चीजों का होना, आपको गृहस्थ नहीं बनाता; चीजों का पकडना, क्लिगिंग आपको गृहस्थ बनाता है “ओशो”

 चीजों का होना, आपको गृहस्थ नहीं बनाता; चीजों का पकडना, क्लिगिंग आपको गृहस्थ बनाता है “ओशो”

ओशो– मैंने सुना है, एस्किमो परिवारों में एक रिवाज है। एक फ्रेंच यात्री जब पहली दफा एस्किमो ध्रुवीय देशों में गया, तो उसे कुछ पता नहीं था। बहुत गरीब है एस्किमो, गरीब से गरीब है, लेकिन शायद उनसे संपन्न आदमी पाना भी बहुत मुश्किल है। उस फ्रेंच लेखक ने लिखा है कि मैने उनसे ज्यादा समृद्ध लोग नहीं देखे। पता उसे कैसे चला? जिस घर में भी वह ठहरा, फ्रेंच आदत का, उसे कुछ पता नहीं था कि यहां रिवाज क्या है, यहां का हिसाब क्या है?

किसी एस्किमो से उसने कह दिया कि तुम्हारे जूते तो बहुत खूबसूरत है! उसने तत्काल जूते भेंट कर दिये। उसके पास दूसरी जोड़ी नहीं है। बर्फीली जगह है, नंगे पैर चलना जीवन को जोखम में डालना है, लेकिन यह सवाल नहीं है।

दों—चार दिन बाद उसे बड़ी हैरानी हुई कि वह जिससे भी कुछ कह दे कि यह चीज बड़ी अच्छी है, वह तत्काल भेंट कर देता है।

तब उसे पता चला कि एस्किमो मानते हैं कि जो चीज किसी को पसंद आ गयी, वह उसकी हो गयी। उसने पूछा कि इसके मानने का कारण क्या है?

तो जिस वृद्ध से उसने पूछा, उस वृद्ध ने कहां, इसके दो कारण हैं, एक तो चीजें किसी की नहीं है, चीजें है। दूसरा इसके मानने का कारण है कि जिसके पास है, उसके लिए तो अब व्यर्थ हो गयी है। जिसके पास नहीं है, वह सम्मोहित हो रहा है। अगर उसे न मिले तो उसका सम्मोहन लंबा हो जायेगा, उसे तत्काल दे देनी जरूरी है ताकि उसका सम्मोहन टूट जाये। और तीसरा कारण यह है कि जिस चीज के हम मालिक है, उसकी मालकियत का मौका ही तभी आता है, जब हम किसी को देते हैं। नहीं तो कोई मौका नहीं आता।

चीजों का होना, आपको गृहस्थ नहीं बनाता; चीजों का पकडना, क्लिगिंग आपको गृहस्थ बनाता है।

ये एस्किमो संन्यासी है, साधु है। जिसे हम साधु कहते हैं, अगर उसके भीतर हम झांकें तो वहां संग्रह मौजूद रहता है। बना रहता है, तो फिर वह गृहस्थ है। बाहर से आप क्या है, यह बहुत मूल्य का नहीं है। भीतर से आप क्या है, यही मूल्य का है। लेकिन भीतर से आप क्या है, यह आपके अतिरिक्त कौन जानेगा? कैसे जानेगा? इसलिए सदा अपने भीतर पर एक आंख रखनी चाहिए निरीक्षण की, कि मैं भीतर क्या हूं। चीज को पकड़ता हूं? चीज मूल्यवान है बहुत? चीज न होगी तो मैं मर जाऊंगा, मिट जाऊंगा, मैं चीजों का एक जोड़ हूं तो मैं गृहस्थ हूं। फिर भाग कर जंगल में जाने से कुछ भी न होगा। फिर इस गृहस्थ होने की भीतरी व्यवस्था को तोड़ना पड़ेगा।

संन्यासी होना एक आंतरिक क्रांति है। यह भीतर घटित हो जाये, तो फिर बाहर वस्तुएं हों या न हों, गौण है।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३

“महावीर वाणी, भाग-1, प्रवचन-24”