मूर्ति पूजा का अद्भुत रहस्य और अमूर्त में प्रवेश “ओशो”

 मूर्ति पूजा का अद्भुत रहस्य और अमूर्त में प्रवेश “ओशो”

ओशो– डॉ. फ्रेंक रोडाल्फ ने अपना पूरा जीवन एक बहुत ही अनूठी प्रक्रिया की खोज में लगाया। उस प्रक्रिया के संबंध में थोड़ा आपसे कहूं तो मूर्ति-पूजा को समझना आसान हो जाएगा। पृथ्वी पर जितनी भी जंगली जातियां हैं, आदिवासी हैं, वे सब एक छोटे–से प्रयोग से सदा से परिचित रहे हैं। उस प्रयोग की खबरें कभी-कभी तथाकथित सभ्य लोगों तक भी पहुंच जाती हैं। रोडाल्फ ने उसी संबंध में अपना पूरा जीवन लगाया और जिस नतीजों पर वह खोजी पहुंचा है वे बड़े अदभुत हैं।

आदिवासियों में प्रचलित है यह बात कि किसी भी व्यक्ति की मिट्टी की प्रतिमा बनाकर उस व्यक्ति को कोई भी बीमारी भेजी जा सकती है। बीमारी ही नहीं, उसकी मृत्यु भी उसे भेजी जा सकती है। फ्रेंक रोडाल्फ ने अपने जीवन के तीस वर्ष इस खोज में लगाए कि इस बात में कितनी सच्चाई है। क्या यह हो सकता है कि एक व्यक्ति की मिट्टी की प्रतिमा बनायी जाए और उसे कोई भी बीमारी भेजी जा सके? या उसकी मौत भी भेजी जा सके?

अत्यंत संदेह से भरा हुआ चित्त लेकर, वैज्ञानिक की बुद्धि लेकर यह व्यक्ति अमेजान के आदिवासियों के बीच वर्षों तक रहा, बड़ी कठिनाई में पड़ गया क्योंकि घटना को सैकड़ों बार आंखों के सामने घटते देखा। हजारों मील दूर भी वह व्यक्ति हो, तो भी उसकी मिट्टी की प्रतिमा बनाकर उस तक विशेष बीमारियां, और उसकी मौत भी भेजी जा सकती है! वर्षों के अध्ययन के बाद यह तय हो गया कि यह घटना घटती है। लेकिन कैसे घटती है, इसके पीछे राज क्या है, इसके पीछे प्रक्रिया क्या है?

रोडाल्फ ने लिखा है कि प्रक्रिया के संबंध में जो बातें मुझे पता चल सकी हैं और जिन पर मैंने स्वयं प्रयोग करके देख लिया है, वे तीन हैं–एक, मिट्टी की प्रतिमा जरूरी नहीं है कि उस व्यक्ति की शक्ल से बिलकुल मिलती-जुलती बने। बनाना भी कठिन है, अति मुश्किल है। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि उस शक्ल से मिले, महत्वपूर्ण यह है कि उस मिट्टी की प्रतिमा में उस व्यक्ति की शक्ल को प्रतिष्ठित किया जा सके। जैसे अगर कोई मिट्टी की प्रतिमा बनाए आपकी, तो वह तो कोई बहुत बड़ा मूर्तिकार हो तब आप की शक्ल से मिला पाए, तब भी पूरी न मिला पाए। एक साधारण आदमी मिट्टी की प्रतिमा आपकी बनाएगा, तो वह सिर्फ प्रतीक होगी। चेहरा तो नहीं होगा–सिर होगा, हाथ–पैर होंगे, एक दूर का प्रतीक भर होगा।

लेकिन रोडाल्फ का कहना है कि अगर वह व्यक्ति आंख बंद करके और आपकी पूरी की पूरी प्रतिमा को मन में पूरा स्मरण कर सके और उसको इस मिट्टी की प्रतिमा पर आरोपित कर सके, तो यह प्रतिमा आपका प्रतीक बनकर सक्रिय हो जाएगी। उसे प्रतिस्थापित करने की भी व्यवस्था है।

