क्या मनुष्य फिर से पशु योनि में जा सकता है? “ओशो”

 क्या मनुष्य फिर से पशु योनि में जा सकता है? “ओशो”

ओशो- एक मित्र ने पूछा है कि उनके कोई मित्र हैं वे योगी हैं और कहते हैं कि पिछले जन्म में वे चिड़िया थे तो क्या आदमी पशु भी हो सकता है?

आदमी कभी पशु हो सकता है, लेकिन दुबारा पशु नहीं हो सकता। पीछे लौटना नहीं होता, पीछे लौटना असंभव है। तो यह तो हो सकता है कि पीछे की योनि में से आगे आना हो, लेकिन यह नहीं हो सकता कि आगे की योनि में से पीछे लौटना पड़े। इस जगत में पीछे लौटना होता ही नहीं, पीछे लौटने का उपाय ही नहीं है। दो ही उपाय हैं–या तो आगे बढ़े, या जहां हैं वहां ही रुक जाएं। पीछे नहीं लौट सकते। जैसे स्कूल में बच्चा पहली कक्षा में पढ़ता है। वह उत्तीर्ण हो जाए तो दूसरी कक्षा में चला जाए, और अनुत्तीर्ण हो जाए तो पहली कक्षा में ही रह जाए, लेकिन पहली कक्षा से उसे निकालने का कोई उपाय नहीं है। जब दूसरी कक्षा में कोई असफल हो जाए, तो उसे पहली कक्षा में उतारने का भी कोई उपाय नहीं। तो जिस योनि में हम होते हैं, हम या तो उस योनि में टिक सकते हैं बहुत लंबे समय तक, या हम आगे जा सकते हैं, लेकिन पीछे नहीं लौट सकते।तो इसकी कोई बहुत कठिनाई नहीं है कि कोई पीछे पशु योनि में रहा हो। रहा ही है। कितने जन्मों तक रहा है, यह दूसरी बात है। इसमें जरा भी कठिनाई नहीं है। और अगर हम अपने पिछले जन्मों में उतरेंगे, तो हमें याद आएंगे वह सब जन्म, जब हम चिड़िया भी रहे होंगे, पशु भी रहे होंगे, स्त्री भी रहे होंगे, पक्षी भी रहे होंगे।

और-और नीचे, और-और नीचे, इतनी जड़ता रही होगी जहां कि चेतना का कोई सूत्र ही खोजना मुश्किल है।

पहाड़ भी जीवन है। वहां भी जीवन है, लेकिन चेतना न के बराबर है। निन्यानबे प्रतिशत जड़ता है, एक प्रतिशत चेतना है। निरंतर चेतना बढ़ती चली जाती है और जड़ता कम होती चली जाती है। परमात्मा है, वह सौ प्रतिशत चेतन है। पदार्थ और परमात्मा में प्रतिशत का अंतर है। पदार्थ और परमात्मा में कोई क्वालिटी का अंतर नहीं है, क्वांटिटी का अंतर है। कोई गुण का अंतर नहीं है, मात्रा का अंतर है। इसलिए पदार्थ परमात्मा हो सकता है।

तो यह बहुत हैरानी या कठिनाई की बात नहीं है कि कोई आदमी पिछले जन्मों में पशु रहा हो। बड़ी कठिनाई तो तब होती है, जब कुछ लोग आदमी होते हुए भी पशु ही होते हैं। यह तो बहुत आश्चर्यजनक नहीं है, पिछले जन्मों में कभी न कभी हम सभी पशु रहे होंगे। लेकिन आदमी होते हुए भी हमारी चेतना इतनी क्षीण हो सकती है कि सिर्फ देह के तल पर हम आदमी मालूम हो सकते हैं। अगर हम अपनी वृत्तियों को खोजने जायें, तो हमें ऐसा ही लगेगा कि हम पशु तो नहीं रहे हैं, लेकिन आदमी भी नहीं हो गए हैं। कहीं बीच में अटक गये हैं। और इसलिए जब भी मौका आता है, तो हम फिर से पशु हो जाने में देर नहीं लगाते।

