ओशो– सत्संग-अनन्य श्रद्धा सत्संग तो प्रेम जैसा है, अंधा है। सारी दुनिया कहेगी, तुम्हारी प्रेयसी कुरूप है, सुंदर नहीं है; इससे क्या फर्क पड़ता है? तुम तो अंधे हो। तुम्हारी आंखों में तो वह सुंदर ही दिखाई पड़ती है। श्रद्धा एक अर्थ में परम दृष्टि है और एक अर्थ में परम अंधापन। तुम अपने विचार को उपयोग कर लिए, अब तुम उसे हटा कर रख देते हो। अब तुम कहते हो, अब और नहीं सोचना है। सोच-सोच कर पा लिया, अब ये चरण मिल गए; अब बस, श्रद्धा से पकड़ लेना है।सत्संग का अर्थ है, किसी के पास अनन्य श्रद्धा के साथ होना। धीरे-धीरे, जब इतनी अनन्य श्रद्धा होती है तो अपने आप विचार क्षीण होते जाते हैं, शून्य होते जाते हैं। सत्संग ध्यान बन जाता है। सत्संग करनेवाले को ध्यान करने की अलग से जरूरत ही नहीं पड़ती। वह तो गुरु के पास होते-होते, होते-होते-होते गुरु जैसा हो जाता है। समान तुम्हारे भीतर, अपने समान को ही पैदा कर देता है। अगर प्रकाश श्रद्धा कर ले, तुम्हारे भीतर छिपा हुआ प्रकाश अगर श्रद्धा कर ले बाहर के प्रकट प्रकाश में तो वह भी प्रकट हो जाएगा। तुम जिसमें श्रद्धा करते हो, धीरे-धीरे वैसे ही हो जाते हो।
श्रद्धा एक रसायन है, एक अल्केमी है, गुरु के पास होने का ढंग है। अब तुम हो, बस! तुम उसके पास बैठते हो। वह बोलता है, सुनते हो। वह चुप होता है, तो उसकी चुप्पी सुनते हो। वह नहीं बोलता तो उसका न बोलना सुनते हो; उसका मौन सुनते हो। वह उठता है, चलता है, बैठता है, तुम उसके साथ ऐसे डोलते हो जैसे तुम वही हो। तुम उसकी छाया बन गए होते हो।
धीरे-धीरे, जैसे-जैसे तुम मिटते हो, गुरु तुम्हारे भीतर प्रवेश करता है। तुम जगह खाली करते हो, वह जगह को भरता जाता है। एक ऐसी घड़ी आती है, शिष्य विलीन हो जाता है, गुरु ही शेष रह जाता है।
सत्संग अगर आ जाए, तो कुछ और चाहिए नहीं। अगर तुम प्रेमी हो, तो सत्संग प्रार्थना बन जाएगा। अगर तुम ध्यानी हो, सत्संग ध्यान बन जाएगा।
सत्संग कोई मार्ग नहीं है। सत्संग तो सभी मार्गो का सार-निचोड़ है। सत्संग न तो हिंदू है, न मुसलमान है, न ईसाई। सत्संग न तो स्त्रैण-चित्त है, न पुरुष-चित्त। सत्संग तो दोनों के लिए समान है।