जीवन की जो मौलिक समस्याएं हैं, उनके समाधान बासे नहीं होते; उनके समाधान उतने ही मौलिक होने चाहिए जितनी समस्याएं मौलिक हैं “ओशो”

 जीवन की जो मौलिक समस्याएं हैं, उनके समाधान बासे नहीं होते; उनके समाधान उतने ही मौलिक होने चाहिए जितनी समस्याएं मौलिक हैं “ओशो”

प्रश्न- मैं कौन हूं, मैं कहां से आया हूं और क्या मेरी नियति है?

ओशो– यह प्रश्न ऐसा नहीं कि कोई और तुम्हें इसका उत्तर दे सके। नहीं कि उत्तर नहीं दिए गए हैं। उत्तर दिए गए हैं। उत्तर दिए जा सकते हैं। पर वे व्यर्थ होंगे, अप्रासंगिक होंगे। यह तो प्रश्न अकेला प्रश्न है, जो इतना मूल्यवान है कि तुम्हें स्वयं ही इसका उत्तर खोजना पड़े, तो ही उत्तर पर भरोसा करना। उपनिषदों में उत्तर हैं, वेदों में उत्तर हैं, कुरान में, गीता में,बाइबिल में; उत्तरों ही उत्तरों से भरा हुआ है इतिहास, मगर वे उत्तर पराए हैं।

तुम पूछ रहे हो: “मैं कौन हूं?’
किससे पूछ रहे हो? यह प्रश्न तो अपने से ही पूछने योग्य है। यह प्रश्न तो मंत्र है। इस प्रश्न को लेकर तो भीतर डुबकी मारनी जरूरी है। जब तक तुम अपने चित्त को इतना शांत न कर लो कि चित्त दर्पण हो जाए, तब तक तुम्हें अपनी प्रतिछवि दिखाई नहीं पड़ेगी। और लाख उत्तर दिए जाएं, उधार होंगे। कोई कह दे कि तुम आत्मा हो, क्या होगा सार? सुन लोगे, समझोगे क्या खाक! कोई कह दे कि तुम परमात्मा हो, तो भी क्या होगा? कहा तो गया है बहुत बार। सुना भी तुमने बहुत बार। मगर जीवन जहां है, वहीं का वहीं है।

यह कोई सैद्धांतिक प्रश्न नहीं है। यह प्रश्न अस्तित्वगत है। यह प्रश्न कम है, तुम्हारे जीवन की मौलिक समस्या है। उत्तर नहीं चाहिए, समाधान चाहिए। और समाधान सिवाय समाधि के और कहीं नहीं है। इसीलिए तो समाधि को समाधि कहते हैं, क्योंकि उसमें समाधान है। मैं कहूंगा: तुम इसे ध्यान बनाओ। मत पूछो मुझसे। पूछो अपने से। रोज-रोज पूछो। जितना समय मिले,जितनी शक्ति जुटा सको, इस प्रश्न में लगाओ। राम-राम जपने से यह ज्यादा सार्थक है कि तुम अपने भीतर गहराइयों में गुंजाओ यह प्रश्न–मैं कौन हूं?

और जल्दी से किसी उत्तर से राजी मत हो जाना। क्योंकि मन बहुत चालबाज है, बहुत चालाक है, चतुर है। मन कहेगा: यह भी क्या बात! अरे साफ तो कृशण ने कहा है कि तुम कौन हो। साफ तो उपनिषद कहते हैं कि तुम कौन हो। और क्या होगी स्पशट बात? अहं ब्रह्मास्मि! मैं ब्रह्म हूं! उदघोषणा कर गए ऋषि-मुनि, जिन्होंने जाना; द्रशटा, जिन्होंने देखा। अब तुम क्यों सिर पचा रहे हो? तुम भी दोहराओ–अहं ब्रह्मास्मि!

और यही लोग कर रहे हैं, दोहरा रहे हैं। मगर जो उत्तर तुम्हारा नहीं है, वह दो कौड़ी का है। कितना ही कीमती मालूम पड़े,उसमें प्राण नहीं हैं, उसमें श्वास नहीं चलती, हृदय नहीं धड़कता।

अलहिल्लाज मंसूर ने कहा: अनलहक! मैं सत्य हूं! मगर क्या तुम्हारे काम का है यह उत्तर? मंसूर के काम का है। मंसूर ने जान कर कहा है। और तुम तो सिर्फ दोहराओगे।

