ओशो- जब भी दो व्यक्ति पास मौन में बैठे हों, जानना गहन प्रेम हैं। या, जब भी दो व्यक्ति प्रेम में हों, तब तुम जानोगे कि गहन मौन में हैं। प्रेमी चुप हो जाते हैं। और अगर तुम चुप होने की कला सीख जाओ, तो तुम प्रेमी हो जाओगे। फिर तुम जिसके पास भी चुप बैठ जाओगे, उसी से तुम्हारे प्रेम के संबंध ज़ुड जाएंगे। अगर तुम वृक्ष के पास मौन बैठ गए तो वृक्ष से तुम्हारा संवाद हो जाएगा, और तुम सरिता के पास मौन बैठ गए तो सरिता से तुम्हारा तालमेल हो जाएगा, और तुमने अगर मौन से आकाश के तारों को देखा तो तुम अचानक पाओगे, जुड़ गए तारों से, कुछ अदृश्य द्वार खुल गए, कुछ पर्दे हट गए।प्रेम है अखंड का दर्शन। अखंड के दर्शन के लिए तुम्हें मौन होना जरूरी है, क्योंकि मौन में ही तुम अखंड होते हो, तुम्हारी दीवालें गिर जाती हैं आंगन की–तुम खुद आकाश जैसे हो जाते हो।
मुझे इस भांति कहने दो कि अगर परमात्मा को जानना है तो परमात्मा जैसे होना पड़ेगा।
प्रेम में व्यक्ति परमात्मा हो जाता है। प्रेम में परमात्मा ही रह जाता है–बाहर-भीतर, ऊपर-नीचे, सभी दिशाओं में। लहरें खो जाती हैं, सागर ही शेष रहता है।
जिनके जीवन में प्रेम नहीं है उनके जीवन में संसार है। फिर उनके जीवन में धन होगा, पद होगा, मान-मर्यादा होगी, प्रतिष्ठा होगी, यश होगा, महत्वाकांक्षा होगी–हजार पागलपन होंगे–बस प्रेम नहीं होगा; तो सब पागलपन प्रकट होने शुरू हो जाएंगे। तुमने कभी गौर किया, महत्वाकांक्षी प्रेम नहीं कर सकता। जितनी महत्वाकांक्षा हो उतना ही वह कहता है: कल–प्रेम कल; आज धन, आज पद। वह कहता है, अभी चुनाव करीब आ रहा है, अभी कैसे प्रेम? वह कहता है, अभी दिल्ली जाना है, अभी मंदिर की कैसे सुध-बुध? वह कहता है, अभी गीत गाने का वक्त नहीं, तिजोड़ी भरने का समय है। वह कहता है, अभी तो जवान हूं, अभी प्रेम में व्यर्थ करूंगा जीवन की ऊर्जा को? अभी तो कमा लूं; कल जब कमाने को हाथ कमजोर हो जाएंगे तब कर लेंगे प्रेम और प्रार्थना, और खोज लेंगे परमात्मा। दिन थोड़े हैं भोगने को, पाने को बहुत है।
इसे थोड़ा समझो। यह दूसरी बात समझने की है कि जिन लोगों के जीवन में प्रेम नहीं है, उनके जीवन में कोई और दौड़ होगी। क्योंकि और दौड़ चाहिए जो कि सब्स्टीट्यूट, परिपूरक बन जाए, नहीं तो तुम बिलकुल खाली हो जाओगे। प्रेम है ही नहीं तो तुम खाली तो हो, अब इस खालीपन को किसी भी कूड़े-करकट से भरना होगा, अन्यथा जी न सकोगे, अन्यथा जीना दूभर हो जाएगा।
मैं एक यहूदी के जीवन-संस्मरण पढ़ रहा था। वह हिटलर के कारागृह में बंद था। उसने लिखा है कि उस कारागृह में लोग मुर्दों की भांति थे। कोई जीवन में अर्थ नहीं रह गया था। सारा जीवन का अर्थ खो गया था–जो भी जीवन में उनके अर्थ था कारागृह के बाहर, कारागृह के भीतर नष्ट हो गया था। यह खुद व्यक्ति डॉक्टर है, यह लोगों का अध्ययन करता था। यह बड़ा हैरान था कि अचानक… इन्हीं लोगों को वह जानता था बाहर की दुनिया में भी। बड़ी चहलकदमी थी इनमें, बड़ी गति थी, बड़ी ऊर्जा थी…अचानक जेलखाने के भीतर आते ही सब ऊर्जा खो गई, सब गति खो गई, ये खाली मुर्दों की तरह बैठ गए। लोग पागल होने लगे, या लोगों ने आत्महत्याएं करनी शुरू कर दीं। जिन्होंने न आत्महत्या की, न पागल बने, वे बीमार रहने लगे। और बीमारी ऐसी, जैसे कि उनके मरने की आकांक्षा का सबूत हो, जैसे वे मरना चाहते हैं।
