ओशो– धर्म का कोई संबंध मृत्यु के पार से नहीं है, धर्म का मौलिक संबंध जीवन के निखार से है। धर्म का कोई संबंध पाप और पुण्य से नहीं है, धर्म का संबंध है मूर्च्छा और जागरण से।
तुम जागो! और जागोगे तो अभी ही जाग सकते हो, कल नहीं। इस क्षण को जागरण का क्षण बना लो। इस क्षण को निखार लो। इस क्षण को उत्सव, रसमय कर लो। फिर सब शेष अपने आप ठीक हो जाएगा। क्योंकि दूसरा क्षण इसी क्षण से पैदा होगा। वह और भी रसपूर्ण होगा। और अगर कोई जन्म है…और मैं जानता हूं कि मृत्यु के बाद जन्म है, जीवन है।लेकिन तुमसे कहता नहीं कि मेरी बात पर भरोसा करो। मेरा जानना मेरा जानना है; उस पर तुम्हें कोई अपने आधार खड़े नहीं करने हैं। लेकिन अगर यह जीवन तुम्हारा सुंदर हुआ, तो आने वाला जीवन इसी जीवन से तो उमगेगा, और भी सुंदर होगा।
और तुम पाप-पुण्य में चुनने की बजाय जागृति और मूर्च्छा में चुनो। क्योंकि पाप और पुण्य तो सभी धर्मों के अलग-अलग हैं, लेकिन जागृति और मूर्च्छा सभी धर्मों की अलग-अलग नहीं हो सकतीं। ईसाई जागे तो भी जागे और हिंदू जागे तो भी जागे और जैन जागे तो भी जागे। जागरण हिंदू नहीं होता और न मुसलमान होता है। जागरण तो बस जागरण है और मूर्च्छा मूर्च्छा है।
हां, पाप-पुण्य में बड़े भेद हैं। अगर मांसाहार करो तो मुसलमान के लिए पाप नहीं है, ईसाई के लिए पाप नहीं है। और ईसाई अपनी किताब के उद्धरण देने को तैयार है कि ईश्वर ने सारे पशु-पक्षी बनाए मनुष्य के उपयोग के लिए। वह तो ईश्वर का वक्तव्य बाइबिल में दिया हुआ है कि मनुष्य के उपयोग के लिए सारे पशु-पक्षी बनाए; और तो इनका कोई उपयोग ही नहीं है।
अगर जैनों से पूछो तो मांसाहार महापाप है। उससे बड़ा कोई पाप नहीं। लेकिन रामकृष्ण मछली खाते रहे और मुक्त हो गए। जैनों के हिसाब से नहीं हो सकते। जैनों के हिसाब से रामकृष्ण को परमहंस नहीं कहना चाहिए। हंसा तो मोती चुगै। और ये मछली चुग रहे हैं! और परमहंस हो गए मछली चुग-चुग कर। और बंगाली मछली न चुगे तो चले नहीं काम।
कठिनाई है बहुत, पाप कौन तय करे? पुण्य कौन तय करे?
ईसाइयों का एक समूह है रूस में, अब तो समाप्त होने के करीब हो गया, लेकिन उसकी मान्यता यह थी कि जिस पशु-पक्षी को तुम खा लेते हो, उसकी आत्मा को तुम मुक्त कर देते हो बंधन से। न केवल पाप तो कर ही नहीं रहे, पुण्य कर रहे हो। उसकी आत्मा को मुक्त कर रहे हो। जैसे कोई पक्षी बंद है, तोता बंद है पिंजड़े में, तुमने पिंजड़ा खोल दिया और तोते को उड़ा दिया। इसको तुम पाप कहोगे? उस संप्रदाय की यह मान्यता थी कि तुमने एक तोते को खा लिया, तो वह जो शरीर था तोते का, वह पिंजड़ा था, वह तुम पचा गए। पिंजड़ा ही पचाओगे, आत्मा तो मुक्त हो गई। तो तुमने कृपा की तोते पर! तुमने तोते का बड़ा कल्याण किया। अब उसकी आत्मा बंधन से मुक्त हो गई। और चूंकि मनुष्य ने उसे पचा लिया, अगला जन्म उसका अच्छा जन्म होगा।
इसी आशा में तो हिंदू भी नरबलि देते रहे; आज भी देते हैं! आज भी मूढ़ों की कमी नहीं है। इस देश में अश्वमेध यज्ञ हुए। अश्वमेध! और गऊ माता की पूजा करने वाले गो-मेध भी करते रहे। वे ही ऋषि-मुनि! गो-मेध की तो बात छोड़ दो, नर-मेध भी करते रहे। लेकिन यज्ञ की वेदी पर चढ़ाई गई गऊ सीधी स्वर्ग जाती है!
