ध्यान की खोज अपने भीतर सारथी की खोज है, अर्जुन बनो तो कृष्ण की गीता तो सदा तुममें जन्म लेने को तत्पर है “ओशो”

 ध्यान की खोज अपने भीतर सारथी की खोज है, अर्जुन बनो तो कृष्ण की गीता तो सदा तुममें जन्म लेने को तत्पर है “ओशो”

ओशो- मीठी कथा है महाभारत में कि युद्ध के पूर्व अर्जुन, दुर्योधन अपने सभी मित्रों, सगे —संबंधियों के घर गए प्रार्थना करने कि युद्ध में हमारी तरफ से सम्मिलित होना। सभी नाते—रिश्तेदार थे, सभी जुड़े थे, गृहयुद्ध था। अर्जुन भी पहुंचा कृष्ण के पास; दुर्योधन भी पहुंचा। दोनों एक ही समय पहुंच गए।

दोनों सदा ही एक समय पहुंचते हैं तुम्हारे भीतर भी। तुम्हारी बुराई और तुम्हारी भलाई सदा साथ—साथ खडी हैं। तुम्हारा असत रूप, तुम्हारा सत रूप सदा साथ—साथ खड़ा है। दोनों तुम्हीं से तो ऊर्जा लेते हैं; दोनों की शक्ति तो तुम्हीं हो; दोनों तुम्हीं से तो मांगते हैं और सदा साथ—साथ मांगते हैं।

जब भी तुम चोरी करने जाते हो, तब भी तुम्हारे भीतर का अचोर कहता है, मत करो। जब तुम झूठ बोलते हो, तुम्हारे भीतर वह स्वर भी रहता है, जो कहता है, नहीं, उचित नहीं है। जब तुम सत्य बोलते होते हो, तब भी कोई भीतर से कहता है कि लाभ न होगा, हानि होगी। जरा—सा झूठ बोल लेने में हर्ज भी क्या है? जीवन में थोड़ा—बहुत तो चलता ही है, ऐसे बिलकुल संन्यासी होकर तो लुट जाओगे। जब नहीं चोरी करते हो, तब भी मन कहता है कि क्या कर रहे हो? चूके जा रहे हो। उठा लो! कोई देखने वाला भी नहीं है। और चोरी तो तभी चोरी है, जब पकड़ी जाए। यहां तो पकड़े जाने का कोई उपाय भी नहीं दिखता, कोई है भी नहीं आस—पास; उठा लो। चोर और अचोर साथ—साथ हैं; झूठ और सच साथ—साथ हैं।

अर्जुन और दुर्योधन साथ—साथ पहुंच गए हैं कृष्ण के पास। लेकिन स्वभावत: दोनों के पहुंचने में बुनियादी फर्क है। वही फर्क निर्णायक हो गया।

दुर्योधन तो बैठ गया सिर के पास। कृष्ण सोए थे; दोपहर का वक्त होगा, विश्राम करते होंगे। विश्राम में खलल देना उचित नहीं। दुर्योधन तो बैठ गया जाकर सिरहाने के पास, अर्जुन बैठ गया पैर के पास।

वहीं निर्णय हो गया। उस क्षण में सारी गीता का निर्णय हो गया। उस क्षण में सारा महाभारत जीत लिया गया, हार लिया गया। उसके बाद तो विस्तार है। बीज तो घट गया। अर्जुन के पैरों के पास बैठने में बीज घट गया।

अगर तुम्हें अपने साक्षी को खोजना है, तो विनम्र होना पड़ेगा। तुम्हें अगर अपने सारथी को खोजना है, तो विनम्र होना पड़ेगा। क्योंकि अहंकार ही तो धुंआ पैदा करता है और देखने नहीं देता। अहंकार ही तो अटकाता है, उलझाता है। अहंकार ही तो परदा बन जाता है सख्त।

दुर्योधन कैसे बैठ सकता है पैरों में? दुर्योधन! बात ही पैर में बैठने की उसके मन में न उठी होगी। वह सहज अपने स्वभाववश ही जाकर सिर के पास बैठ गया।

अहंकार सदा सिर के पास है। और जहां अहंकार है, वहीं चूक हो जाती है। फिर तुम अपने सारथी से नहीं मिल पाते। फिर सब मिल जाएगा, सारथी न मिलेगा।

अर्जुन बैठा है पैर के पास। वह विनम्र निवेदन है, वह निरअहंकार भाव है। साक्षी मिल ही जाएगा।

कृष्ण की आंख खुली। कथा कहती है, स्वभावत: पहले अर्जुन दिखाई पड़ा।

विनम्र पर आंख पड़ेगी साक्षी की, अहंकारी पर आंख नहीं पडेगी। अहंकारी तो अपने में ऐसा अकड़ा है, वह तो सिर के पीछे बैठा है। वह सम्राट होकर बैठा है; वह कृष्ण से बडा होकर बैठा है, वह कृष्ण से ऊपर बैठा है।