मैंने पीछे तिलक के संबंध में आपसे कहा कि आपके दोनों आंखों के बीच में, तीसरी आंख की संभावना के संबंध में योग का निष्कर्ष है। वह जो तीसरी आंख है आपकी, वह बहुत बड़ी आशा की शक्ति रखती है अपने में। रस्ता समझ सकते हैं कि बहुत बड़ा ट्रांसमिशन का केंद्र है। अगर आप अपने बेटे को या अपने नौकर को या किसी को कोई आशा देते हैं, बाप अपने बेटे को कहता है, फलां काम कर लाओ, और बेटा इनकार कर देता है तो आप थोड़ा प्रयोग करके देखना। अगर आप दोनों आंखों के बीच में अपने ध्यान को केंद्रित करके बेटे को कहें कि फलां काम कर लो, तब आप देखना कि दस में से नौ मौकों पर इनकार करना असंभव हो जाएगा। और इससे उल्टा करके आप देखना कि आंखों के बीच में ध्यान को केंद्रित मत करना, तो दस में से नौ मौकों पर इनकार करना संभव हो जाएगा।

अगर आप अपनी दोनों आंखों के बीच में ध्यान को केंद्रित करके कोई भी बात फेंकें तो वह साधारण शक्ति की नहीं, असाधारण शक्ति लेकर गतिमान हो जाती है। अगर किसी व्यक्ति की प्रतिमा को मन में रखकर, और उसकी छोटी प्रतिमा को ध्यान में लेकर आज्ञा के चक्र से, अगर गीली मिट्टी के बनाए हुए लोंदे पर फेंक दिया जाए, तो वह मिट्टी का लोंदा साधारण मिट्टी का लोंदा नहीं रह जाता, वह आप की आज्ञा से संक्रामित और आविष्ठ हो जाता है। और अगर उस मिट्टी की प्रतिमा के दोनों आंखों के बीच में आप ध्यान करके कोई भी बीमारी का स्मरण कर सकें, सिर्फ एक मिनट, तो वह व्यक्ति उस बीमारी से संक्रामित हो जाएगा। वह कितनी ही दूर हो, इसका कोई सवाल नहीं उठता। उसकी मृत्यु तक घटित हो सकती है।

रोडाल्फ ने अपने पूरे जीवन के अध्ययन के बाद यह लिखा है कि यह बात सुनने में हैरानी की लगती थी, लेकिन जब मैंने इसके प्रयोग देखे तो मैं चकित रह गया! वृक्षों की प्रतिमा बनाकर, आदिवासियों ने उसके सामने वृक्षों को तत्काल सूखने पर मजबूर कर दिया। वह वृक्ष, जो अभी हरा-भरा था, उसके पत्ते कुम्हला गए। वह वृक्ष जो अभी जीवित मालूम पड़ता था, मरने की प्रक्रिया पर रुग्ण हो गया। पानी डालते रहे, पानी सींचते रहे, किसी तरह का नुकसान वृक्ष को बाहर से नहीं पहुंचने दिया गया; लेकिन महीने भर में वृक्ष सूखकर नष्ट हो गया। जो वृक्ष पर हो सकता है, वह व्यक्ति पर भी हो सकता है।

रोडाल्फ की इस प्रक्रिया की इसलिए मैं बात करना चाहता हूं कि मूर्ति-पूजा भी इसी प्रक्रिया का एक एक विराट आयाम में प्रयोग है। अगर हम व्यक्तियों को बीमार कर सकते है, व्यक्तियों की मृत्यु ला सकते हैं तो कोई भी कारण नहीं है कि हम, जो व्यक्ति मृत्यु के पार जा चुके हैं, उनसे पुन: संबंध स्थापित कर सकें। और कोई कारण नहीं है कि इस जगत में जो विराट व्याप्त है उस विराट के निकट पहुंचने के लिए हम कोई छलांग मूर्ति से ले सकें!

मूर्ति-पूजा का सारा आधार इस बात पर है कि आपके मस्तिष्क में और विराट परमात्मा के मस्तिष्क में संबंध हैं। दोनों के संबंध को जोड़नेवाला बीच में एक सेतु चाहिए। संबंधित हैं आप, सिर्फ एक सेतु चाहिए। वह सेतु निर्मित हो सकता है, उसके निर्माण का प्रयोग ही मूर्ति है। और निश्‍चित ही वह सेतु निर्मित ही होगा, क्योंकि आप अमूर्त से सीधा कोई संबंध स्थापित न कर पाएंगे, आपको अमूर्त का तो कोई पता ही नहीं है। चाहे कोई कितनी ही बात करता हो निराकार परमात्मा की, अमूर्त परमात्‍मा की, वह बात ही रह जाती है, आपको कुछ खयाल में नहीं आता।