यह डॉक्टर था, तो इसको जेल का डॉक्टर नियुक्त कर दिया गया था। यह मरीजों को दवा देता। यह चकित हुआ कि जो दवाइयां हमेशा काम करती थीं, वे मरीजों पर काम नहीं करतीं! उनके जीवन की लालसा ही खो गई है, दवा क्या खाक काम करेगी? तुम जीना चाहते हो, तो दवा से थोड़ा सहारा, थोड़ी बैसाखी मिल जाती है; तुम जीना ही न चाहो, तो दवा तुम्हारे प्राण स्वीकार ही नहीं करते; शरीर में आती है और निकल जाती है, मल-मूत्र बन जाती है, तुम्हारी जीवन-ऊर्जा को गति नहीं दे पाती। बैसाखी थोड़े ही लंगड़े को चलाती है, लंगड़ा बैसाखी को सम्हालता है तो चलाती है। लंगड़े को चलना ही नहीं, तुम बैसाखी लगा दो। तो वैसे चाहे थोड़ी देर में गिरता, अब यह बैसाखी की झंझट में और जल्दी गिर जाएगा। दवाएं काम नहीं करतीं लोगों पर।पर यह चकित हुआ कि इसके खुद के जीवन में फर्क नहीं पड़ा। क्योंकि इसके जीवन की धारा तो वही रही–बाहर भी मरीजों को देख रहा था, ठीक करने की कोशिश कर रहा था, यहां भी मरीजों को देख रहा है, ठीक करने की कोशिश कर रहा है। वस्तुतः इसके जीवन में और भी ज्यादा अर्थ आ गया। क्योंकि बाहर तो मरीजों को धन के कारण देखता था, यहां तो धन का कोई सवाल न था; बाहर तो मरीजों को ग्राहकों की तरह देखता था, यहां तो कोई ग्राहक न था। कोई दुकानदार न था।
चिकित्सक भी मरीज की नाड़ी पर हाथ रखता है, तो एक हाथ नाड़ी पर रखता है दूसरा हाथ उसकी जेब में रखता है। अगर मरीज बहुत धनी हो तो चिकित्सक उसे जाने-अनजाने जल्दी ही अच्छा नहीं करना चाहता–चाहता है थोड़ी देर और बीमार रह जाए। इसलिए धनी होना और बीमार पड़ना, खतरनाक है, बीमारी गरीब को शोभा देती है, वह जल्दी ठीक भी हो जाएगा, धनी के लिए कौन ठीक करेगा? चिकित्सक भी दवा देगा, लेकिन प्राणों के गहन प्राण में सोचेगा कि थोड़ी देर और मरीज टिक जाए, बीमार रह जाए। शायद उसे खुद भी पता न हो, अचेतन में दबी हो यह बात, लेकिन यह भी काम करेगी, यह भी कारगर हो जाएगी–इसके परिणाम होंगे।
जेल में तो चिकित्सक को कुछ भी न लेना था, न देना था। सिर्फ प्रेम था, इस कारण सेवा में लगा था। उसके जीवन से अर्थ न खोया। उसके सब साथी धीरे-धीरे गल गए, मर गए, सड़ गए, पागल हो गए; वह जेलखाने के बाहर स्वस्थ का स्वस्थ आ गया।
बाद में उसने अपने संस्मरण में लिखा कि कारण कुल इतना ही है कि वहां भी मैं अपने जीवन के अर्थ को खोज पाया।
सूनापन आ जाए तो जीवन गिरने लगता है।
प्रेम न हो, तो सूनापन होगा। इस सूनेपन को भरना होगा हजार तरकीबों से। जिसे तुम संसार कहते हो, जिसे तुम संसार की तृष्णा कहते हो, वह है क्या? वह इस रिक्तता को भरने का उपाय है। दुकान से भरो, धन के नोट गिनते रहो, रुपयों के सिक्के खनकाते रहो–वही एकमात्र मधुर संगीत मालूम होता है, नये-ताजे नोटों को छूने में ही स्पर्श का एकमात्र रस आता है–बड़े पदों पर पहुंचते रहो। प्रेम जिसके जीवन में नहीं है, वह कहीं से तो भरेगा, अन्यथा मर जाएगा। अन्यथा आत्मघात हो जाएगा।
