ओशो– जो हम कहें, वह जो हम सोचें, वही हमारे व्यक्तित्व में भी प्रतिफलित हो। हमारा व्यक्तित्व हमारे विपरीत न हो, एक लय हो, एक संगीत हो। कोई फिक्र नहीं कि क्या आप सोचते हैं। बड़ा सवाल यह नहीं कि क्या आप सोचें, बड़ा सवाल यह है कि जो आप सोचें और कहें, उसकी छाया आपके व्यक्तित्व में भी हो। या फिर जो आपके व्यक्तित्व में हो, वही आप कहें, वही आप सोचें।
एक चोर भी शील को उपलब्ध हो सकता है, लेकिन तब चोरी को नहीं छिपाएगा। और तब चोरी ही उसका विचार भी हो, चोरी ही उसका वचन भी हो और चोरी ही उसका कृत्य भी हो। और बड़े आश्चर्य की यह बात है कि चोर इतना लयबद्ध हो, तो चोरी अपने आप असंभव हो जाती है। क्योंकि इतने संगीत से दूसरे को नुकसान पहुंचाने की बात नहीं उठती। इतनी गहरी लयबद्धता से किसी को हानि पहुंचाने का खयाल भी नहीं उठता। तो चोर से यह नहीं कहा जाना चाहिए कि तू चोरी मत कर। उसे यही कहा जाना
चाहिए कि तुझे चोरी करना हो तो चोरी कर, लेकिन फिर चोरी को ही ठीक मान, चोरी का ही विचार कर, और चोरी को छिपा मत, और चोरी के साथ एक-लयबद्ध हो जा। असंभव हो जाएगी चोरी।
शील का मौलिक अर्थ है कि हमारे भीतर और बाहर में एक संगीत हो। अगर आपके भीतर जो है, वैसा आप बाहर निर्मित न कर सकें, तो जैसा आपका बाहर है, वैसा आप भीतर निर्मित कर लें। और जहां-जहां आपको लगता हो कि भीतर विरोध है, वहां-वहां विरोध को बदल दें और एक लयबद्धता ले आएं।
लयबद्ध व्यक्तित्व ही, साधना के जगत में प्रवेश कर पाता है।
लेकिन हमारा जो व्यक्तित्व है, उसमें कितने उपद्रव हैं! ऐसा भी नहीं कि हम जो सोचते हैं, वैसा नहीं करते हैं। जो हम सोचते हैं, वह भी पक्का नहीं कि हम वैसा सोचते हैं। उसके भीतर भी पर्तें हैं, अचेतन पर्तें हैं। हम वैसा सोचते भी नहीं हैं। जो हम सोचते हैं, वैसा हम कहते नहीं हैं। ऐसा भी नहीं है, कि हम जो कहना चाहते हैं, वह भी नहीं कहते हैं। और बहुत बार हम ऐसी बातें कहते हैं, जो हम कहना ही नहीं चाहते। और जो हम करते हैं, वह तो बहुत दूर है।
एक-एक आदमी बहुत आदमियों की भीड़ है। सुबह उससे मिलिए, वह कोई और है, दोपहर उससे मिलिए वह कोई और है; सांझ उससे मिलिए, वह कोई और है। आप एक ही आदमी से नहीं मिलते हैं; चेहरे दिन भर बदलते चले जाते हैं। इन चेहरों की भीड़ में कैसे हो शांति फलित?
और इसलिए नहीं कि दूसरे का हित होगा, इसलिए आप अपने वचन और कर्म को एक-बद्ध कर लें। दूसरा प्रयोजन नहीं है, आपका ही हित है। हम सब आनंद खोजते हैं। और बिना
एक मौलिक लयबद्धता के आनंद असंभव है।
रुसो कुसियन एक साधकों का गुप्त समूह है। उन्होंने तो नाम ही रखा है साधक का हारमोनियम। और जब तक कोई साधक हारमोनियम न हो जाए, तब तक, वे कहते हैं, आगे बढ़ने का कोई उपाय नहीं है।