ओशो– इंद्रियासक्ति शरीर को विकृत व्यवस्था दे जाती है। ऐसा व्यक्ति, जिसकी इंद्रिय की आसक्ति नहीं है, उसको भी भूख लगेगी। लेकिन भूख शुद्ध होगी। और भूख वहीं तक होगी, जहां तक आवश्यकता है। और आवश्यकताएं बहुत कम हैं। वासनाएं अनंत हैं; आवश्यकताएं बड़ी सीमित हैं। स्वाद का कोई अंत नहीं। भोजन तो बहुत थोड़ा काफी है।
और जीवन की समस्त दिशाओं में ऐसा ही परिणाम होगा। सब तरफ शुद्धतम आवश्यकताएं रह जाएंगी। कुछ आवश्यकताएं ऐसी हैं, जो व्यक्ति की आवश्यकताएं ही नहीं हैं। उनसे व्यक्ति मुक्त हो जाएगा। जैसे सेक्स। यह बहुत मजे की बात है कि भोजन आपके शरीर की आवश्यकता है, लेकिन आपने कभी सोचा न होगा कि कामवासना आपकी आवश्यकता नहीं है। कामवासना समाज की आवश्यकता है। अगर आप भोजन न करें, तो आप मर जाएंगे। और अगर आप में कामवासना न रहे, तो संतति मर जाएगी, आगे समाज की धारा मर जाएगी। सेक्स जो है, बायोलाजिकल है। आपकी आवश्यकता नहीं है उतनी, जितनी प्रकृति आपसे किसी को पैदा करवा लेगी, इसके पहले कि आप मरें। वह प्रकृति की जरूरत है।और जो व्यक्ति यह जान लेता है कि मैं इंद्रियों के पार हूं, वह यह भी जान लेता है कि मैं प्रकृति के पार हूं। वह प्रकृति के चंगुल और जाल के बाहर हो जाता है।
तो जैसे भोजन तो जारी रहेगा, लेकिन काम तिरोहित हो जाएगा। यह मैंने फर्क करने को कहा कि हमारी आवश्यकताओं में भी भेद हैं। जिस व्यक्ति की इंद्रिय-आसक्ति मिट गई, उसकी भूख शुद्ध होकर सीमित, स्वाभाविक हो जाएगी। उसका काम शुद्ध होकर राम की ओर गतिमान हो जाएगा। उसकी कामवासना विलीन हो जाएगी। क्योंकि वह व्यक्ति की जरूरत ही नहीं है, वह प्रकृति की जरूरत है। आप मर जाएं, इसके पहले प्रकृति आपसे इतना काम ले लेना चाहती है कि अपनी जगह किसी को छोड़ जाएं। बस, उससे आपका कोई प्रयोजन नहीं है। वह आपकी जरूरत नहीं है गहरे में।
लेकिन इंद्रिय से भरा हुआ मन उलटा सोचेगा। वह सोचेगा, एक बार भूखा रह जाए, राजी हो जाएगा, लेकिन कामवासना से रुकने को राजी नहीं रहेगा। भूख छोड़ देगा, धन छोड़ देगा, स्वास्थ्य छोड़ देगा, लेकिन कामवासना के पीछे पड़ा रहेगा। वे विकृत हो गई इंद्रियां हैं।
जैसे ही इंद्रियां प्रकृतिस्थ होंगी, सुकृत होंगी, सहज होंगी, वैसे ही जो व्यक्ति की आवश्यकता है, वह सरल हो जाएगी। और जो व्यक्ति की आवश्यकता नहीं है, वह तिरोहित हो जाएगी।
☘️☘️ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३ ☘️☘️ गीता-दर्शन – भाग 3 आसक्ति का सम्मोहन (अध्याय-6) प्रवचन—दूसरा