संसार है, जो प्रेम से मिलना था और नहीं मिल पाया, उसको पाने की चेष्टा।
इंग्लैंड के बहुत बड़े विचारक लॉर्ड ऐक्टन का बड़ा प्रसिद्ध वचन है, जो मैंने बहुत बार तुमसे कहा। ऐक्टन ने कहा है: पॉवर करप्ट्स एंड करप्ट्स एब्सोल्यूटली। सत्ता भ्रष्ट करती है, बुरी तरह भ्रष्ट करती है, परिपूर्ण रूप से भ्रष्ट करती है।
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, लार्ड ऐक्टन का वचन ठीक नहीं है। सत्ता किसी को भ्रष्ट नहीं करती है, भ्रष्टों को आकर्षित करती है। धन किसी को भ्रष्ट नहीं करता, भ्रष्टों को बुलावा देता है। कुर्सियां थोड़े ही किसी को भ्रष्ट करती हैं, सिंहासन थोड़े ही किसी को भ्रष्ट करते हैं, लेकिन भ्रष्ट सिंहासनों की तरफ पागल हो जाते हैं, जैसे पतिंगे भागते हैं प्रकाश की तरफ। शायद सुना भी हो बड़े-बूढ़ों से, या न भी सुना हो, क्योंकि बड़े-बूढ़े पहले किसी और दीये पर मर चुके होंगे। पर शायद सुना हो, लोकोक्ति हो, कहावत हो उनकी दुनिया में कि दीयों से सावधान रहना, उन पर जाकर आदमी मरता है। लेकिन पतिंगे सुनते नहीं, भागते हैं।
क्या तुम कहोगे कि दीया पतिंगों को मारता है? नहीं, मरने को उत्सुक पतिंगे दीये की तरफ आकर्षित होते हैं।
तो लार्ड ऐक्टन की बात ऊपर से ठीक लगती है कि सत्ता में जिसको भी हमने जाते देखा, भ्रष्ट होते देखा, तो बात बिलकुल सीधी है। जिसको भी सत्ता में जाते देखा, उसको भ्रष्ट होते देखा। यह बात इतनी निरपवाद रूप से सही है कि लार्ड ऐक्टन ठीक मालूम होता है। लेकिन फिर भी मैं कहता हूं: वह ठीक नहीं है। सत्ता किसी को भ्रष्ट नहीं करती, भ्रष्टों को निमंत्रित करती है। सत्ता किसी को भ्रष्ट नहीं करती–कर नहीं सकती–सत्ता तो तुम्हारे भीतर जो भ्रष्टाचार है उसे प्रकट करती है।
गरीब भ्रष्ट होने की सामर्थ्य नहीं जुटा पाता, भ्रष्ट होने के लिए थोड़ा धन चाहिए, वह जरा महंगा काम है, वह जरा विलास है। गरीब भ्रष्ट होगा, फंसेगा, मुश्किल में पड़ेगा। भ्रष्ट होने के पहले सुरक्षा चाहिए, भ्रष्ट होने के पहले शक्ति चाहिए, ताकि भ्रष्ट होने से जो दुष्परिणाम हों उनको सम्हाला जा सके, उनसे अपने को बचाया जा सके। भ्रष्ट होने के पहले कवच चाहिए–पद, प्रतिष्ठा, धन, वैभव, यश, नाम, कुल, इन सबसे कवच मिल जाता है।
तो मैं तुमसे कहता हूं कि अगर गरीब को तुम भ्रष्ट न पाओ तो ऐसा मत सोचना कि वह भ्रष्ट नहीं है। जरूरी नहीं है। असलियत का पता तो तब चलेगा जब धन उसके पास होगा। धन परीक्षा है, पद परीक्षा है। वहां केवल वे ही बचेंगे जो वस्तुतः भीतर से खालिस थे, शुद्ध थे, पवित्र थे। करोड़ में कभी कोई एक बचेगा, बाकी लोग तो भ्रष्ट हो जाएंगे; भ्रष्ट हो जाएंगे इसलिए कि भ्रष्ट तो वे थे, अवसर मिलते ही प्रकट हो जाएंगे। जैसे तुम कमरे में बैठे हो, अंधेरा कमरा है, कभी तुमने दीया नहीं जलाया–सब ठीक लगता है। न तो कोनों-कांतरों में लगे मकड़ी के जाले दिखाई पड़ते हैं, न कोनों में छिपे सांप दिखाई पड़ते हैं, न आस-पास सरकते बिच्छुओं का कोई पता चलता है–कुछ भी पता नहीं चलता, अंधेरे में तुम निश्चिंत बैठे हो–सब ठीक है। फिर किसी ने दीया जलाया। क्या तुम यह कहोगे कि दीये के कारण सांप, बिच्छू, मकड़ी के जाले और गंदगी कमरे में आ गई? यह सब तो था ही, दीये ने तो रोशनी ला दी, उससे चीजें दिखाई पड़ गईं जो अंधेरे में दबी थीं; जिन्हें अंधेरे ने छिपाया था, रोशनी ने प्रकट कर दिया।
