संसार दिखावा है, परमात्मा दिखावा नहीं है; उसे तुम अपने भीतर संभालना “ओशो”

 संसार दिखावा है, परमात्मा दिखावा नहीं है; उसे तुम अपने भीतर संभालना “ओशो”

ओशो– परमात्मा कोई प्रदर्शन नहीं है; वह कोई एक्झिबीशन नहीं है। संसार प्रदर्शन है। अगर तुम्हारे पास धन है और तुम न दिखाओ, तो होने का सार ही क्या? तुम्हारे पास हीरे-जवाहरात हैं, तुम जमीन में गाड़े रखे रहो, क्या फायदा? उनको दिखाना पड़ेगा। मौके-बेमौके उनको निकालना पड़ेगा–शादी-विवाह में, मंदिर में, क्लब में, कहीं न कहीं उनको दिखाना पड़ेगा। नहीं तो सार ही क्या है? तुम जमीन में रखे रहो हीरे-जवाहरात करोड़ों के, और किसी को पता न चले, तो हीरे-जवाहरात हैं कि कंकड़-पत्थर हैं, क्या फर्क पड़ता है।मैंने सुना है कि एक बूढ़ा आदमी अपनी तिजोरी में पांच सोने की ईंटें रखे था। उसका बेटा जरा फक्कड़ तबीयत का था–मस्ती-मौज…। उसने धीरे-धीरे वे पांचों ईंटें खिसका लीं। मजा कर लिया। और हर ईंट की जगह उसने एक लोहे की ईंट उसी वजन की रख दी। बाप को बुढ़ापे में दिखाई भी कम पड़ता था, और अंधेरे में तिजोरी थी। वह उसको ऐसा खोल कर, हाथ फेर कर देख लेता था। ईंट थी, बात खत्म थी। दरवाजा लगा कर प्रसन्न था।

वह तो मरने के पहले अड़चन हो गई। मरने के पहले उसने आंख खोली और उसने कहा कि मेरी ईंटें ले आओ, कोई गड़बड़ तो नहीं हुई। तो ईंटें लाई गईं। पत्नी ईंटें निकाल कर लाई तो हैरान हुई, क्योंकि वे तो लोहे की थीं। समझ गई कि बेटे की करतूत है। मरते आदमी ने जब ईंटें देखीं, वे लोहे की थीं। एक क्षण को तो धक्का लगा। एक क्षण को तो लगा कि यह तो लुट गया! लेकिन अब मौत करीब आ रही थी, तब लुटने से भी क्या फर्क पड़ता था? फिर एक हंसी भी आ गई। और हंसी यह आई कि यह भी बड़ा मजा रहा। जिंदगी इसी मजे में गुजार दी कि सोने की ईंटें हैं। ईंटें तो लोहे की थीं।

तुम्हारे घर में तुमने अगर धन गड़ा के रखा है, क्या सार? धन दिखावा है। उसका मजा ही दिखाने में है। इसलिए तो लोग जितना उनके पास नहीं उससे ज्यादा दिखलाते हैं। सिर्फ इनकम टैक्स आफिस वालों को नहीं दिखलाते। बाकी सबको दिखलाते हैं। जो नहीं है वह भी दिखलाते हैं। टेबल पर फोन रखे रहते हैं, उसका कहीं कनेक्शन ही नहीं है।

मैंने तो एक बार ऐसा सुना कि नसरुद्दीन ने ऐसा फोन रख लिया। दफ्तर जमाया था, तो बिना फोन के दफ्तर तो जंचता भी नहीं। एक आदमी भीतर आया। उस पर प्रभाव बांधने के लिए उसने कहा: जरा एक मिनट रुकें। फोन उठा कर उसने बातचीत की, फिर उसने पूछा–उस आदमी को प्रभावित करने के लिए, फोन तो कहीं जुड़ा ही न था। पर बातचीत की, दो-चार शब्द कहे-सुने, फोन रखा, उससे पूछा: कहिए, कैसे आए? उसने कहा: मैं फोन कंपनी से आया हूं, जोड़ने के लिए। उसको पता नहीं कि ये फोन कंपनी से आए हुए हैं!

