक्त की धार बहती है, कहीं कोई विभाजन नहीं है, हड्डियां वही हैं, मांस वही है, रक्त वही है, सब जुड़ा हुआ है, सब संयुक्त है, लेकिन इसमें भी विभाजन कर दिया। फिर क्षत्रिय हैं, वे बाहुओं से पैदा हुए। और थोड़ा ऊपर। और फिर ब्राह्मण है, वह मुख से पैदा हुआ।
लेकिन शूद्र हो या ब्राह्मण, अगर पैर और मुंह से ही जुड़े हैं,तो उनमें कुछ गुणात्मक भेद नहीं है.गुणात्मक भेद हो नहीं सकता. क्योंकि वे एक शरीर के अंग हैं।
मेरी परिभाषा में तो सभी व्यक्ति शूद्र की तरह पैदा होते हैं। और जो व्यक्ति मन की सारी शृंखलाओं के पार चला जाता है, जो उस अज्ञात और अज्ञेय में प्रवेश कर जाता है जिसे कहने के लिए न कोई शब्द है, न कोई सिद्धांत, जिसे कहने का कोई उपाय नहीं, जिसे जानने वाला गूंगा हो जाता है, गूंगे का गुड़ है जो, वही ब्राह्मण है। ब्राह्मण वह है: जिसने ब्रह्म को जाना। जिसने जीवन के परम सत्य को जाना, वह ब्राह्मण है। पैदा सभी शूद्र होते हैं। फिर कोई ध्यान की प्रक्रिया से समाधि तक पहुंच कर, मन के पार होकर ब्राह्मण हो जाता है.ब्राह्मण होना उपलब्धि है. जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं होता है…