असल में आपके मस्तिष्क के पास जितने अनुभव हैं वे सभी मूर्त के अनुभव हैं, आकार के अनुभव हैं। निराकार का आपको एक भी अनुभव नहीं है। और जिसका कोई भी अनुभव नहीं है उस संबंध में कोई भी शब्द आपको कोई स्मरण न दिला पाएगा। और निराकार की बात आप करते रहेंगे और आकार में जीते रहेंगे। अगर उस निराकार से कोई भी संबंध स्थापित करना हो, तो कोई ऐसी चीज बनानी पड़ेगी जो एक तरफ से आकारवाली हो और दूसरी तरफ से निराकारवाली हो। यही मूर्ति का रहस्य है।

इसे मैं फिर से समझा दूं आपको। कोई ऐसा सेतु बनाना पड़ेगा जो हमारी तरफ आकारवाला हो, परमात्मा की तरफ निराकार हो जाए। हम जहां खड़े हैं वहां उसका एक छोर तो मूर्त हो, और जहां परमात्‍मा है–दूसरा छोर, उसका अमूर्त हो जाए, तो ही सेतु बन सकता है। अगर वह मूर्ति बिलकुल मूर्ति है तो फिर सेतु नहीं बनेगा, अगर वह मूर्ति बिलकुल अमूर्त है तो भी सेतु नहीं बनेगा। मूर्ति को दोहरा काम करना पड़ेगा। हम जहां खड़े हैं वहां उसका छोर दिखायी पड़े, और जहां परमात्मा है वहां निराकार में खो जाए। इसलिए यह मूर्ति–पूजा शब्द बहुत अदभुत है, और जो अर्थ मैं आपसे कहूंगा, वह आपके खयाल में कभी भी नहीं आया होगा।

अगर मैं ऐसा कहूं कि मूर्ति–पूजा शब्द बड़ा गलत है, तो आपको बड़ी कठिनाई होगी। असल में मूर्ति-पूजा शब्द बिलकुल ही गलत है। गलत इसलिए है कि जो व्यक्ति पूजा करना जानता है, उसके लिए मूर्ति मिट जाती है। और जिसके लिए मूर्ति दिखायी पड़ती है उसने कभी पूजा की नहीं है, उसे पूजा का कोई पता नहीं है। और मूर्ति-पूजा शब्द में हम दो शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं–एक पूजा का और एक मूर्ति का। ये दोनों एक ही व्यक्ति के अनुभव में कभी नहीं आते। इसमें मूर्ति शब्द तो उन लोगों का है जिन्होंने कभी पूजा नहीं की; और पूजा उनका है जिन्होंने कभी मूर्ति नहीं देखी।

अगर इसे और दूसरी तरह से कहा जाए तो ऐसा कहा जा सकता है कि पूजा, जो है वह मूर्ति को मिटाने की कला है। वह जो मूर्ति है, आकारवाली, उसको मिटाने की कला का नाम पूजा है। उसके मूर्त हिस्से को गिराते जाना है, गिराते जाना है! थोड़ी ही देर में वह अमूर्त हो जाती हैं। थोडी ही देर में इस तरफ जो मूर्त हिस्सा था; वहाँ से शुरुआत होती है पूजा की और जब पूजा पकड़ लेती है साधक को तो थोड़ी ही देर में वह छोर खो जाता है और अमूर्त प्रगट हो जाता है।

मूर्ति-पूजा शब्द ‘सेल्फ कंट्राडिक्टरी’ है। इसलिए जो पूजा करता है, वह हैरान होता है कि मूर्ति कहां है? और जिसने कभी पूजा नहीं की वह कहता है कि इस पत्थर को रखकर क्या होगा? इस मूर्ति को रखकर क्या होगा? यह दो तरह के लोगों के अनुभव हैं, जिनका कहीं तालमेल नहीं हुआ। और इसलिए दुनिया में बड़ी तकलीफें हुईं।