जैसे कि कोई आदमी आकर आपको एक धक्का मार जाए। आप बड़े भले आदमी की तरह चले जा रहे हैं और एक आदमी ने आपको घूंसा मार दिया और एक गाली दे दी। और आप अचानक पाते हैं कि जो आपका भला आदमी था वह एकदम तिरोहित हो गया है और आप वहां खड़े हो गये हैं, जहां आप किसी पिछले जन्म में रहे होंगे। आप पशु हो गये। हमारी आदमियत बहुत स्‍किन डीप है। जरा-सा हम खरोंच दें तो भीतर का पशु निकल आता है। और वह निकल इसीलिए आता है क्योंकि हम वह रहे हैं। क्योंकि वह जो ग्रोथ है हमारी, वह जो आदमी होना है, वह ऊपर से तो आ गया, लेकिन भीतर अभी भी पशु मौजूद है। और इसलिए उसको खोदने में देर नहीं लगती। हिंदुओं को कह दो कि हिंदू धर्म खतरे में है, खुद जाता है। मुसलमान को कह दो कि मुसलमान धर्म खतरे में है, खुद जाता है। कहीं गहरे नहीं जाना पड़ता है। आदमी, जो बिलकुल भला दिखाई पड़ता है, सफेद कपड़े पहने हुए, खादी पहने हुए, वह भी वही है। वह भी सब स्किन डीप है। जरा सा खरोंच दो तो भीतर का पशु निकल आये। और जब पशु निकलता है, तो इतने जोर से प्रकट होता है कि ऐसा लगता है कि यह आदमी कभी आदमी रहा होगा, यह भी संदिग्ध है।

यह जो हमारी स्थिति है, उसमें हमारा वह सब मौजूद है, जो हम कभी रहे होंगे। उसकी परतें हैं भीतर, और अगर जरा खोदा जाए तो भीतर की परतों तक हम पहुंच सकते हैं। हम पत्थर की परत पर भी पहुंच जा सकते हैं, वह भी हमारी परत है। क्योंकि बहुत गहरे अंतःकरण में हम अब भी पत्थर हैं। और इसलिए अगर वहां तक हमें खरोंचा जाये, तो हम पत्थर की तरह भी व्यवहार करते हैं, कर सकते हैं। पशु की तरह भी व्यवहार करते हैं, कर सकते हैं। और आगे की हमारी सिर्फ संभावनाएं हैं, वे हमारी परतें नहीं हैं। इसलिए कभी-कभी छलांग लगाकर छूते हैं, लेकिन फिर जमीन पर वापस लौट आते हैं। वह हमारी संभावनाएं हैं। देवता भी हम हो सकते हैं, लेकिन हम कभी रहे नहीं। परमात्मा हम कभी हो सकते हैं, लेकिन… जो हम रहे हैं, वह हमारी स्थिति है।

तो ये दो बातें हैं कि अगर हमारे अंदर थोड़ा खोदा जाए, तो हमारे भीतर की स्थितियां मिल जाएंगी; और अगर हमें और आगे फेंका जाए, तो हमारी आगे की स्थितियों का अनुभव होता है। लेकिन जैसे कोई आदमी जमीन पर छलांग लगाए, तो एक सेकेंड को जमीन के बाहर हो जाता है, आकाश में होता है, लेकिन फिर वापिस जमीन पर खड़ा होता है। ऐसे ही हम छलांग लगा-लगाकर आदमी होते रहते हैं। हम कभी-कभी आदमी होते हैं, बाकी हम पीछे खड़े हो जाते हैं। अगर बहुत गौर से देखें, तो चौबीस घंटे में हम कभी-कभी किसी क्षण में ठीक आदमी होते हैं। हम सब जानते भी हैं।

