ध्यान रखना, जिसे सिद्ध करना पड़े तर्क से, उसे तर्क से ही असिद्ध भी किया जा सकता है “ओशो”

 ध्यान रखना, जिसे सिद्ध करना पड़े तर्क से, उसे तर्क से ही असिद्ध भी किया जा सकता है “ओशो”

ओशो– तर्क और विवाद, तर्क और खंडन से न तो कभी कोई संवाद हुआ है, न हो सकता है।

संवाद का अर्थ है: दो हृदयों की बातचीत; विवाद से अर्थ है: दो बुद्धियों का टकराव।
संवाद का अर्थ है: दो व्यक्तियों का मिलन; विवाद से अर्थ है: दो व्यक्तियों का संघर्ष।
संवाद में कोई हारता नहीं, दोनों जीत जाते हैं; विवाद में कोई जीतता नहीं, दोनों हार जाते हैं।

लेकिन मजबूरी थी और शंकर को विवाद करना पड़ा; क्योंकि विवाद के पूर्व संवाद का कोई उपाय ही न था। शंकर ने सत्य को समझाने के लिए विवाद नहीं किया। लेकिन लोग अपनी बुद्धियों में, अपने अहंकारों में, अपने पांडित्य में इस भांति भरे थे कि जब तक उनका पांडित्य तोड़ा न जाए, उनकी बुद्धि पराजित न हो, वे धूल-धूसरित होकर गिरें न, तब तक वे हृदय की बात सुनने को राजी भी न थे। तो शंकर ने विवाद से उन्हें सत्य नहीं समझाया, विवाद से केवल उनके अहंकार को झुकाया। और जो झुकने को राजी हो जाए, उससे फिर संवाद हो सकता है।शंकर का शास्त्रार्थ तो केवल निषेधात्मक था; वह तो एक लगे कांटे को दूसरे कांटे से निकालना था। तर्क से भरे हुए मन हैं, वे केवल तर्क की भाषा ही समझते हैं। पांडित्य से भरा हुआ मन केवल पांडित्य की भाषा समझता है; प्रेम की भाषा उसे सुनाई भी नहीं पड़ती। सुनाई भी पड़े तो उसमें कोई अर्थ नहीं मालूम होता। और मौन की भाषा का तो कोई सवाल ही नहीं है।

और ध्यान रखना, जिसने सत्य को जाना हो, वह तर्क का भी उपयोग कर सकता है–हितकर दिशा में। जिसने सत्य को न जाना हो, उसके हाथ में तो तर्क का उपयोग खतरनाक है। जिसने सत्य को न जाना हो, उसके लिए तर्क ही सब कुछ हो जाता है–साध्य। जिसने सत्य को जाना हो, वह तर्क को भी सत्य की सेवा में संलग्न कर देता है। जिसने सत्य को जाना हो, वह तर्क को अनुचर बना लेता है। सत्य तर्क पर भी सवारी कर सकता है। साधारणतया तर्क छोटे बच्चों के हाथ में पड़ गई तलवार है। उससे वे दूसरों को भी नुकसान पहुंचा देते हैं और अंततः अपने को भी नुकसान पहुंचाएंगे। लेकिन ज्ञानी के हाथ में तर्क, समझदार के हाथ में तलवार है; उससे किसी को नुकसान न पहुंचेगा। हां, दुर्घटना के क्षणों में किसी की रक्षा हो सकती है।

सत्य को तो सिद्ध करने की कोई जरूरत ही नहीं है, सत्य तो स्वयंसिद्ध है। और ध्यान रखना, जिसे सिद्ध करना पड़े तर्क से, उसे तर्क से ही असिद्ध भी किया जा सकता है। तर्क का कोई बल थोड़े ही है, तर्क तो खेल है। ऐसी कोई भी चीज नहीं जो तर्क से सिद्ध की गई हो और तर्क से ही तोड़ी न जा सके। तर्क तो वकील है, तर्क तो वेश्या है; उसका किसी से कुछ लगाव नहीं है; वह तो दोनों तरफ हो सकता है। कोई भी तर्क ले लें, वह अपने विपरीत भी उतना ही बलशाली है।

☘️☘️ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३☘️☘️
भजगोविंदम मुढ़मते प्रवचन–06