आप मंदिर के पास से गुजरेंगे तो मूर्ति दिखायी पड़ेगी, क्योंकि पूजा के पास से गुजरना आसान नहीं है। तो आप कहेंगे कि पत्थर की मूर्तियों से क्या होगा? लेकिन जो उस मंदिर के भीतर कोई एक मीरा अपनी पूजा में लीन हो गयी है, उसके लिए वहां कोई मूर्ति नहीं बची। पूजा घटित होती है मूर्ति विदा हो जाती है। मूर्ति सिर्फ प्रारंभ है। जैसे ही पूजा शुरू होती है, मूर्ति खो जाती है। वह जो हमें दिखायी पड़ती है वह इसीलिए दिखायी पड़ती है कि हमें पूजा का कोई पता नहीं है।

और दुनिया में जैसे-जैसे पूजा कम होती जाएगी, वैसे-वैसे मूर्तियां बहुत दिखायी पड़ेगी, और जब बहुत मूर्तियां दिखायी पड़ेंगी, तो पूजा कम हो जाएगी और मूर्तियो को हटाना पड़ेगा, क्योंकि इन पत्थरों को रख कर क्या करिएगा? उनका कोई प्रयोजन नहीं है। साधारणत: लोग सोचते हैं कि जितना पुराना आदमी होता है, जितना आदिम, उतना मूर्तिपूजक होता है।

जितना आदमी बुद्धिमान होता चला जाता है, उतना मूर्ति को छोड़ता चला जाता है। सच नहीं है यह बात। असल में पूजा का अपना विज्ञान है। वह जितना ही हम उससे अपरिचित होते चले जाते हैं, उतनी ही कठिनाई होती चली जाती है।
इस संबंध में एक बात और आपको कह देना उचित होगा। हमारी यह दृष्टि नितांत ही भ्रांत और गलत है की आदमी ने सभी दिशाओं में विकास कर लिया है, इवोल्‍यूशन हो गया है।

जब हम कहते है विकास तो उससे सा भ्रम पैदा होता है किस भी दिशाओं में विकास हो गया होगा, इवोल्‍यूशन हो गया होगा। आदमी की जिंदगी इतनी बड़ी चीज है, अगर आप एकाध चीज में विकास कर लेते हैं तो आपको पता ही नहीं चलता कि आप किसी दूसरी चीज में पीछे छूट जाते हैं।

अगर आज विज्ञान पूरी तरह विकसित है, तो धर्म के मामले में हम बहुत पीछे छूट गए हैं। कभी धर्म विकसित होता है, तो विज्ञान के मामले में पीछे छूट जाते हैं। कभी ऐसा होता है कि एक आयाम में हम कुछ जान लेते हैं, तो दूसरे आयाम को भूल जाते हैं।

अट्ठारह सौ अस्सी में यूरोप में अलामीरा की गुफाएं मिलीं। उन गुफाओं में बीस हजार साल पुराने चित्र थे और रंग ऐसा कि जैसे कल सांझ को चित्रकार ने किया हो। डॉन मार्सिलानो, जिसने वह गुफाएं खोजी, उस पर सारे यूरोप में बदनामी हुई उसकी। लोगों ने यह शक किया कि अभी इसने पुतवाकर रंग तैयार करवा लिए हैं, अभी गुफा में रंग पोते गए हैं। और जो भी चित्रकार देखने गया उसी ने कहा कि यह मार्सिलानो की धोखाधड़ी है, इतने ताजे रंग पुराने तो हो ही नहीं सकते।

उन चित्रकारों का कहना भी ठीक ही था, क्योंकि वान गॉग के चित्र सौ साल पुराने नहीं हैं, लेकिन वे सब फीके पड़ गए हैं। और पिकासो ने अपनी जवानी में जो चित्र रंगे थे, उसके बूढ़े होने के साथ वे चित्र भी बूढ़े हो गए। आज सारी दुनिया के किसी भी कोने में, चित्रकार जिन रंगों का प्रयोग करते हैं, उनकी उम्र सौ साल से ज्यादा नहीं है। सौ साल में वे फीके हो ही जानेवाले है।

लेकिन जब मार्सिलानो की खोज पूरी तरह सिद्ध हुई, और उन गुफाओं का निर्णायक रूप से निष्कर्ष निकल गया कि वे बीस हजार साल से पुरानी हैं, तो बड़ी मुश्किल हो गई। क्योंकि जिन लोगों ने वे रंग बनाए होंगे, रंग बनाने के संबंध में वे हम से बहुत विकसित रहे होंगे। हम आज चांद पर पहुंच सकते हैं, लेकिन सौ साल से ज्‍यादा चलनेवाला रंग बनाने में हम अभी समर्थ नहीं हैं। यह थोड़ी हैरानी की बात मालूम पड़ती है। और बीस हजार साल पहले जिन लोगों ने वे रंग बनाए होंगे, वे कुछ कीमिया जानते थे, जिसका हमें आज बिलकुल पता नहीं है।

