’’कानों को दबाकर और गुदा को सिकोड़कर बंद करो, और ध्वनि में प्रवेश करो।‘’
ओशो- हम अपने शरीर से भी परिचित नहीं है। हम नहीं जानते कि शरीर कैसे काम करता है और उसका ताओ क्या है, ढंग क्या है, मार्ग क्या है। लेकिन अगर तुम निरीक्षण करो तो आसानी से उसे जान सकते हो।
अगर तुम अपने कानों को बंद कर लो और गुदा को ऊपर की ओर सिकोड़ो तो तुम्हारे लिए सब कुछ ठहर जायेगा। ऐसा लगेगा कि सारा संसार रूक गया है, ठहर गया है। गतिविधियां ही नहीं, तुम्हें लगेगा कि समय भी ठहर गया है जब तुम गुदा मार्ग को ऊपर खींचकर सिकोड़ लेते हो। क्यों होता है ऐसा? अगर दोनों कान बंद कर लिए जाएं तो बंद कानों से तुम अपने भीतर एक ध्वनि सुनोंगे। लेकिन अगर गुदा को ऊपर खींचकर नहीं सिकुड़ा जाए तो वह ध्वनि गुदा-मार्ग से बाहर निकल जाती है। वह ध्वनि बहुत सूक्ष्म है। अगर गुदा को ऊपर खींचकर सिकोड़ लिया जाए और कानों को बंद किया जाए तो तुम्हारे भीतर एक ध्वनि का स्तंभ निर्मित होगा। और वह ध्वनि मौन की ध्वनि होगी। वह नकारात्मक ध्वनि है। जब सब ध्वनियां समाप्त हो जाती है, तब तुम्हें मौन की ध्वनि या निर्ध्वनी का एहसास होता है। लेकिन वह निर्ध्वनि गुदा से बाहर निकल जाती है।
इसलिए कानों को बंद करो और गुदा को सिकोड़ लो। तब तुम दोनों ओर से बंद हो जाते हो। तुम्हारा शरीर बंद हो जाता है और ध्वनि से भर जाता है। ध्वनि से भरने का यह भाव गहन संतोष को जन्म देता है। इस संबंध में बहुत सी चीजें समझने जैसी है। और तभी तुम उसे समझ सकोगे जो घटित होता है।
हम अपने शरीर से परिचित नहीं है। साधक के लिए यह एक बुनियादी समस्या है। और समाज शरीर से परिचय के विरोध में हैै क्योंकि समाज शरीर से भयभीत है। हम हरेक बच्चे को शरीर से अपरिचित रहने की शिक्षा देते है। हम उसे संवेदनशून्य बना देते है। हम बच्चे के मन और शरीर के बीच एक दूरी पैदा कर देते है ताकि वह अपने शरीर से ठीक से परिचित न हो पाए, क्योंकि शरीर बोध समाज के लिए समस्या पैदा करेगा।
इस में बहुत सी चीजें निहित है। अगर बच्चा शरीर से परिचित है तो वह देर-अबेर काम या सेक्स से भी परिचित हो जाएगा। अगर वह शरीर से बहुत ज्यादा परिचित हो जाएगा तो वह अपनेआप को कामुक और इंद्रियोन्मुख अनुभव करेगा। इसलिए हमें उसकी जड़ को ही काट देना है। हम बच्चे को उसके शरीर के प्रति जड़ और संवेदनशून्य बना देते है ताकि उसे उसका एहसास न हो। तुम्हें तुम्हारे शरीर का एहसास ही नहीं होता है। हां, जब वह किसी उपद्रव में पड़ता है, तो ही उसका एहसास होता है।