बुद्ध ने मजाक किया है। एक गांव में यज्ञ हो रहा है, भेड़-बकरियां काटी जा रही हैं, और बुद्ध आ गए, बस ठीक समय पर आ गए। उन्होंने पूछा उस पंडित को, पुरोहित को, जो यह कर रहा है हत्या का कार्य। खास पंडित-पुरोहित होते थे, जो यही काम करते थे। तुम जान कर चकित होओगे, तुममें कोई शर्मा यहां मौजूद हों तो नाराज न हों। शर्मा उन्हीं पंडित-पुरोहितों का नाम है। शर्मा का अर्थ होता है शर्मन करने वाला, काटने वाला। जो यज्ञ में पशु-पक्षियों को काटता था, वह शर्मा कहा जाता था। अब तो लोग भूल-भाल गए हैं। अब तो शर्मा बड़ा समादृत शब्द है। इतना समादृत कि वर्मा इत्यादि भी अपने को छोड़ कर शर्मा लिखते हैं। शर्मा का मतलब होता है हत्यारा। लेकिन हत्यारा साधारण नहीं, असाधारण हत्यारा! आत्माओं को स्वर्ग पहुंचाने वाला।
तो बुद्ध ने कहा कि यह तुम क्या कर रहे हो? तो उन्होंने कहा कि यह कोई हत्या नहीं है, हिंसा नहीं है। ये जो पशु-पक्षी काटे जाएंगे, इन सबकी आत्माएं स्वर्ग चली जाएंगी। तो बुद्ध ने बड़ा मजाक किया है! और बुद्ध ने कहा: तो फिर अपने माता-पिता को क्यों नहीं काटते? स्वर्ग ही भेज दो। यह अवसर मिला, स्वर्ग भेजने का द्वार खुला और तुम इन पशु-पक्षियों को भेज रहे हो? माता-पिता को भेज दो! पत्नी-बच्चों को भेज दो! फिर सबको भेज कर खुद भी चले जाना! मगर इन पशु-पक्षियों को तो न भेजो। ये तो जाना भी नहीं चाहते। ये तो तड़प रहे हैं। ये तो भागना चाहते हैं। ये तो कहते हैं कि क्षमा करो! बोल नहीं सकते। जरा इनकी आंखें तो देखो, गिड़गिड़ा रही हैं। मिमिया रहे हैं; ये कह रहे हैं कि हमें जाने दो। ये तो स्वर्ग जाना नहीं चाहते, इनको तुम भेज रहे हो। और जो जाना चाहते हैं…। जिस यजमान ने यह करवाया है यज्ञ, वह स्वर्ग जाना चाहता है, उसी को भेज दो।
तो मैं तुमसे कहता हूं: जागो! होश को सम्हालो! फिर तुम जो भी करोगे, वह ठीक होगा। ठीक करने से होश नहीं सम्हलता; होश सम्हलने से ठीक होता है। गलत छोड़ने से होश नहीं सम्हलता, होश सम्हलने से गलत छूटता है। मैं अपने सारे धर्म को एक ही शब्द में तुमसे कह देना चाहता हूं–वह ध्यान है। और ध्यान का अर्थ–होश, प्रज्ञा, जागरण।