ओशो- मैंने सुना है, एक पुरानी कहानी कि जार के जमाने में,रूस में, साइबेरिया में तीन कैदी बंद थे। और तीनों में सदा विवाद हुआ करता था कि कौन बड़ा अपराधी है। और तीनों में सदा विवाद हुआ करता था कि कौन ज्यादा दिन से जेल भोग रहा है। जेल में अक्सर यह होता है। लोग वहां भी बढ़ा—चढा कर बताते हैं। ऐसा नहीं कि तुम अपना बैंक—बैलेंस बढ़ा—चढ़ा कर बताते हो और मेहमान आ जाते हैं तो घर में पड़ोस फर्नीचर मांगकर और गलीचे बिछा देते हो। तुम्हीं धोखा देते हो, ऐसा नहीं है। ऐसा नहीं है कि तुम्हीं दूसरों को देखकर खूब जोर—जोर से हरे राम, राम करने लगते हो, कि कोई आ जाये तो प्रार्थना लंबी हो जाती है, पूजा की घंटियां जोर से बजने लगती हैँ; कोई न आये, जल्दी निपटा लेते हो। ऐसा तुम ही करते हो, ऐसा नहीं है। मेहमान घर में हों तो तुम मंदिर चले जाते हो, क्योंकि मेहमानों पर धार्मिक होने का प्रभाव डालना है। कैदी भी कारागृह में इसी तरह करते हैं। उन तीन कैदियों में विवाद होता था। एक दिन पहले कैदी ने कहा, ‘मैं जब जेल में आया था, जब मुझे साइबेरिया की जेल में डाला गया, तब मोटर गाड़ी नहीं चलती थी।’दूसरे ने कहा, ‘इसमें क्या रखा है? अरे, मैं जब डाला गया तब बैलगाड़ी तक नहीं चलती थी।’ तीसरे ने कहा, ‘बैलगाड़ी! बैलगाड़ी क्या होती है?’
वे यह सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं कि कौन कितने प्राचीन समय से इस जेल में पड़ा हुआ है। इसमें भी अहंकार है।
मैंने सुना है, एक जेल में एक नया अपराधी आया। जिस कोठरी में उस भेजा गया था, उसे कोठरी में एक दादा पहले से ही जमे थे। उस दादा ने पूछा कि कितने दिन रहेगा?उसने कहा कि यही कोई बीस साल की सजा हुई है। उसने कहा, ‘तू दरवाजे पर ही रह! तुझे जल्दी निकलना पड़ेगा। तू दरवाजे के पास ही अपना बिस्तरा लगा ले।’
अपराधी का भी अहंकार है। बुरे के साथ भी आदमी अपने अहंकार को भरता है, भले के साथ भी भरता है! लेकिन दोनों स्थितियों में चैतन्य अशुद्ध हो जाता है।
अष्टावक्र कहते हैं, ‘मैं एक विशुद्ध बोध हूं।’ न तो मैं बुद्धिमान हूं, न मैं चरित्रवान हूं न मैं चरित्रहीन हूं न मैं सुंदर हूं न मैं असुंदर हूं न मैं जवान हूं न मैं बूढ़ा हूं? न गोरा न काला, न हिंदू न मुसलमान, न ब्राह्मण न शूद्र—मेरा कोई तादात्म्य नहीं है। मैं इन सबको देखने वाला हूं।
जैसे तुमने दीया जलाया अपने घर में, तो दीये की रोशनी टेबिल पर भी पड़ती है, कुर्सी पर भी पड़ती है, दीवाल पर भी पड़ती है, दीवाल—घड़ी पर भी पड़ती है, फर्नीचर पर,अलमारी पर, कालीन पर, फर्श पर, छप्पर पर—सब पर पड़ती है। तुम बैठे, तुम पर भी पड़ती है। लेकिन ज्योति न तो दीवाल है, न छप्पर है, न फर्श है, न टेबिल है, न कुर्सी है। सब रोशन है उस रोशनी में; लेकिन रोशनी अलग है।
शुद्ध चैतन्य तुम्हारी रोशनी है, तुम्हारा बोध है। वह बोध तुम्हारी बुद्धि पर भी पड़ता, तुम्हारी देह पर भी पड़ता,तुम्हारे कृत्य पर भी पड़ता; लेकिन तुम उनमें से कोई भी नहीं हो।
जब तक तुम अपने को किसी से जोड़कर जानोगे,तब तक अहंकार पैदा होगा। अहंकार है चेतना का किसी अन्य वस्तु से तादात्म्य। जैसे ही तुमने सारे तादात्म्य छोड़ दिये—तुमने कहा, मैं तो बस शुद्ध बोध हूं मैं तो शुद्ध बोध हूं शुद्ध बुद्ध हूं—वैसे ही तुम घर लौटने लगे; मुक्ति का क्षण करीब आने लगा।
अष्टावक्र कहते हैं, ‘विशुद्ध बोध हूं ऐसी धारणा।’
अहं एका विशुद्ध बोध: इति।
ऐसे निश्चय—रूपी अग्नि से…।
यह क्या है निश्चय—रूपी बात? सुनकर यह निश्चय न होगा। केवल बुद्धि से समझकर यह निश्चय न होगा। ऐसा तो बहुत बार तुमने समझ लिया है, फिर—फिर भूल जाते हो। अनुभव से यह निश्चय होगा। थोड़े प्रयोग करोगे तो निश्चय होगा। प्रतीति होगी तो निश्चय होगा। और निश्चय होगा तो क्रांति घटित होगी।