गरीबी बहुत सी बातों को छिपा लेती है, अमीरी जाहिर कर देती है। निर्बलता बहुत सी बातों पर पर्दा बन जाती है, बल पर्दे उघाड़ देता है, आदमी को नग्न कर देता है।
नहीं, पद किसी को भ्रष्ट नहीं करते, भ्रष्टों को आमंत्रित करते हैं, और भ्रष्टों को उजागर करते हैं। जब तक पद पर न पहुंच जाए कोई व्यक्ति, तब तक तुम पक्का नहीं कर सकते कि वह भ्रष्टाचारी है या नहीं। पद के बाहर तो सभी भ्रष्टाचार के विरोध में होते हैं। पद के बाहर तो सभी सेवक होते हैं। पद पर पहुंचते ही मालिक हो जाते हैं। और ध्यान रखना, कुर्सियां क्या भ्रष्ट करेंगी? कुर्सियां तो बड़ी समदृष्टि हैं–तुम उन पर सम्राटों को बिठाओ तो उन्हें फिकर नहीं, तो वे आनंदित नहीं होतीं। और तुम भिखमंगों को बिठा दो, तो वे परेशान नहीं होतीं। कुर्सियों को क्या लेना-देना है?
आदमी! आदमी की प्रेम की कमी!!
जिस आदमी के जीवन में प्रेम नहीं है, उसके जीवन में किसी न किसी तरह का बलात्कार होगा। वह कैसे पूरा करेगा अपने प्रेम की कमी को? वह खाली-खाली है। संगीत नहीं गूंजता हृदय का, तो रुपयों को खनका लेगा; उसी संगीत से अपने कानों को समझा लेगा, सांत्वना कर लेगा। अगर किसी से प्रेम किया होता, तो उसने एक मालकियत जानी होती जिसमें मालकियत का कोई भी भाव नहीं होता। अगर उसने किसी को प्रेम किया होता, तो उसने एक हृदय पर साम्राज्य फैला लिया होता–ऐसा साम्राज्य जिसमें साम्राज्यवादिता बिलकुल नहीं है। उसने एक ऐसी मालकियत पा ली होती, जिसमें मालकियत का सवाल ही नहीं होता है। उसने एक हृदय को अपने करीब पाया होता, एक हृदय उसके साथ नाचा होता, उसके जीवन में एक प्रफुल्लता होती–कोई उसे प्रेम किया, किसी ने उसके प्रेम को स्वीकार किया–उसकी आत्मा आनंदित होती, एक अहोभाव होता कि मैं व्यर्थ ही नहीं हूं।
अगर एक व्यक्ति ने भी तुम्हें प्रेम किया है, अगर एक व्यक्ति को भी तुम प्रेम कर सके हो, तो तुम पाओगे तुम्हारे जीवन में एक सार्थकता है, एक सुरभि है, एक सुवास–तुम एक तृप्ति पाओगे। जब ऐसी तृप्ति नहीं होती, तब आदमी लोगों पर कब्जा करने की कोशिश करता है–राजनीति के सहारे, धन के सहारे, पद के सहार–हजारों लोगों पर कब्जा कर लेने की कोशिश करता है। और मजा यह है कि प्रेम का कब्जा एक आदमी पर भी होता तो तृप्ति हो जाती, और घृणा का कब्जा करोड़ों लोगों पर भी हो तो भी तृप्ति नहीं होती है।
इसलिए पद पर पहुंच कर आदमी को पता चलता है, शक्ति तो मिल गई, शांति नहीं मिली। सामर्थ्य तो आ गई, संतोष नहीं आया। धन तो मिला, निर्धनता नहीं मिटी। भर तो लिया कूड़े-कबाड़ से, पर इससे तो रिक्तता भी पवित्र थी–यह सिर्फ गंदगी हो गई।