तुम्हारे सिर में दर्द होता है तो तुम्हें सिर का पता चलता है। जब पाँव में कांटा गड़ता है तो पाव का पता चलता है। और जब शरीर में दर्द होता है तो तुम जानते हो कि मेरा शरीर भी है। जब शरीर रूग्ण होता है तो ही उसका पता चलता है। लेकिन वह भी शीघ्र नहीं। तुम्हें अपने रोगों का पता भी तुरंत नहीं चलता है, कुछ समय बीतने पर ही पता चलता है। जब रोग तुम्हारी चेतना के द्वार पर बार-बार दस्तक देता है, तब पता चलता है। यही कारण है कि कोई भी व्यक्ति समय रहते डाक्टर के पास नहीं पहुंचता है। वह देर कर के पहुंचता है। जब रोग गहन हो चुका होता है और वह अपनी बहुत हानि कर चुका होता है।
इसलिए समस्याएं पैदा होती है—विशेषकर तंत्र के लिए। तंत्र गहन संवेदनशीलता और शरीर के बोध में भरोसा करता है।
तुम अपने काम में लगे हो और तुम्हारा शरीर बहुत कुछ कर रहा है, जिसका तुम्हें कोई बोध नहीं है। अब तो शरीर की भाषा पर बहुत काम हो रहा है। शरीर की अपनी भाषा है, और मनोचिकित्सकों और मनस्विदो को शरीर की भाषा का प्रशिक्षण दिया जा रहा है, क्योंकि वे कहते है कि आधुनिक मनुष्य का भरोसा नहीं किया जा सकता। आधुनिक मनुष्य जो कहता है उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। उससे अच्छा है उसके शरीर का निरीक्षण करना क्योंकि शरीर उसके बारे में ज्यादा खबर रखता है।
विलहेम रेख ने शरीर की संरचना पर बहुत काम किया है। और उसे शरीर और मन के बीच बहुत गहरा संबंध दिखाई दिया है। यदि कोई आदमी भयभीत है तो उसका पेट कोमल नहीं होगा। तुम उसका पेट छुओ और वह पत्थर जैसा होगा। और अगर वह निडर हो जाए तो उसका पेट छुओ तो वह तुरंत शिथिल हो जाएगा। या अगर पेट को शिथिल कर लो तो भय चला जाएगा। पेट पर थोड़ी मालिश करो और तुम देखोगें कि डर कम हो गया। निर्भयता आई। जो व्यक्ति प्रेमपूर्ण है उसके शरीर का गुण धर्म और होगा। उसके शरीर में उष्णता होगी, जीवन होगा। और जो व्यक्ति प्रेमपूर्ण नहीं होगा उसका शरीर ठंडा होगा।
यही ठंडापन और अन्य चीजें तुम्हारे शरीर में प्रविष्ट हो गई है और वे ही बाधाएं बन गई है। वे तुम्हें तुम्हारे शरीर को नही जानने देती है। लेकिन शरीर अपने ढंग से अपना काम करता रहता है। और तुम अपने ढंग से अपना काम करते रहते हो। दोनों के बीच एक खाई पैदा हो जाती है। उस खाई को पाटना है।
मैंने देखा है अगर कोई व्यक्ति दमन करता है, अगर तुम क्रोध को दबाते हो तो तुम्हारे हाथों में, तुम्हारी अंगुलियों में दमित क्रोध की उतैजना होगी। और जो जानता है वह तुम्हारे हाथों को छूकर बता देगा कि तुमने क्रोध को दबाया है।