ध्यान रखो, जीवन की जो मौलिक समस्याएं हैं, उनके समाधान बासे नहीं होते; उनके समाधान उतने ही मौलिक होने चाहिए जितनी समस्याएं मौलिक हैं। मत पूछो मुझसे। पूछो अपने से।

और तुम पूछते हो कि कहां से मेरा आना हुआ?
न कहीं से आए हो, न कहीं जा रहे हो। सदा से यहीं हो। आने-जाने की बात, आवागमन की बात सपना भर है। इस अस्तित्व में न तो कुछ आता है, न कुछ जाता है। वैज्ञानिक कहते हैं कि रेत के एक क्षण को भी हम मिटाना चाहें, नेस्तनाबूद करना चाहें,तो न कर सकेंगे। पानी की एक बूंद को भी नहीं मिटा सकते। रहेगी! ऐसे मिटा दोगे तो वैसे रहेगी। नहीं पानी की तरह रहेगी तो भाप की तरह रहेगी। नहीं भाप की तरह रहेगी तो बर्फ की तरह रहेगी। नहीं बर्फ की तरह रहने दोगे तो आक्सीजन-हाइड्रोजन की तरह रहेगी। मगर रहेगी। अस्तित्व को अनस्तित्व नहीं किया जा सकता। जो है, वह है; उसके नहीं होने का कोई उपाय नहीं है। और जो नहीं है, वह नहीं है; उसके होने का कोई उपाय नहीं है।

अस्तित्व न तो ज्यादा होता है, न कम; जितना है बस उतना है। जस का तस! न रत्ती भर बढ़ता है, न घटता है। लेकिन परिवर्तन बहुत होते मालूम होते हैं। लेकिन सब परिवर्तन संयोग के परिवर्तन हैं–इधर से उधर। जैसे कि तुम अपने बैठकखाने को जमा लो बार-बार; यह तस्वीर इस दीवाल से हटा कर दूसरी दीवाल पर टांग दी; और यह सोफा बाएं कोने से हटा कर दाएं कोने में रख दिया; और यह गुलदस्ता यूं सजाया था, अब यूं सजा दिया; अभी भारतीय ढंग से सजा था, अब जापानी ढंग से सजा दिया–बस ऐसे ही कुछ फर्क, जो कि फर्क नहीं हैं, केवल नये-नये संयोग हैं। सब पुराना है। सब वही का वही है। सब वैसे का वैसे है।

इसे स्मरण रखो: न तो तुम कहीं से आए हो, न कहीं जा रहे हो। महर्षि रमण के अंतिम क्षण थे। और किसी ने पूछा कि आप जा रहे हैं, आप हमें छोड़ कर जा रहे हैं, हमें अनाथ किए जा रहे हैं। रमण ने आंखें खोलीं और कहा: तुम पागल हुए हो! मैं जाऊंगा भी तो कहां जाऊंगा? जाने को जगह कहां है? यहीं हूं और यहीं रहूंगा। शरीर में नहीं तो शरीर के बाहर। घर में नहीं तो घर के बाहर। इधर नहीं तो उधर। मगर जाऊंगा कहां? जाने को जगह कहां है? न आया हूं, न जाऊंगा।

इसे ज्ञानियों ने आवागमन से मुक्ति कहा है–इस बोध को, कि न कुछ आना है, न कुछ जाना है। लेकिन सपने में हम बहुत आवाजाही कर रहे हैं। रात तुम सो गए, फिर रात भर सपनों में कहां-कहां आते हो, कहां-कहां जाते हो! और सुबह उठ कर अगर तुम पूछने लगो कि रात में चला गया था तिब्बत, कैसे गया? न ट्रेन पकड़ी, न हवाई जहाज पकड़ा, पहुंचा कैसे? फिर लौटा कैसे? तो तुम जिससे पूछोगे वह भी हंसेगा। वह भी कहेगा: पागल हो गए हो! न कहीं गए, न कहीं आए। सपना देखा था।

कोई सपना देख रहा है देह होने का। कोई सपना देख रहा है धनी होने का। कोई सपना देख रहा है त्यागी होने का। कोई सपना देख रहा है पापी होने का। कोई सपना देख रहा है पुण्यात्मा होने का। बस सपने ही सपने हैं। जिस दिन जागोगे ध्यान में, उस दिन पाओगे–न कहीं गए, न आए; सब आवाजाही मन की कल्पना थी। इसलिए न किन्हीं वाहनों की जरूरत थी, न यात्रा करनी पड़ी, न लौटने के लिए कोई आयोजन करना पड़ा।

☘️☘️ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३☘️☘️
कस्तूरी कुंडल बसै—दसवां प्रवचन