इजिप्‍ट की ममीज हैं, कोई दस हजार साल पुरानी! वह आदमी के शरीर हैं, वह जरा भी नहीं खराब हुए है, वह ऐसे ही रखे हैं, जैसे कल रखे गए हों। और आज तक भी राज नहीं खोला जा सका है कि किन रासायनिक द्रव्यों का उपयोग किया गया था जिससे कि लाशें इतनी सुरक्षित, दस हजार साल तक रह सकीं।

वैज्ञानिक कहते है, वह ठीक वैसी ही है, जैसे कल आदमी मरा हो। किसी तरह का डिटीरिओरेशन, किसी तरह का उनमें हास नहीं हुआ है। पर हम साफ नहीं कर पाए अभी तक, कि कौन से द्रव्यों का उपयोग हुआ है। इजिप्‍त के पिरामिडों पर जो पत्थर चढ़ाए गए हैं, अभी भी हमारे पास कोई क्रेन नहीं है जिनसे हम उन्हें चढ़ा सकें। आदमी के तो वश की बात ही नहीं है, लेकिन जिन लोगों ने वे पत्थर चढ़ाए थे उनके पास क्रेन रही होगी, इसकी संभावना कम मालूम होती है। तो जरूर उनके पास कोई और टेकनीक, कोई तरकीबें रही होंगी, जिनसे वह पत्थर चढ़ाए गए हैं और जिनका हमें कोई अंदाज नहीं है।

और जीवन के सत्य बहु–आयामी हैं। एक ही काम बहुत तरह से किया जा सकता है। और सी टेकनीक और बहुत सी विधियां हो सकती है। और फिर जीवन इतना बड़ा है कि जब हम एक दिशा में लग जाते हैं तब हम दूसरी दिशाओं को भूल जाते है।

मूर्ति बहुत विकसित लोगों ने पैदा की थी, यह सोचने जैसा है। क्योंकि मूर्ति का संबंध है, वह जो काज्मिक फोर्स है, हमारे चारों तरफ, जो ब्रह्म शक्ति है, उससे संबंधित होने का सेतु है। जिन लोगों ने भी निर्मित विकसित। ही होगी, उन लोगों ने जीवन के परम रहस्य के प्रति सेतु बनाया था

हम कहते हैं कि हमने बिजली खोज ली है। निश्‍चित ही हम उन कौमों से ज्यादा सभ्य हैं जो बिजली नहीं खोज सकीं। निश्‍चित ही हमने रेडियो वेब्ज खोज लिए हैं और हम क्षणों में एक खबर को दूसरे मुल्क में पहुंचा पाते हैं। निश्‍चित ही जो लोग सिर्फ अपनी आवाज पर निर्भर करते हैं और चिल्लाकर फर्लांग दो फर्लांग तक आवाज पहुंचा पाते हैं, उनसे हम ज्यादा विकसित हैं।

लेकिन जिन लोगों ने जीवन की परम सत्ता के साथ संबंध जोड़ने का सेतु खोज लिया था, उनके सामने हम बहुत बच्चे हैं। हमारी बिजली, और हमारा रेडियो और हमारे अन्य आविष्कार सब खिलौने हैं। जीवन के परम रहस्य से जुड़ने की जो कला है, उसकी खोज, किसी एक दिशा में जिन लोगों ने बहुत मेहनत की थी, उसका परिणाम थी।