अगर तुमने कामवासना को दबाया है तो वह कामवासना तुम्हारे काम-अंगों में दबी पड़ी रहेगी। ऐसे किसी अंग को छूकर बताया जा सकता है कि यहां काम दमित पडा है। वह अंग भयभीत हो जाएगा। और तुम्हारे स्पर्श से बचना चाहेगा। वह खुला या ग्रहणशील नहीं रहेगा। चूंकि तुम बचना चाहते हो इसलिए वह अंग भी संकुचित हो जाएगा। वह तुम्हें द्वार नहीं देगा।
अब वे कहते है कि पचास प्रतिशत स्त्रियां ठंडी है, उनकी कामवासना को उत्तेजित नहीं किया जा सकता। और कारण यह है कह हम लड़कों से बढ़ कर लड़कियों को काम दमन सिखाते है। लड़कियां बहुत दमन करती है और जब वे बीस वर्ष की उम्र तक यह करती है तो उसकी लंबी आदत बन जाती है। बीस वर्षों का दमन। फिर जब वह प्रेम करेगी तो वह प्रेम की बात ही करेगी, प्रेम के प्रति उसका शरीर उन्मुख नहीं होगा, नहीं खुलेगा। उनका शरीर एक तरह से सेक्स के प्रति बंद हो जाता है, जड़ हो जाता है। और तब एक सर्वथा विरोधपूर्ण घटना घटती है। उसके भीतर परस्पर विरोधी दो धाराएं एक साथ बहती है। वह प्रेम करना चाहती है, लेकिन उसका शरीर दमित है। शरीर असहयोग करता है। शरीर पीछे हटने लगता है। वह पास आने को तैयार नहीं होता।
अगर तुम किसी स्त्री को किसी पुरूष के पास बैठे देखो और अगर वह स्त्री पुरूष को प्रेम करती है तो तुम पाओगे कि वह स्त्री उस पुरूष की तरफ झुककर बैठी है। अगर स्त्री पुरूष से डरती है तो उसका शरीर उसके विपरीत दिशा में झुका होगा। अगर स्त्री पुरूष के प्रेम में है तो वह अपनी टांगों को एक दूसरे पर रख नहीं बैठेगी। वह ऐसा तभी करेगी जब वह पुरूष से भयभीत होगी। उसे इस बात की खबर नहीं है, वह अनजाने कर रही है। शरीर अपना बचाव आप करता है, वह अपने ढंग से अपना काम करता है।
तंत्र को पहले से इस बात का बोध था, सब से पहले तंत्र को ही शरीर के तल पर ऐसी गहरी संवेदनशीलता का पता चला था। और तंत्र कहता है कि अगर तुम सचेतन रूप से अपने शरीर का उपयोग कर सको तो शरीर ही आत्मा में प्रवेश का साधन बन जाता है। तंत्र कहता है कि शरीर का विरोध करना मूढ़ता है, बिलकुल मूढता है। शरीर का उपयोग करो, शरीर माध्यम है। और इसकी उर्जा का उपयोग इस भांति करो कि तुम इसका अतिक्रमण कर सको।
‘’अब कानों का दबाकर और गुदा को सिकोड़कर बंद करों और ध्वनि में प्रवेश करो।‘’
तुम अपने गुदा को अनेक बार सिकोड़ते रहे हो, और कभी-कभी तो गुदा-मार्ग अनायास भी खुल जाता है। अगर तुम्हें अचानक कोई भय पकड़ जाये, तो तुम्हारा गुदा मार्ग खुल जाता है। भय के कारण अचानक मलमूत्र निकल जायेगा। क्या होता है? भय में क्या होता है? भय तो मानसिक चीज है, फिर भय में पेशाब क्यों निकल जाता है। नियंत्रण क्यों जाता रहता है? जरूर ही कोई गहरा संबंध होना चाहिए?