तुम्हारा अहंकार रथ में सवार है। और सारथी से इतने ऊपर बैठ गया है कि सारथी भी अगर देखना चाहे, तो तुम दिखाई न पड़ोगे। और तुम तो अंधे हो, इसीलिए तुम सिर के पास बैठे हो। अगर थोड़ी भी आंख होती, तो तुम पैर पकड़ लिए होते, तुम पैर के पास बैठे होता।

वहीं युद्ध जीत लिया गया। निर्णय तो सब हो ही गया उसी क्षण। फिर तो बाकी विस्तार की बातें हैं, वे छोड़ी भी जा सकती हैं। जो जानते हैं, उनके लिए कथा पूरी हो गई।

अर्जुन पर आंख पड़ी, तो कृष्ण ने स्वभावत: पूछा, कैसे आए? जिस पर आंख पड़ी, उससे पहले पूछा। तत्क्षण दुर्योधन बोला, मैं भी साथ ही आया हूं। मुझे न भूल जाएं; मैं भी यहां मौजूद हूं। अहंकार को बतलाना पड़ता है कि मैं मौजूद हूं। विनम्र, पता ही चल जाता है कि मौजूद है। और जब बतलाना पड़े, तो शोभा चली जाती है।

तो कृष्ण ने कहा, ठीक, तुम दोनों साथ ही आए हो। लेकिन मेरी। नजर अर्जुन पर पहले पड़ी, इसलिए पहले स्वभावत: मैं उससे पूछूंगा, कैसे आए हो? क्या मांगने आए हो?

दुर्योधन डरा, भयभीत हुआ। यह तो गलती हो गई। गलती इसलिए नहीं कि मैंने विनम्रता न दिखाई, गलती इसलिए हो गई कि यह तो लाभ का क्षण चूक गया।

अगर कभी अहंकारी विनम्र भी होना चाहता है, तो लोभ के कारण। विनम्रता उसका आधार नहीं होती। अगर अहंकारी कभी अक्रोधी भी होना चाहता है, तो कारण निरअंहकारिता या अक्रोध नहीं होता, कारण कुछ और ही होते हैं—लोभ, पद, प्रतिष्ठा, वासना, महत्वाकांक्षा।

डरा कि यह तो मुश्किल हो जाएगी। अर्जुन ने कहा कि मैं भी उसी लिए आया हूं; दुर्योधन भी उसी लिए आया है। हम मांगने आए हैं आपकी सहायता। युद्ध टाला नहीं जा सकता; युद्ध होकर रहेगा। हम प्रार्थना करने आए हैं कि हमारे साथ हों।

कृष्ण ने कहा, तुम दोनों आए हो, तो एक ही उपाय है कि एक मेरी फौजों को मांग ले और एक मुझे।

दुर्योधन कैप गया होगा कि अर्जुन निश्चित फौजों को मांग लेगा। क्योंकि कृष्ण को लेकर क्या करेंगे? इस अकेले को क्या करेंगे? खाएंगे कि पीएंगे? इस अकेले का मूल्य क्या है? विराट फौजें हैं इसकी! और पहला मौका अर्जुन को मिला है, मैं गया। यह तो बाजी चूक गया। अच्छा हुआ होता, चरणों में बैठ गया होता; अच्छा हुआ होता, चरण पकड़ लिए होते।

चौंका होगा दुर्योधन भी, जब अर्जुन ने निर्णय दिया। अर्जुन ने कहा कि अगर यही निर्णय है, तो मैं आपको मांग लेता हूं। छाती फूल गई होगी दुर्योधन की। सोचा होगा, ये मूढ़ ही रहे पांडव। अहंकारियों को विनम्र व्यक्ति मूढ़ ही मालूम पड़ते हैं। अज्ञानियों को ज्ञानी पागल मालूम पड़ते हैं। नासमझों को समझदार नासमझ मालूम पड़ते हैं। रोगियों को स्वस्थ लगता है कि कुछ महारोग से पीड़ित हैं। पीलिया के मरीज को सभी कुछ पीला दिखाई पड़ने लगता है। बहुत बुखार के बाद उठे आदमी को स्वादिष्ट से स्वादिष्ट भोजन भी तिक्त मालूम पड़ते हैं, स्वाद नहीं मालूम पड़ता; मिठाई में भी मिठास नहीं मालूम पड़ती।

दुर्योधन हंसा होगा, प्रसन्न हुआ होगा; हाथ में आई बाजी यह मूढ़ अर्जुन फिर हार गया! ऐसे ही ये सदा हारते रहे हैं। ऐसे ही वहां हारे थे, जब शकुनि ने दाव फेंके। ऐसे ही फिर हार गए। वहां तो मेरी चालाकी से हारे थे। यहां अपनी ही बुद्धिहीनता से हार गए। ये हारने को ही हैं; इनकी विजय का कोई उपाय नहीं। ऐसा शुभ अवसर चूक गया! मांग लेता फौजों को, कृष्ण को लेकर क्या करेगा? एक कृष्ण, अकेला कृष्ण किस मूल्य का है!

लेकिन यहीं निर्णय हो गया। एक कृष्ण एक तरफ, सारा संसार दूसरी तरफ, तो भी एक कृष्ण चुनने जैसा है। एक चुनने जैसा है। इक साधे सब सधे, सब साधे सब जाए। एक को पकड़कर अर्जुन जीत गया।

लेकिन यह कोई जीतने के लिए एक को नहीं पकड़ा था, यह खयाल रखना। नहीं तो भूल हो जाएगी। तब तो फिर दुर्योधन और अर्जुन के गणित में कोई फर्क न रह जाएगा। यह जीतने के लिए एक को नहीं पकड़ा था। एक को पकड़ने के कारण जीत गया, यह बात और है। अपनी बुद्धि से भी पूछा होता, तो खुद की बुद्धि भी कहती कि चुन लो फौज—फाटा, वहां शक्ति है। लेकिन जो समझदार है, वह शक्ति नहीं चुनता, शांति चुनता है।

कृष्ण को चुनकर अर्जुन ने शांति चुन ली, साक्षी— भाव चुन लिया, बोध चुन लिया, बुद्धत्व चुन लिया। वही वक्त पर काम आया। अंधी फौजें, अंधी ऊर्जा को चुनकर दुर्योधन ने क्या पाया? नौकर—चाकर इकट्ठे कर लिए; मालिक खो गया।

तुम भी जीवन में ध्यान रखना, क्योंकि सौ में निन्यानबे मौके पर मैं भी देखता हूं कि तुम भी दुर्योधन के गणित से ही सोचते हो। फौज—फाटा चुनते हो। एक को छोड़ देते हो। रोज वही घटना घट रही है। वह एक तुम्हारे भीतर छिपा तुम्हारा विवेक है, उसे तुम छोड़ देते हो। कभी धन चुनते हो, कभी मकान चुनते हो, कभी पद चुनते हो, प्रतिष्ठा चुनते हो, हजार चीजें चुनते हो, फौज—फांटा। और एक को छोड़ देते हो।

तुम सोचते भी हो, उस एक में रखा भी क्या है! इतना विस्तार है संसार का, इसे पा लो। इतना बड़ा साम्राज्य है, उस एक को पाकर करोगे भी क्या? होगी आत्मा, होगी विवेक की अवस्था, होगा ध्यान, होगी समाधि, लेकिन एक ही है। और इतना विराट संसार पड़ा है अभी जीतने को; पहले इसे कर लो। फिर उस एक को देख लेंगे।

अगर तुम्हारे सामने यह सवाल उठे कि तुम एक परमात्मा को चुन लो या सारे संसार को, तुम क्या करोगे? सौ में निन्यानबे मौके पर तुम वही करोगे, जो दुर्योधन ने किया; और तुम प्रसन्न होओगे। वहीं तुम करते रहे हो। करोगे, यह कहना ही गलत है। तुम कर ही रहे हो।

लेकिन अर्जुन धन्यभागी हुआ। कृष्ण को पाकर सब पा लिया। मालिक को पा लिया, स्वामी को पा लिया। नौकर—चाकरों का क्या हिसाब है? घोड़े—रथों की क्या कीमत है? और वक्त पर यही एक काम आया। वक्त पर सदा एक काम आता है।

युद्ध के सघन मैदान में, जब अर्जुन के प्राण कंपने लगे, होश खोने लगा, गांडीव थरथराने लगा, पैर के नीचे की जमीन खिसक गई, कुछ सूझ न पड़े, सब तरफ अंधेरा हो गया। एक क्षण में सब शुरू हो जाने को है, योद्धा तत्पर हो गए, शंखनाद होने लगे, अर्जुन की प्रतीक्षा होने लगी कि देर क्यों हो रही है! और उसके गात शिथिल हो गए, उसका गांडीव मुरदा हो गया, उसकी ऊर्जा जैसे कहीं खो गई। अचानक उसने अपने को असहाय पाया। और इस क्षण में उस एक से ही ज्योति मिली। इस एक क्षण में वही सारथी काम आया।

खोजो भीतर, कौन है सारथी? ध्यान की खोज सारथी की खोज है। कौन है, जो तुम्हें वस्तुत: चलाता है? वही सारथी है। कौन है असली मालिक? अहंकार! तो तुम सिर के पास बैठे दुर्योधन हो। विवेक! तो तुम पैर के पास बैठे अर्जुन हो। वही काम आएगा जीवन के सघन युद्ध में।

अर्जुन बनो, तो कृष्ण की गीता तो सदा तुममें जन्म लेने को तत्पर है। तुम जरा गर्भ दो, तुम जरा जगह दो। तो जैसी गीता अर्जुन को मिली, वैसी ही तुम्हें भी मिल सकती है।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३

“गीता दर्शन”