मूर्ति का प्रयोजन है हमारी तरफ, मनुष्य की तरफ आकार हो उसमें, और उस आकार में से कहीं एक द्वार खुलता हो जो निराकार में ले जाता हो। जैसे मेरे घर की खिड़की है, घर की खिड़की तो आकारवाली ही होगी। जब घर ही आकारवाला है, तब खिड़की निराकार नहीं हो सकती। लेकिन खिड़की खोलकर जब आकाश में झांकने कोई जाए तो निराकार में प्रवेश हो जाता है। और अगर मैं किसी को कहूं कि मैं अपने घर की खिड़की को खोलकर निराकार के दर्शन कर लेता हूं और अगर उस आदमी ने कभी खिड़की से झांककर आकाश को न देखा हो तो वह कहेगा, कैसी पागलपन की बात है! इतनी छोटी–सी खिड़की से निराकार का दर्शन कैसे होता होगा? इतनी छोटी–सी खिड़की से जिसका दर्शन होता होगा वह ज्यादा से ज्यादा खिड़की के बराबर ही हो सकता है, उससे बड़ा कैसे होगा? उसकी बात तर्कयुक्त है। अगर उसने खिड़की से झांककर कभी आकाश नहीं देखा है तो उसको राजी करना कठिन होगा। हम उसे समझा न पायेंगे कि छोटी-सी खिड़की भी निराकार आकाश में खुल सकती है। खिड़की का कोई बंधन उस पर नहीं लगता, जिस पर वह खुलती है।

मूर्ति का कोई बंधन अमूर्ति के ऊपर नहीं है, मूर्ति तो सिर्फ द्वार बन जाती है अमूर्त के लिए। इसलिए जिन लोगों ने भी समझा कि मूर्ति, अमूर्त के लिए बाधा है उन्होंने दुनिया में बड़ी नासमझी पैदा करवाई। और जिन्होंने यह सोचा कि हम खिड़की को तोड़कर आकाश को तोड़ देंगे, वह तो फिर निपट ही पागल हैं। मूर्ति को तोड़कर हम अमूर्त को तोड़ देंगे, तो फिर उनके पागलपन का कोई हिसाब ही नहीं! लेकिन मूर्ति को तोड़ने का खयाल उठेगा, अगर पूजा की कला और कीमिया का पता न हो।

दूसरी बात, पूजा कुछ ऐसी चीज है, सब्जेक्टिव, आंतरिक, निजी कि उसकी कोई अभिव्यक्ति और कोई प्रदर्शन नहीं हो सकता। जो भी निजी है इस जगत में, और आंतरिक है, उसका कोई प्रदर्शन संभव नहीं है। मेरे हृदय को काटकर…जा सकता है तो प्रेम उसमें नहीं मिलेगा, क्रोध भी नहीं मिलेगा, घृणा भी नहीं मिलेगी क्षमा भी नहीं ”करुणा भी नहीं मिलेगी। फेफड़ा मिलेगा, सिर्फ फुफुस मिलेगा, जो हवा को पंप करने का काम करता है।

और अगर आपरेशन की टेबल पर रखकर मेरे हृदय की सब जांच पड़ताल करके डाक्टर यह सर्टिफिकेट दे दें कि इस आदमी ने कभी प्रेम का अनुभव नहीं किया, घृणा का अनुभव नहीं किया, क्योंकि हमने आपरेशन की टेबल पर सब जांच पड़ताल कर ली है, सिवाय हवा को फेंकने के पंप के और कुछ भी नहीं है भीतर, तो क्या मेरे पास कोई उपाय होगा कि मैं सिद्ध कर सकूं कि मैंने प्रेम किया? या मेरी बात यह टेबल के आस-पास खड़े हुए डाक्टर मानने को राजी होंगे? कठिन है मामला!

डाक्टर इतना ही कह सकते हैं कि आपको भ्रम पैदा हुआ होगा। मैं उनसे यह जरूर पूछ सकता हूं कि आपको कभी प्रेम और घृणा का अनुभव हुआ है? अगर वे तर्कयुक्त है तो वे कहेंगे कि हमें भी इस तरह के भ्रम हुए है, श्रम, इल्‍यूजंस हुए हैं। बाकी टेबल पर जो रखा है वह वास्तविक तथ्य है। यहां सिर्फ हवा को फेंकने का फुफुस है भीतर, हृदय जैसी कोई भी चीज नहीं है।

आंख का आपरेशन करके सारा उपाय कर लिया जाए तो भी इसका कोई पता नहीं चलता कि भीतर सपने देखे गए होंगे। अगर हम एक आदमी की आंख का पूरा यंत्र खोलकर टेबल पर रख लें, तो भी हमें अनंतकाल तक खोज करने पर भी इसका पता नहीं चलेगा कि इस आंख ने रात को बंद हालत में कोई सपने भी देखे होंगे। लेकिन हम सबने सपने देखे हैं। उन सपनों का अस्तित्व कहां है? या तो हमने झूठे सपने देखे, लेकिन झूठे सपने…।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३

मैं कहता आंखन देखी–प्रवचन–08