धन का तो मजा दिखावे में है। जो नहीं है वह भी आदमी दिखाता है। दूसरों से उधार चीजें लोग मांग लाते हैं। उनको भी दिखाते हैं कि उनकी हैं–अपनी हैं।

संसार दिखावा है। परमात्मा दिखावा नहीं है; उसे तुम सम्हालना भीतर।

सहजो कहती है: सहजो सुमिरन कीजिए, हिरदै माहिं दुराय! हृदय में ही दोहराना। होठ होठ सूं ना हिलै! ओंठ-ओंठ को भी पता न हो पाए कि तुम हृदय में क्या दोहराते हो। सकै नहीं कोई पाय! और किसी को पता न चल सके। कोई लाख खोजे, तो तुम्हारे भीतर क्या छिपा है उसका पता न चल सके, छिपाना। क्योंकि जितना तुम छिपाओगे, उतना ही गहरा चला जाएगा। दिखाना, तुम जितना दिखाओगे उतना बाहर-बाहर फैल जाएगा। दिखावा परिधि का होता है, केंद्र को तो छिपाना होता है। जो गहनतम है वह तो गहनतम में छिपाना चाहिए। छिपाए चले जाना, और भीतर…और भीतर…और भीतर…। जितनी जगह मिले, भीतर लेते जाना। एक दिन आएगा कि तुम्हारे आत्यंतिक केंद्र पर परमात्मा का नाम होगा; स्मरण होगा, शब्द नहीं। ऐसा नहीं कि तुम भीतर राम-राम दोहराओगे। राम-राम दोहराओगे तब तो ओंठों को खबर हो जाएगी। कभी तुम चुपचाप भी दोहराओ तो तुम पाओगे धीरे-धीरे ओंठ भीतर हिल रहे हैं। कंपन चलेगा। जीभ को पता चल जाएगा, कंठ को पता चल जाएगा।

सहजो का मतलब यह है कि यह कोई शब्द का दोहराना नहीं है परमात्मा का स्मरण, यह हृदय की प्रतीति है।

सहजो सुमिरन कीजिए, हिरदै माहिं दुराय।
होठ होठ सूं ना हिलै, सकै नहीं कोइ पाय।।

किसी को पता न चले। क्योंकि मन, अहंकार बड़ा चालबाज है। अगर उसको यह भी मजा आने लगे कि लोगों को पता चल जाए कि मैं राम-स्मरण करता हूं, तो वह जरा जोर से करने लगेगा। जब कोई निकलेगा तो जरा जोर से करेगा। कोई नहीं होगा तो जरा धीरे कर लेगा। कोई सुनने वाला नहीं होगा तो पोथी रख कर बैठ जाएगा, दुकान की बात सोच लेगा। फिर कोई आ जाएगा, फिर पोथी उठा लेगा, फिर किताब पढ़ने लगेगा। मन बड़ा धोखेबाज है। इस मन के धोखे से सजग रहना। इसीलिए जीवन की जो परम साधना है वह आंतरिक है, गुह्य है।

तुम तो उपवास भी करते हो तो इसलिए कि जुलूस निकलेगा अब। दस-दस दिन के लोग उपवास कर लेते हैं, सिर्फ इसी आशा में कि अब जुलूस निकलने को ही है, एकाध-दो दिन की देर और है। उपवास को भी शादी-विवाह जैसा उत्सव बना लेते हैं–बैंड-बाजा बजने लगता है, भीड़ चलने लगती है, प्रोसेशन निकलता है, शोभायात्रा बनती है। तुमने उपवास खराब ही कर दिया। और उस आदमी के मन में उपवास भी दिखावा हो गया। यह किसी से कहने की बात है? और अगर तुमने संसार से कह दी, तो समझ लेना परमात्मा से अब कहने की कोई जरूरत न रही। बात खत्म हो गई। चुकतारा हो गया। तुम्हें जो मिलना था तुम्हारे उपवास से मिल गया। बाजार में प्रोसेशन निकल गया, बैंड-बाजे हो गए, अखबार में खबर छप गई, खत्म। लोग अहोगान कर गए आकर कि तुम महातपस्वी हो! चुकतारा हो गया। जो मिलना था मिल गया, उपवास से। अब कोई आगे बात मत उठाना और कुछ पाने की।

धर्म से तुम इस संसार में कुछ भी मत लेना। तो ही तुम परमात्मा को उससे पा सकोगे। तुम यहां कोई पुरस्कार स्वीकार मत करना। तो ही तुम्हें उसका पुरस्कार मिल सकेगा।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३

” बिन घन परत फुहार-7”