भय सिर में, मन में घटित होता है। जब तुम निर्भय होते हो तो ऐसा कभी नहीं होता। असल में बच्चे का अपने शरीर पर कोई मानसिक नियंत्रण नहीं होता। कोई पशु अपने मल मूत्र का नियंत्रण नहीं कर सकता है। जब भी मलमूत्र भर जाता है, वह अपने आप ही खाली हो जाता है। पशु उस पर नियंत्रण नहीं करता है। लेकिन मनुष्य को आवश्यकतावश उस पर नियंत्रण करना पड़ता है। हम बच्चे को सिखाते है कि कब उसे मल-मूत्र त्याग करना चाहिए। हम उसके लिए समय बाँध देते है। इस तरह मन एक ऐसे काम को अपने हाथ में ले लेता है, जो स्वैच्छिक नहीं है। और यही कारण है कि बच्चे को मलमूत्र विसर्जन का प्रशिक्षण देना इतना कठिन होता है।
अब मनस्विद कहते है कि अगर मलमूत्र विसर्जन का प्रशिक्षण बंद कर दिया जाए तो मनुष्य की हालत बहुत सुधर जाएगी। बच्चे का, उसकी स्वाभाविकता का, सहजता का पहल दमन मलमूत्र-विसर्जन के प्रशिक्षण में होता है। लेकिन इन मनस्विदों की बात मानना कठिन मालूम पड़ता है। कठिन इसलिए मालूम पड़ता है क्योंकि तब बच्चे बहुत सी समस्याएं खड़ी कर देंगे। केवल समृद्ध समाज, अत्यंत समृद्ध समाज ही इस प्रशिक्षण के बिना काम चला सकता है। गरीब समाज को इसकी चिंता लेनी ही पड़ेगी। बच्चे जहां चाहे पेशाब करें, यह हम कैसे बरदाश्त कर सकते है। तब तो वह सोफा पर ही पेशाब करेगा और यह हमारे लिए बहुत खर्चीला पड़ेगा। तो प्रशिक्षण जरूरी हैं। और यह प्रशिक्षण मानसिक है, शरीर में इसकी कोई अंतर्निहित व्यवस्था नहीं है। ऐसी कोई शरीरगत व्यवस्था नहीं है। जहां तक शरीर का संबंध है। मनुष्य पशु ही है। और शरीर को संस्कृति से, समाज से कुछ लेना देना नहीं है।
यही कारण है कि जब तुम्हें गहन भय पकड़ता है तो यह नियंत्रण जाता रहता है। जो शरीर पर लादी गई व्यवस्था है, ढीली पड़ जाती है। तुम्हारे हाथ से नियंत्रण जाता रहता है। सिर्फ सामान्य हालातों में यह नियंत्रण संभव है। असामान्य हालातों में तुम नियंत्रण नहीं रख सकते हो। आपात स्थितियों के लिए तुम्हें प्रशिक्षित नहीं किया गया है। सामान्य दिन-चर्या के कामों के लिए ही प्रशिक्षित किया गया है। आपात स्थिति में यह नियंत्रण विदा हो जाता है, तब तुम्हारा शरीर अपने पाशविक ढंग से काम करने लगता है।
लेकिन इसमें एक बात समझी जा सकती है कि निर्भीक व्यक्ति के साथ ऐसा कभी नहीं होता। यह तो कायरों का लक्षण है। अगर डर के कारण तुम्हारा मल-मूत्र निकल जाता है, तो उसका मतलब है कि तुम कायर हो। निडर आदमी के साथ ऐसा कभी नहीं हो सकता, कयोंकि निडर आदमी गहरी श्वास लेता है। उसके शरीर और श्वास प्रश्वास के बीच एक तालमेल है, उनमें कोई अंतराल नहीं है। कायर व्यक्ति के शरीर और श्वास प्रश्वास के बीच एक अंतराल होता है। और इस अंतराल के कारण वह सदा मल-मूत्र से भरा होता है। इसलिए जब आपात स्थिति पैदा होती है तो उसका मल-मूत्र बाहर निकल जाता है।
और इसका एक प्राकृतिक करण यह भी है कि मल-मूत्र निकलने से कायर हल्का हो जाता है। और वह आसानी से भाग सकता है, बच सकता है। बोझिल पेट बाधा बन सकता है। इसलिए कायर के लिए मल-मूत्र का निकलना सहयोगी होता है।
मैं यह बात क्यों कह रहा हूं? मैं यह इसलिए कह रहा हूं क्योंकि तुम्हें अपने मन और पेट की प्रक्रियाओं से परिचित होना चाहिए। मन और पेट में गहरा अंतर्संबंध है। मनस्विद कहते है कि तुम्हारे पचास से नब्बे प्रतिशत सपने पेट की प्रक्रियाओं के कारण घटते है। अगर तुमने ठूस-ठूस कर खाया है, तो तुम दुःख स्वप्न देखे बिना नहीं रह सकते। ये दुःख स्वप्न मन से नहीं, पेट से आते है।
बहुत से सपने बाहरी आयोजन के द्वारा पैदा किए जा सकते है। अगर तुम नींद में हो और तुम्हारे हाथों को मोड़कर सीने पर रख दिया जाए तो तुम तुरंत दुःख स्वप्न देखने लगोगे। अगर तुम्हारी छाती पर सिर्फ एक तकिया रख दिया जाए तो तुम सपना देखोगें कि कोई राक्षस तुम्हारी छाती पर बैठा है और तुम्हें मार डालने पर उतारू है।
यह विचारणीय है कि एक छोटे से तकिये का भार इतना ज्यादा क्यों हो जाता है? यदि तुम जागे हुए हो तो तकिये का कोई भार नहीं है। तुम्हें जरा भी भार नहीं महसूस होता है। लेकिन क्या बात है कि नींद में छाती पर रखा गया एक छोटा सा तकिया भी चट्टान की तरह भारी मालूम पड़ता है? इतना भार क्यों मालूम पड़ता है?
