ओशो- शिक्षकों_से_मिलता_हूं तो सब जगह उनकी तकलीफ यही है कि विद्यार्थी सम्मान नहीं दे रहा है, आदर नहीं दे रहा है। लेकिन उसे पता ही नहीं है कि गुरु नाम का प्राणी बहुत और बात थी। शिक्षक वह नहीं था, जिसको आदर मिला था। शिक्षक बहुत और बात है। उसे आदर नहीं मिल सकता है। उसे आदर की आकांक्षा भी छोड़ देनी चाहिए और या फिर गुरु होने की हिम्मत जुटानी चाहिए। ऐसा नहीं है कि गुरु को आदर देना पड़े; बात उलटी है। जिसे हमें आदर देना ही पड़ता है उसको ही गुरु कहते हैं। जिसे आदर दिए बिना कोई रास्ता ही नहीं है, जो हमारे आदर को खींच ही लेता है, उसे ही हम गुरु कहते हैं। लेकिन शिक्षक और बात है। शिक्षक कुछ काम ही दूसरा कर रहा है।
क्या काम शिक्षक कर रहा है आज? वह जो मास प्रोडक्शन है, वह जो बड़े पैमाने पर आदमियों को ढालने की कोशिश चल रही है, वह जो बड़े-बड़े कारखाने हैं, प्राइमरी स्कूल से लेकर युनिवर्सिटी तक, उन सब कारखानों में जो आदमी को ढालने का प्रयास चल रहा है। शिक्षक उसमें नौकर है और वह जो काम वहां कर रहा है, वह काम किसी भी व्यक्ति की आत्मा को नहीं जगा पाता।
गुरु वह है जो किसी की आत्मा को जगा दे, किसी के व्यक्तित्व को गरिमा दे दे, उसके बंद फूल खिल जाएं।
शिक्षक वह है जो पुरानी पीढ़ियों के द्वारा अर्जित सूचनाओं को, नई पीढ़ी तक पहुंचाने का वाहन का काम कर दे और विदा हो जाए।
शिक्षक सिर्फ पुरानी पीढ़ियों ने जो ज्ञान अर्जित किया है, उसे नई पीढ़ी तक जोड़ने का काम करता है, इेससे ज्यादा नहीं। वह मध्यस्थ है।
और वहां भी एक क्रांतिकारी घटना घट गई है। जीसस के मरने के बाद कोई साढ़े अट्ठारह सौ वर्षों में मनुष्य जाति का जितना ज्ञान बढ़ा था।।
उतना ज्ञान पिछले डेढ़ सौ वर्षों में बढ़ा है और पिछले डेढ़ सौ वर्षों में जितना ज्ञान बढ़ा था, उतना ज्ञान पिछले पंद्रह वर्षों में बढ़ा है।
पंद्रह वर्षों में उतना ज्ञान बढ़ रहा है अब, जितने ज्ञान को बढ़ने के लिए पहले साढ़े अट्ठारह सौ वर्ष लगते थे।
इसका एक बहुत गहरा परिणाम होना स्वाभाविक है।।
वह परिणाम यह हुआ है कि पहले, आज से दो सौ साल पहले बाप हमेशा बेटे से ज्यादा जानता था, गुरु हमेशा शिष्य से ज्यादा जानता था। आज ऐसा जरूरी नहीं है।
आज संभावनाएं बिलकुल बदल गई हैं, क्योंकि बीस वर्ष में एक पीढ़ी बदलती है, और बीस वर्ष में नये ज्ञान का इतना विस्फोट हो जाता है कि बीस साल पहले जो शिक्षित हुआ था, वह अपने विद्यार्थी से भी पीछे पड़ जाता है।
आज तो शिक्षक और विद्यार्थी में जो फर्क होता है, पहले तो फर्क होता था बहुत भारी, क्योंकि सारा ज्ञान अनुभव से उपलब्ध होता था। और ज्ञान थिर था, हजारों साल तक उसमें कोई बदलाहट नहीं होती थी। इसलिए शिक्षक बिलकुल आश्वस्त था। वह जरा भयभीत न था।
वह बिलकुल मजबूती से जो कहता था, उसे जानता था कि वह ठीक है, कल भी ठीक था, कल भी ठीक रहेगा। हजारों साल से बातें ठीक थीं, अपनी जगह ठहरी हुई थीं।
इधर पिछले सौ वर्षों में सब अस्त-व्यस्त हो गया है। वह शिक्षक का आश्वस्त रूप भी विदा हो जाएगा, हो ही गया है। आज वह जोर से नहीं कह सकता कि जो वह कह रहा है, वह ठीक ही है, क्योंकि बहुत डर तो यह है कि पंद्रह वर्ष पहले जब वह विश्वविद्यालय से पास होकर निकला था।।
तब जिसे ज्ञान समझा जाता था, पंद्रह साल में वह सब आउट आफ डेट हो गया, वह सब समय के बाहर हो गया है। उसमें से कुछ भी अब ज्ञान नहीं है।
आज शिक्षक और विद्यार्थी के बीच अक्सर तो एक घंटे का फासला होता है। वह एक घंटे पहले तैयार करके आता है, एक घंटे बाद विद्यार्थी भी उतनी बातें जान लेता है। जहां इतना कम फासला होगा तो वहां बहुत ज्यादा आदर नहीं मांगा जा सकता। आदर फासले से पैदा होता है।
सम्मान दूरी से पैदा होता है। कोई शिखर पर खड़ा है और हम भूमि पर खड़े हैं, तब सम्मान पैदा होता है। लेकिन जरा सा आगे कोई खड़ा है, और थोड़ी देर बाद हम भी उतने करीब पहुंच जाएंगे। पहले हमेशा ऐसा होता था ।।
कि बाप बेटे से ज्यादा ज्ञानी होता ही था, क्योंकि अनुभव से ही ज्ञान मिलता था। एक आदमी अस्सी साल जी लिया था तो उसके पास ज्ञान होता था। लेकिन आज हालत बहुत बदल गई है।
आज उम्र से ज्ञान का कोई संबंध नहीं रह गया है।
संभावना तो इस बात की है कि बेटा बाप से ज्यादा जान ले, क्योंकि बाप का जानना कहीं रुक गया होगा और बेटा अभी भी जान रहा है। और जो बाप ने जाना था वह सब जाना हुआ बदल गया है। अब नये जानने के बहुत से नये तथ्य सामने आ गए हैं। यह तथ्यों का एक्सप्लोजन इतनी तेजी से हुआ है।।
कि बाप के भी पैर हिल गए हैं और उसके साथ शिक्षक के भी पैर हिल गए हैं। वे आश्वस्त नहीं रह गए हैं। और अब आज कोई सिर्फ उम्र के कारण, या आगे होने के कारण, या पहले जन्मे होने के कारण किसी बात को थोपना चाहेगा तो थोपना मुश्किल है। इसलिए आधुनिक शिक्षक को बहुत विनम्र होना पड़ेगा