भिखमंगे आपने देखे हैं। वह सुबह भीख मांगने आते हैं, शाम नहीं आते। क्योंकि शाम तक आदमी होने की संभावना कम हो जाती है। सुबह-सुबह ताजा आदमी होता है, रात भर का विश्राम किया हुआ। न कोई झगड़ा, न कोई कलह, न गाली, न गलौज, न उपद्रव। सुबह उठता है, ताजा-ताजा होता है। भिखारी सामने आ जाता है, तो आशा होती है कि वह थोड़ी आदमियत का व्यवहार करेगा। लेकिन सांझ ऐसी आशा नहीं होती है। इसलिए सांझ भिखारी नहीं आता है। वह जानता है कि दिन भर की खरोंच ने आदमी के भीतर की परतों को जगा दिया होगा–दफ्तर ने, दुकान ने, बाजार ने, दंगा-फसाद ने, अखबार ने, नेताओं ने गड़बड़ कर दिया होगा। और वह भीतर की जो परतें हैं, वे जग गई होंगी। सांझ को कोई भिखमंगा भीख मांगने नहीं आता, क्योंकि सांझ को आदमी थक गया होता है, जानवर हो गया होता है।

इसलिए रात को जो क्लब पैदा होते हैं, उनमें जानवरियत दिखाई पड़ती है। इसका और कोई कारण नहीं है। रात के क्लब, नाइट क्लब, जरूर वह पशुओं की प्रवृत्तियों के हो जाते हैं। वह दिन भर का थका हुआ आदमी आदमियत से थक जाता है। वह कहता है, हमें पशु चाहिए, शराब चाहिए, जुआ चाहिए, नाच चाहिए, नंगापन चाहिए, हो–हुल्लड़ चाहिए। तो रात के जो क्लब हैं, वे आदमी की पशुता के इर्द—गिर्द निर्मित होते हैं। इसलिए प्रार्थना करनी हो, तो सुबह ही अच्छा है। सांझ जरा शक है कि प्रार्थना संभव हो पाए। इसीलिए मंदिर सुबह घंटियां बजा देते हैं। रात में क्लबों के द्वार खुल जाते हैं, ज़ुआघर खुल जाते हैं, शराबखाने खुल जाते हैं। वेश्या सुबह-सुबह नहीं आमंत्रण दे पाती, रात में ही आमंत्रण दे पाती है।

दिन भर का थका हुआ आदमी जानवर हो जाता है। इसलिए रात के अलग धंधे हैं और सुबह की अलग दुनिया है। ये चर्च सुबह, ये मस्जिद सुबह अजान दे देती है, मंदिर सुबह घंटी बजा देते हैं। थोड़ी–सी आशा है कि सुबह का जागा हुआ आदमी शायद परमात्मा की तरफ थोड़ी आंख उठा ले। सांझ को थके हुए आदमी से कम आशा रह जाती है। और इसीलिए बच्चों से ज्यादा आशा होती है कि वे परमात्मा की तरफ झुक जाएं। बूढ़ों से कम आशा होती है, क्योंकि वह सांझ है जिंदगी की। वह जिंदगी भर ने उनका सब उघाड़ दिया होगा, सब उखाड़ दिया होगा। इसलिए जितनी जल्दी हो सके, जितनी सुबह हो सके, उतनी जल्दी यात्रा पर निकल जाना चाहिए। सांझ आ ही जाएगी। इसके पहले कि सांझ आए अगर हम सुबह यात्रा पर निकल गए हों, तो यह भी हो सकता है कि सांझ भी हमें मंदिर में पाए।

तो वह मित्र ठीक पूछते हैं। यह संभव है कि कोई आदमी पशु रहा हो, पक्षी रहा हो। ध्यान यह रखना चाहिए कि अब भी तो पशु और पक्षी नहीं हैं। उसका स्मरण रखना जरूरी है।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३

मैं मृत्यु सिखाता हूँ (प्रवचन 04)