कारण यह है कि जब तुम जागे हुए हो तो तुम्हारे शरीर और मन के बीच तालमेल नहीं रहता है, उनमें एक अंतराल रहता है। तब तुम शरीर और उसकी संवेदनशीलता को महसूस नहीं कर सकते। नींद में नियंत्रण, संस्कृति, संस्कार, सब विसर्जित हो जाते है और तुम फिर से बच्चे जैसे हो जाते हो और तुम्हारा शरीर संवेदनशील हो जाता है। उसी संवेदनशीलता के कारण एक छोटा सा तकिया भी चट्टान जैसा भारी मालूम पड़ता है। संवेदनशीलता के कारण भार अतिशय हो जाता है। अनंत गुना हो जाता है।
तो मन और शरीर की प्रक्रियाएं आपस में बहुत जुड़ी हुई है। और यदि तुम्हें इसकी जानकारी हो तो तुम इसका उपयोग कर सकते हो।
गुदा को बंद करने से, ऊपर खींचने से, सिकोड़ने से शरीर में ऐसी स्थिति बनती है जिसमें ध्वनि सुनी जा सकती है। तुम्हें अपने शरीर के बंद घेरे में, मौन में, ध्वनि का स्तंभ सा अनुभव होगा। कानों को बंद कर लो और गुदा को ऊपर की ओर सिकोड़ लो और फिर अपने भी जो हो रहा हो उसके साथ रहो। कान और गुदा को बंद करने से जो रिक्त स्थिति बनी है उसके साथ बस रहो। ध्वनि तुम्हारे कानों के मार्ग से या गुदा के मार्ग से बाहर जाती है। उसके बाहर जाने के ये ही दो मार्ग है। इसलिए अगर उनका बाहर जाना न हो तो तुम उसे आसानी से महसूस कर सकते हो।
और इस आंतरिक ध्वनि को अनुभव करने से क्या होता है? इस आंतरिक ध्वनि को सुनने के साथ ही तुम्हारे विचार विलीन हो जाते है। दिन में किसी भी समय यह प्रयोग करो – गुदा को ऊपर खींचो और कानों को अंगुलि के द्वारा बंद कर लो। कानों को बंद करो और गुदा को सिकोड़ लो, तब तुम्हें एहसास होगा कि मेरा मन ठहर गया है। उसने काम करना बंद कर दिया है और विचार भी ठहर गए है। मन में विचारों का जो सतत प्रवाह चलता है, वह विदा हो गया है। यह शुभ है।
और जब भी समय मिले इसका प्रयोग करते रहो। अगर दिन में पाँच-छह दफे इसका प्रयोग किया तो तुम उस ध्वनि को दिन भर सुन सकते हो। तब बाजार के शोरगुल में भी, सड़क के शोरगुल में भी—यदि तुमने उस ध्वनि को सुना है—वह तुम्हारे साथ रहेगी। और फिर तुम्हें कोई भी उपद्रव अशांत नहीं करेगा। अगर तुमने यह अंतर्ध्वनि सुन ली तो बाहर की कोई चीज तुम्हें विचलित नहीं कर सकती है। तब तुम शांत रहोगे। जो भी आस-पास घटेगा उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा।