ओशो– रामकृष्ण ने अपने जीवन में पांच —सात धर्मों की साधनाएं कीं। उनको यह खयाल आया कि सभी धर्म एक ही जगह पहुंचा देते हैं, तो मैं सभी रास्तों पर चलकर देखूं कि वहां पहुंचा देते हैं कि नहीं पहुंचा देते हैं।
तो उन्होंने ईसाइयत की साधना की, उन्होंने सूफियों की साधना की, उन्होंने वैष्णवों की साधना की, उन्होंने शैवों की साधना की तांत्रिकों की साधना की।
जो भी उन्हें उपलब्ध हो सकी साधना, वह उन्होंने की। एक बहुत अदभुत घटना तो तब घटी….. क्योंकि ये सारी साधनाएं तो आंतरिक थीं, बाहर से पता नहीं चल सका। रामकृष्ण कहते थे तो ठीक था।
जब रामकृष्ण सूफियों की साधना करते थे, तब हम कैसे बाहर से जानें कि उनके भीतर क्या हो रहा है।
लेकिन फिर एक ऐसी साधना की पद्धति से वे गुजरे कि बाहर के लोगों को भी देखना पड़ा कि कुछ हो रहा है।
बंगाल में एक सखी—संप्रदाय है, जिसका साधक अपने को कृष्ण की प्रेयसी या पत्नी मानकर ही जीता है।
सखी ही हो जाता है। वह पुरुष है या स्त्री, यह सवाल नहीं है। पुरुष एक ही रह जाते हैं कृष्ण और साधक उनकी प्रेयसी होकर, उनकी राधा बनकर, उनकी सखी बनकर जीता है। छह महीने तक रामकृष्ण ने सखी—संप्रदाय की साधना की। और आश्चर्य तो यह हुआ कि उनकी आवाज स्त्रैण हो गई।
अगर वे दूर से बोलें, तो कोई भी न समझ पाए कि वे पुरुष हैं। उनकी चाल स्त्रैण हो गई।
असल में स्त्री और पुरुष एक जैसा चल ही नहीं सकते, क्योंकि हड्डियों के कुछ बुनियादी फर्क हैं, चर्बी का कुछ बुनियादी फर्क है।
स्त्री को चूंकि बच्चे को पेट में रखना है, इसलिए उसके पेट में एक विशेष जगह है, जो पुरुष के पास नहीं है। इसलिए उन दोनों की चाल में फर्क हो जाता है। उनके पैर अलग ढंग से पड़ते हैं।
कोई स्त्री कितना ही संभल कर चले, उसका चलना कभी पुरुष जैसा नहीं हो सकता। स्त्री कभी पुरुष जैसा नहीं दौड़ सकती। कोई उपाय नहीं है। उसके ढांचे का भेद है।
लेकिन रामकृष्ण स्त्रियों जैसा दौड़ने लगे, स्त्रियों जैसा चलने लगे, स्त्रियों जैसी आवाज हो गई।
यहां तक भी ठीक था कि कोई आदमी चाहे कोशिश करके स्त्रियों जैसा चलता हो, कोई आदमी कोशिश कर के स्त्रियों जैसा बोलता हो। लेकिन और भी हैरानी की बात हुई।
रामकृष्ण के स्तन बड़े हो गए और स्त्रैण हो गए। यहां तक भी बहुत मामला नहीं था, क्योंकि बहुत लोगों को वृद्धावस्था में स्तन बड़े हो जाते हैं, पुरुषों को भी।
लेकिन रामकृष्ण को मासिक धर्म शुरू हो गया, जो कि बहुत चमत्कार की घटना थी और नियमित स्त्रियों की भांति उसका वर्तुल चलने लगा। यह मेडिकल साइंस के लिए बहुत चिंतनीय घटना थी कि यह कैसे हो सकता है।
और रामकृष्ण ने छह महीने के बाद जब साधना छोड़ दी, तब भी उनके ऊपर कोई डेढ़ साल तक उसके असर रहे।
डेढ़ साल लग गया उसको वापस विदा होने में। संकल्प…… अगर रामकृष्ण ने पूरे मन से यह मान लिया कि मैं सखी हूं कृष्ण की तो व्यक्तित्व सखी का हो जाएगा।
यूरोप में बहुत—से ईसाई फकीर हैं जिनके हाथ पर स्टिगमैटा प्रकट होता है। स्टिगमैटा का मतलब है कि जीसस को जब सूली दी गई, तो उनके हाथों में खीले ठोंके गए। खीले ठोंकने से उनके हाथ से खून बहा। तो बहुत से फकीर हैं जो शुक्रवार को जिस दिन जीसस को सूली हुई उस दिन सुबह से ही जीसस के साथ अपने को आइडेटीफाई कर लेते हैं।
वे जीसस हो जाते हैं। ठीक सूली का क्षण आते — आते हजारों लोगों की भीड़ देखती रहती है। वे हाथ फैलाए खड़े रहते हैं। फिर उनके हाथ फैल जाते हैं जैसे सूली पर लटक गए हों। और हाथों में, जिनमें खीलें नहीं ठुके हैं, उनसे खून की धाराएं बहनी शुरू हो जाती हैं।
वे इतने संकल्प से जीसस हो गए हैं और सूली लग गई है। तो हाथ से छेद होकर खून बहने लगता है बिना किसी उपकरण के, बिना किसी छेद किए, बिना कोई खीला चुभाए।
मनुष्य के संकल्प की बड़ी संभावनाएं हैं। लेकिन हमें कुछ खयाल में नहीं है।
यह जो मृत्यु का स्वेच्छा से प्रयोग है, यह संकल्प का गहरा से गहरा प्रयोग है। क्योंकि साधारणत: जीवन के पक्ष में संकल्प करना कठिन नहीं है।
हम जीना ही चाहते हैं। मृत्यु के पक्ष में संकल्प करना बहुत कठिन बात है। लेकिन जिन्हें भी सच में ही जीने का पूरा अर्थ जानना हो, उन्हें एक बार मर कर जरूर देखना चाहिए।
क्योंकि बिना मर कर देखे वे कभी नहीं जान सकेंगे कि उनके पास कैसा जीवन है, जो नहीं मर सकता। उनके पास कुछ जीवन है जो अमृत की धारा है।
इसे जानने के लिए उन्हें मृत्यु के अनुभव से गुजरना जरूरी है। क्योंकि एक बार वे स्वेच्छा से मर कर देख लें, फिर दोबारा उन्हें मरने का भय नहीं रह जाएगा। फिर मृत्यु है ही नहीं।