आलसी शासन: शासन कोई सौभाग्य नहीं है कि उसे बढ़ाए चले जाओ, शासन एक दुर्भाग्य है जिसे कम करना है “ओशो”

 आलसी शासन: शासन कोई सौभाग्य नहीं है कि उसे बढ़ाए चले जाओ, शासन एक दुर्भाग्य है जिसे कम करना है “ओशो”

ओशो- शासन का अर्थ है, परतंत्रता। शासन का अर्थ है, व्यक्ति का मूल्य कम है, समाज का मूल्य ज्यादा है। शासन का अर्थ है कि व्यक्ति को समाज का अनुसरण करना चाहिए हर कीमत पर। और अगर कोई झंझट हो तो व्यक्ति की कुर्बानी दी जाएगी समाज के लिए। यह तो बिलकुल उलटा है धर्म के।

धर्म का सूत्र है कि व्यक्ति की गरिमा अंतिम है; व्यक्ति के ऊपर कुछ भी नहीं। और व्यक्ति की आत्मा का मूल्य चरम है; उसे किसी भी बलिवेदी पर चढ़ाया नहीं जा सकता। समाज सिर्फ शब्द है, राज्य केवल शब्द है। न तो समाज के पास कोई आत्मा है और न राज्य के पास कोई आत्मा है। ये मुर्दा संस्थाएं हैं। इनके लिए जीवंत व्यक्ति को चढ़ाया नहीं जा सकता। जीवित व्यक्ति आखिरी मूल्य है। और व्यक्तित्व की गरिमा को अक्षुण्ण रखना हो तो शासन जितना कम हो उतना ही शुभ है।

शासन जितना ज्यादा होगा उतना व्यक्ति कम हो जाता है। अगर शासन परिपूर्ण हो तो व्यक्ति बिलकुल खो जाता है। व्यक्ति का फिर कोई पता नहीं रह जाता। नाजी जर्मनी में या फासिस्ट इटली में व्यक्ति की कोई गरिमा नहीं है। व्यक्ति जैसी कोई चीज ही नहीं है। राष्ट्र के नाम पर सब कुर्बान है। व्यक्ति को पोंछ कर मिटा दिया गया। एक भीड़ है अब–आत्मारहित। क्योंकि स्वतंत्रता के बिना आत्मा होती ही नहीं। इसीलिए तो हम आत्मा की परम दशा को मोक्ष कहते हैं। मोक्ष का अर्थ है, आत्मा इतनी मुक्त होती जाती है, इतनी मुक्त होती जाती है कि आत्मा के होने में और मुक्ति में कोई फासला नहीं रह जाता; दोनों एक ही चीज के नाम हो जाते हैं। तुम स्वतंत्रता हो। और व्यक्ति की गहनतम प्रतीति स्वतंत्रता की है। वही उसकी आकांक्षा है, मोक्ष की खोज है।

लेकिन अगर शासन बहुत हो तो तुम बंधे हो जाओगे; तुम मुक्त नहीं हो सकते। इसीलिए तो संन्यासी को जंगलों में भागना पड़ा। जंगलों की किसी खूबी के कारण नहीं; जंगल में क्या रखा है? समाज की बेहूदगी की वजह से एकांत में जाना पड़ा। क्योंकि समाज इतना अतिशय है कि वह तुम्हें होने ही नहीं देता।

बर्ट्रेंड रसेल ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में लिखा है कि एक आदिवासी कबीले में जाकर मुझे प्रतीति हुई कि काश, मैं भी इतना ही स्वतंत्र होता कि जब मौज होती तब गीत गाते! चाहे रास्ते पर नाचना होता तो नाचते, कोई बाधा न देता!

लेकिन लंदन के रास्ते पर तो नहीं नाच सकते। फौरन जेलखाने पहुंचा दिए जाओगे। जोर से गीत भी नहीं गाकर निकल सकते रास्ते पर, क्योंकि दूसरों को अड़चन आ जाएगी। गीत गाना दूर, तुम बिलकुल चुप भी खड़े हो जाओ लंदन या दिल्ली या बंबई के रास्ते पर, तुम किसी का कुछ भी नहीं कर रहे हो, तुम सिर्फ चुप्पी साधे हो, कठिनाई शुरू हो जाएगी।

अभी तीन दिन पहले ही पूना के अखबार में किसी का पत्र छपा है मेरे किसी संन्यासी के विरोध में कि वह रास्ते पर चुपचाप खड़ा था। और भीड़ लग गई और लोगों को इससे बाधा हुई। वह कुछ भी नहीं कर रहा था। जिसने लिखा है उसने भी लिखा है कि वह आंख बंद किए शांत खड़ा था, किसी का कुछ नहीं कर रहा था। लेकिन ट्रैफिक में उससे उपद्रव हुआ, लोगों को उससे बच कर निकलना पड़ा और वहां भीड़ लग गई। और उसके कारण अड़चन हुई। इस तरह की घटनाएं रोकी जानी चाहिए।

तुम किसी को चुपचाप खड़े होने का मौका भी नहीं देते। तुम्हें इतना भय है व्यक्ति की स्वतंत्रता से। तुम करीब-करीब भीड़ के हिस्से हो गए। तुम्हारा अपना कोई होना नहीं है।

लाओत्से संन्यास का पक्षपाती है, इसलिए शासन का विरोधी। जो भी इस संसार में संन्यास का पक्षपाती है वह शासन का विरोधी होगा। क्योंकि संन्यास का मतलब है, आखिरी मूल्य है व्यक्ति का, समाज का कोई मूल्य नहीं है। समाज तो केवल एक व्यवस्था मात्र है। समाज व्यक्ति के लिए है, व्यक्ति समाज के लिए नहीं। ऐसी चरम उदघोषणा संन्यास है। क्रमशः

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३ 

ताओ उपनिषाद–प्रवचन–097