ओशो- मन जब भी दो चीजों को तोड़ता है, तो दोनों के बीच विरोध देखता है। जैसे जीवन है। अगर जीवन को मन देखेगा, तो उसे जीवन में दो हिस्से दिखाई पड़ेंगे, जन्म और मृत्यु। और मन कैसे माने कि जन्म और मृत्यु एक ही हैं? बिलकुल उलटे हैं। एक कैसे हो सकते हैं? कहां जन्म और कहां मृत्यु? जीवन को बांटेगा मन, तो दो हिस्से दिखाई पड़ेंगे, जन्म का और मृत्यु का। और दोनों उलटे मालूम पड़ेंगे, कट्राडिक्टरी; एक-दूसरे के विरोध में। जब भी मन बांटेगा, तो विरोध में बांटेगा ,-और जीवन अविरोधी है, नान-कंट्राडिक्टरी है। जीवन में कोई तकलीफ ही नहीं है। जन्म और मृत्यु, जीवन में एक ही चीज के दो नाम हैं, एक ही चीज का विस्तार है। जो जन्म की तरह शुरू होता है, वही मृत्यु की। तरह पूर्ण होता है। अगर जन्म प्रारंभ है जीवन का, तो मृत्यु उसकी पूर्णता है।
जन्म और मृत्यु में अगर मन को हम बीच में न लाएं, तो कोई भी विरोध नहीं है। लेकिन मन को हम बीच में कैसे न लाएं! हमारे पास और कोई उपाय नहीं है। मन ही हमारे पास उपाय है जानने के लिए। जैसे ही मन को हम लाते हैं, मन जीवन को दो हिस्सों में तोड़ देता है, एक हिस्सा जन्म हो जाता है, एक हिस्सा मृत्यु हो जाती है। यह मन सभी जगह चीजों को दो में तोड़ देता है। यह कहता है, यह आदमी अच्छा है, वह आदमी बुरा है। सच्चाई बिलकुल उलटी है; अच्छाई और बुराई एक ही चीज का विस्तार है। तो जब हम कहते हैं, यह आदमी अच्छा है और वह आदमी बुरा है; या हम कहते हैं, यह बात अच्छी है और वह बात बुरी है, तब हमने तोड़ दिया।
बड़ी अड़चन होगी यह मानने में कि अच्छाई और बुराई एक ही चीज का विस्तार है। यह मानने में बड़ी कठिनाई होगी कि साधु और असाधु एक ही चीज के दो छोर हैं। यह मानने में बड़ी कठिनाई होगी कि राम और रावण दुश्मन हैं हमारे मन के कारण, अन्यथा अस्तित्व में एक ही लीला के दो छोर हैं।
इसे ऐसा समझें, क्या रामायण संभव है रावण के बिना? अगर संभव हो, तो रावण को विदा करके सोचने की कोशिश करें। रावण को हटा दें राम की कथा से। और तब आप पाएंगे कि राम के भी प्राण निकल गए! राम के प्राण भी रावण से जुड़े हैं। इधर रावण प्तीरेगा, तो राम भी गिर जाएंगे। राम भी रावण के बिना खड़े नहीं। रह सकते।
और अगर इतना गहरा जोड़ है, तो विपरीत कहना नासमझी है। अगर इतना गहरा जोड़ है कि राम का अस्तित्व नहीं हो सकता। रावण के बिना, न रावण का अस्तित्व हो सकता है राम के बिना, तो दोनों को दुश्मन देखना हमारे मन की भूल है। एक खेल के दोनों ‘ ही हिस्से हैं; जिसमें दोनों अनिवार्य हैं; जिनमें एक भी छोड़ा नहीं जा सकता।
लेकिन मन तो तोड़कर ही देखेगा। मन कैसे मान सकता है कि राम और रावण एक हैं! कभी भी नहीं मान सकता। मन कहेगा, कैसी बात कर रहे हो? कहां राम, कहां रावण! विपरीत हैं; तभी तो इतना संघर्ष है दोनों में, तभी तो युद्ध है।
और विपरीत जहां मिल जाते हैं, वहां अनुभव पूर्ण हो जाता है। लेकिन हमारा मन? हमारा मन ऐसा है कि राम की पूजा करेंगे और रावण को आग लगाएंगे। यह हमारा मन है! मन हमारा ऐसा है कि हम एक को पूजेंगे, दूसरे की निंदा करेंगे, एक को मित्र मानेंगे, दूसरे को शत्रु मानेंगे।
🍁🍁ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३ 🍁🍁 गीता-दर्शन – भाग 4