ओशो : ॐ को चुनने के दो कारण हैं। एक तो, एक ऐसे शब्द की तलाश थी जिसका अर्थ न हो, जिसका तुम अर्थ न लगा पाओ; क्योंकि अगर तुम अर्थ लगा लो तो वह पांचवें के इस तरफ का हो जाएगा। एक ऐसा शब्द चाहिए था जो एक अर्थ में मीनिंगलेस हो।
हमारे सब शब्द मीनिगफुल हैं। शब्द बनाते ही हम इसलिए हैं कि उसमें अर्थ होना चाहिए। अगर अर्थ न हो तो शब्द की जरूरत क्या है? उसे हम बोलने के लिए बनाते हैं। और बोलने का प्रयोजन ही यह है कि मैं तुम्हें कुछ समझा पाऊं; मैं जब शब्द बोलु तो तुम्हारे पास कोई अर्थ का इशारा हो पाए। जब लोग सातवें से लौटे या सातवें को जाना, तो उन्हें लगा कि इसके लिए कोई भी शब्द बनाएंगे, उसमें अगर अर्थ होगा, तो वह पांचवें शरीर के पहले का जो जाएगा—तत्काल। उसका भाषा—कोश में से अर्थ लिख दिया जाएगा; लोग पढ़ लेंगे और समझ लेंगे। लेकिन सातवें का तो कोई अर्थ नहीं हो सकता। या तो कहो मीनिगलेस, अर्थहीन; या कहो बियांड मीनिंग, अर्थातीत; दोनों एक ही बात है।
तो उस अर्थातीत के लिए—जहा कि सब अर्थ खो गए हैं, कोई अर्थ ही नहीं बचा है—कैसा शब्द खोजें? और कैसे खोजें? और उस शब्द को कैसे बनाएं? तो शब्द को बनाने में बड़े विज्ञान का प्रयोग किया गया। वह शब्द बनाया बहुत…बहुत ही कल्पनाशील, और बड़े विजन, और बड़े दूरदृष्टि से वह शब्द बनाया गया; क्योंकि वह बनाया जा रहा था और एक रूट, एक मौलिक शब्द था जो मूल आधार पर खड़ा करना था। तो कैसे इस शब्द को खोजें जिसमें कि कोई अर्थ न हो; और किस प्रकार से खोजें कि वह गहरे अर्थ में मूल आधार का प्रतीक भी हो जाए?
तो हमारी भाषा की जो मूल ध्वनि हैं, वे तीन हैं ए, यू एम— अ, ऊ, म। हमारा सारा का सारा शब्दों का विस्तार इन तीन ध्वनियों का विस्तार है। तो रूट ध्वनियां तीन हैं— अ, ऊ, म…।
अच्छा अ, ऊ और म में कोई अर्थ नहीं है; अर्थ तो इनके संबंधों से तय होगा। अ जब ‘ अब’ बन जाएगा, तो अर्थपूर्ण हो जाएगा; म जब कोई शब्द बन जाएगा तो अर्थपूर्ण हो जाएगा। अभी अर्थहीन हैं। अ, ऊ, म, इनका कोई अर्थ नहीं है। और ये तीन मूल हैं। फिर सारी हमारी वाणी का विस्तार इन तीन का ही फैलाव है, इन तीन का ही जोड़ है।
तो ये तीन मूल ध्वनियों को पकड़ लिया गया— अ, ऊ, म, तीनों के जोड़ से ॐ बना दिया। तो ॐ लिखा जा सकता था, लेकिन लिखने से फिर शक पैदा होता किसी को कि इसका कोई अर्थ होगा; क्योंकि फिर वह शब्द बन जाता। ‘ अब ‘, ‘ आज ‘, ऐसा ही ओम् में भी एक शब्द बन जाता। और लोग उसका अर्थ निकाल लेते कि ओम् यानी वह जो सातवें पर है। तो फिर शब्द न बनाएं इसलिए हमने चित्र बनाया ॐ का, ताकि शब्द, अक्षर का भी उपयोग मत करो उसमें। अ, ऊ, म तो है वह, पर वह ध्वनि है—शब्द नहीं, अक्षर नहीं।
इसलिए फिर हमने ओम् का चित्र बनाया, उसको पिक्टोरिअल कर दिया, ताकि उसमें सीधा कोई भाषा—कोश में खोजने न चला जाए उसे—कि ॐ का क्या मतलब होता है। तो वह ॐ जो है आपकी आखों में गड़ जाए और प्रश्नवाचक बन जाए कि क्या मतलब?
जब भी कोई आदमी संस्कृत पढ़ता है या पुराने ग्रंथ पढ़ने दुनिया के किसी कोने से आता है, तो इस शब्द को बताना मुश्किल हो जाता है उसे। और शब्द तो सब समझ में आ जाते हैं, क्योंकि सबका अनुवाद हो जाता है। वह बार—बार दिक्कत यह आती है कि ॐ यानी क्या? इसका मतलब क्या है? और फिर इसको अक्षरों में क्यों नहीं लिखते हो? इसको ओम लिखो न! यह चित्र क्यों बनाया हुआ है?
उस चित्र को भी अगर तुम गौर से देखोगे, तो उसके भी तीन हिस्से हैं, और वे अ, ऊ और म के प्रतीक हैं। वह पिक्चर भी बड़ी खोज है, वह चित्र भी साधारण नहीं है। और उस चित्र की खोज भी चौथे शरीर में की गई है। उस चित्र की खोज भी भौतिक शरीर से नहीं की गई है, वह चौथे शरीर की खोज है। असल में, जब चौथे शरीर में कोई जाता है और निर्विचार हो जाता है, तब उसके भीतर अ, ऊ, म, इनकी ध्वनियां गूंजने लगती हैं और उन तीनों का जोड़ ओम् बनने लगता है। जब पूर्ण सन्नाटा हो जाता है विचार का, जब सब विचार खो जाते हैं, तब ध्वनियां रह जाती हैं और ओम् की ध्वनि गंजने लगती है। वह जो ओम् की ध्वनि गूंजने लगती है, वहां चौथे शरीर से उसको पकड़ा गया है कि ये जहां विचार खोते हैं, भाषा खोती है, वहां जो शेष रह जाता है, वह ओम् की ध्वनि रह जाती है।
निर्विचार चेतना में ओम् का आविर्भाव :
इधर से तो उस ध्वनि को पकड़ा गया। और जैसा मैंने तुमसे कहा कि जिस तरह हर शब्द का एक पैटर्न है, हर शब्द का एक पैटर्न है…जब हम एक शब्द का प्रयोग करते हैं तो हमारे भीतर एक पैटर्न बनना शुरू होता है। तो जब यह ओम् की ध्वनि रह जाती है भीतर सिर्फ, तब अगर इस ध्वनि पर एकाग्र किया जाए चित्त, तो ध्वनि— अगर पूरी तरह से चित्त एकाग्र हो, जो कि चौथे पर हो जाना कठिन नहीं है, और जब यह ओम् सुनाई पड़ेगा तो हो ही जाएगा। उस चौथे शरीर में ओम् की ध्वनि गूंजती रहे गूंजती रहे, गूंजती रहे, और अगर कोई एकाग्र इसको सुनता रहे, तो इसका चित्र भी उभरना शुरू हो जाता है।
इस तरह बीज मंत्र खोजे गए— सारे बीज मंत्र इसलिए खोजे गए। एक—एक चक्र पर जो ध्वनि होती है, उस ध्वनि पर जब एकाग्र चित्त से साधक बैठता है, तो उस चक्र का बीज शब्द उसकी पकड़ में आ जाता है। और वे बीज शब्द इस तरह निर्मित किए गए। ओम् जो है, वह परम बीज है; वह किसी एक चक्र का बीज नहीं है, वह परम बीज है; वह सातवें का प्रतीक है—या अनादि का प्रतीक है, या अनंत का प्रतीक है।
ओम्—सार्वभौमिक सत्य:
इस भांति उस शब्द को खोजा गया। और करोडों लोगों ने जब उसको टैली किया और स्वीकृति दी, तब वह स्वीकृत हुआ। एकदम से स्वीकृत नहीं हो गया; सहज स्वीकृत नहीं कर लिया कि एक आदमी ने कह दिया। करोड़ों साधकों को जब वही प्रति बार हो गया, और जब वह सुनिश्चित हो गया।
इसलिए ओम् शब्द जो है, वह किसी धर्म की, किसी संप्रदाय की बपौती नहीं है। इसलिए बौद्ध भी उसका उपयोग करेंगे, बिना फिकर किए; जैन भी उसका उपयोग करेंगे, बिना फिकर किए। हिंदुओं की बपौती नहीं है वह। उसका कारण है। उसका कारण यह है कि वह तो साधकों को—अनेक साधकों को, अनेक मार्गों से गए साधकों को वह मिल गया है। दूसरे मुल्कों में भी जो चीजें हैं, वे भी किसी अर्थ में उसके हिस्से हैं।
अब जैसे कि अगर हम अरेबिक या लैटिन या रोमन, इनमें जो खोजबीन साधक की रही है, उसको भी पकड़ने जाएं, तो एक बड़े मजे की बात है कि म तो जरूर मिलेगा; किसी में अ और म मिलेगा, म तो अनिवार्य मिलेगा। उसके कारण हैं कि वह इतना सूक्ष्म हिस्सा है कि अक्सर आगे का हिस्सा छूट जाता है, पकड़ में नहीं आता और पीछे का हिस्सा सुनाई पड़ता है। तो ओऽऽऽम् की जब आवाज होनी शुरू होती है भीतर, तो म सबसे ज्यादा सरलता से पकड़ में आता है। वह आगे का जो हिस्सा है वह दब जाता है पिछले म से। ऐसे भी तुम अगर किसी बंद भवन में बैठकर ओम् की आवाज करो, तो म सबको दबा देगा—अ और ऊ को दबा देगा और म एकदम व्यापक हो जाएगा। इसलिए बहुत साधकों को ऐसा लगा कि म तो है पक्का। आगे की कुछ भूल—चूक हो गई, सुनने के कुछ भेद हैं।
और इसलिए दुनिया के सभी, जहां भी…जैसे अमीन, तो उसमें म अनिवार्य है। जहां-जहां साधकों ने उस शरीर पर काम किया है, वहां कुछ तो उनको पकड़ में आया है। लेकिन जितना ज्यादा प्रयोग हो, जैसे कि एक प्रयोग को हजार वैज्ञानिक करें, तो उसकी वैलिडिटी बढ़ जाती है।