ओशो– मोहम्मद एक दिन एक युवक को कहे कि कभी मेरे साथ प्रार्थना को चल। मोहम्मद ने कहा था तो वह टाल न सका। जैसे कि मैं आपसे कभी कहता हूं कुछ, तो आप नहीं टाल पाते हैं। नहीं टाल सका। मोहम्मद ने कहा, सोचा कि चलो, नहीं मानते, चले चलें। पहुंच गया सुबह। मोहम्मद तो नमाज में खड़े हो गए, वह भी अपना कुछ—कुछ गुन—गुन करता रहा खड़ा होकर। गुन—गुन ही कर सकता था। मोहम्मद बड़े बेचैन हुए कि इस आदमी को गलत ले आए। लेकिन अब कोई उपाय न था।
नमाज पूरी की, वापस लौटे। सुबह का वक्त, गर्मी के दिन हैं, लोग अभी भी सोए हुए हैं। उस युवक ने मोहम्मद से कहा, देखते हैं हजरत, इन लोगों का क्या होगा? नमाज का वक्त, अभी तक बिस्तरों पर पड़े हैं! क्या खयाल है आपका? ये लोग नर्क जाएंगे?
मोहम्मद ने कहा, भाई, ये कहां जाएंगे मुझे पता नहीं, मुझे वापस मस्जिद जाना है। तो क्या हो गया आपको? उन्होंने कहा, मेरी पहली नमाज तो बेकार गई। तुझे मैंने नुकसान पहुंचाया। तुझे मैंने नुकसान पहुंचाया। नमाज नहीं करने के पहले तू कम से कम विनम्र था, कम से कम इनको पापी नहीं समझता था। यह तो और उपद्रव हो गया। तू मुझे माफ कर और दुबारा मस्जिद मत आना। और मैं जाऊं, फिर से नमाज पढूं, वह पहली नमाज तो बेकार गई। मैंने तुझे नुकसान पहुंचाया। तेरी अकड़ और भारी हुई। प्रार्थना से अकड़ टूटनी चाहिए। तो वह और भारी हो गई।
तिलक, चंदन—वंदन लगाकर देखा, आदमी कैसा अकड़कर चलता है! चोटी—वोटी बढ़ाकर देखा आदमी…! जैसे परमात्मा से कोई लाइसेंस उनको मिल गया है। वे कुछ सगे—संबंधी हो गए, अब वह भाई— भतीजों में उनकी गिनती है परमात्मा के। अब वे सारी दुनिया को नर्क भेजे बिना नहीं मानेंगे।
प्रार्थना भी अहंकार को भर जाती है, तो आदमी अदभुत है। चालाकी की कोई सीमा नहीं है। प्रार्थना की शर्त ही अहंकार—विसर्जन है। धार्मिक आदमी कह भी न सकेगा अपने मुंह से कि मैं धार्मिक हूं। क्योंकि इतने अधर्म का उसे बोध होगा अपने में कि वह कहेगा कि मुझसे अधार्मिक और कौन है? धार्मिक आदमी कह भी न सकेगा कि मैं पुण्यात्मा हूं। क्योंकि पुण्य में भी उसे पाप की रेखा दिखाई पड़ेगी, वह अहंकार खड़ा हुआ दिखाई पड़ेगा। वह कहेगा, मुझसे पापी और कौन?
इसलिए वह ऋषि कहता है कि न मालूम कितने कर्म किए हैं, जो भारी पड़ेंगे। न मालूम कितने पाप किए हैं, जो भारी पड़ेंगे। योग्य तो मैं बिलकुल नहीं हूं। पात्र तो मैं बिलकुल नहीं हूं। दावेदार मैं हो नहीं सकता। क्लेम मैं कर नहीं सकता कि मुझे मिल जाए। सिर्फ प्रार्थना कर सकता हूं।
ध्यान रहे, इसलिए तीसरा सूत्र आपसे कहता हूं : प्रार्थना दावा नहीं है, क्लेम नहीं है, पात्रता की घोषणा नहीं है, अपात्रता की स्वीकृति है। मैं कुछ हकदार हूं ऐसा भाव भी आ गया, तो प्रार्थना विषाक्त हो गई। मैं हकदार तो बिलकुल नहीं हूं।
इसीलिए प्रार्थना करने वाले को जब मिलता है कुछ, तो वह कहता है कि तेरी कृपा से मिला, मेरी योग्यता से नहीं। इसलिए प्रार्थना करने वालों ने प्रभु—प्रसाद शब्द खोजा है।
वे कहते हैं, जो मिलता है वह प्रभु—प्रसाद है, डिवाइन ग्रेस। हम कहां पात्र थे। हमसे ज्यादा अपात्र तो खोजना मुश्किल था।
फिर भी मैं कहता हूं कि मिलता है आपकी पात्रता से। आपकी अपात्रता से नहीं मिलता। लेकिन अपनी अपात्रता का बोध ही प्रार्थना की पात्रता है। अपनी अपात्रता का बोध ही प्रार्थना की पात्रता है। अपने ना—कुछ होने का बोध ही प्रार्थना का दावा है। दावा न करना ही प्रार्थना का रहस्य है। प्रार्थना भेजती है। न आए, तो हम कहेंगे, हम इस योग्य कहां थे कि आए। आ जाए, तो हम कहेंगे, उसकी कृपा है।
यद्यपि उसकी कृपा से नहीं मिलता, क्योंकि उसकी कृपा सब पर बराबर है। अगर उसकी कृपा से मिलता हो, तो उसका मतलब यह हुआ कि वहां भी भाई— भतीजावाद कुछ चलता होगा। क्योंकि एक आदमी ने घंटे बजाकर मंदिर में प्रार्थना कर ली और कहा कि हे भगवान, तू पतित—पावन है कि तू महान है…। जैसे कोई राजा के दरबार में कुछ कह देता हो — दरबारी लोग होते हैं न — और राजा प्रसन्न हो जाता हो। ऐसे ही लोग प्रार्थना किए चले जाते हैं कि शायद परमात्मा प्रसन्न हो जाए। इसलिए हमने सब प्रार्थनाएं राजाओं के दरबारों में बोले गए वचनों के आधार पर निर्मित की हैं — दरबारी! ही दरबारी भी कहीं कोई प्रार्थना हो सकती है? खुशामदें हैं। खुशामद को संस्कृत में कहते हैं स्तुति। खुशामद है।