ओशो– आठ का आंकड़ा योग के अष्टांगों से संबंधित है। पतंजलि ने कहा है. आठ अंगों को जो पूरा करेगा—यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि—वही केवल सत्य को उपलब्ध होगा। यह पिता की नाराजगी, यह पिता का अभिशाप सिर्फ इतनी ही सूचना देता है कि वे आठ अंग, जिनसे व्यक्ति परम सत्य को उपलब्ध होता है, मैं तेरे विकृत किए देता हूं।तुम्हें घटना फिर से याद दिला दूं।अष्टावक्र के पिता वेदपाठी थे। वे सुबह रोज उठ कर वेद का पाठ करते। ख्यातिलब्ध थे, सारे देश में उनका नाम था। बड़े शास्त्रार्थी थे। और अष्टावक्र गर्भ में सुनता। एक दिन अचानक बोल पड़ा गर्भ से कि हो गया बहुत, इस तोता—रटन से कुछ भी न होगा। जाने बिना सत्य का कोई पता नहीं चलता—पढ़ो कितना ही वेद, शास्त्र सत्य नहीं है—सत्य तो अनुभव से उपलब्ध होता है।
पिता नाराज हुए। पिता के अहंकार को चोट लगी। पंडित और पिता दोनों साथ—साथ। बेटे की बात बाप माने, यह बड़ी अनहोनी घटना है। नाराज ही होता है। बाप कभी यह मान ही नहीं पाता कि बेटा भी कभी समझदार हो सकता है। बेटा सत्तर साल का हो जाए तो भी बाप समझता है कि वह नासमझ है। स्वाभाविक है। बेटे और बाप का फासला उतना ही बना रहता है जितना शुरू में, पहले दिन होता है, उसमें कोई अंतर नहीं पड़ता। अगर बाप बीस साल बड़ा है तो वह सदा बीस साल बड़ा होता है। उतना अंतर तो बना ही रहता है। तो बेटे से ज्ञान ले लेना कठिन, फिर पंडित, तो और भी कठिनाई। बाप तो सोचता था मैं जानता हूं, और अब यह गर्भस्थ शिशु कहने लगा कि तुम नहीं जानते हो—यह तो हद हो गई! अभी पैदा भी नहीं हुआ।
तो बाप ने अभिशाप दिया होगा; वह अभिशाप ज्ञान के आठ अंगों को नष्ट कर देने वाला है। जिन आठ अंगों से व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध होता है, बाप ने कहा, तेरे वे नष्ट हुए। अब देखूं तू कैसे ज्ञान को उपलब्ध होगा—जिस ज्ञान की तू बात कर रहा है, जिस परम ज्ञान की तू घोषणा कर रहा है?
अगर शास्त्र से नहीं मिलता सत्य तो दूसरा एक ही उपाय है कि साधना से मिलता है। तू कहता है शास्त्र से नहीं मिलता है, चल ठीक, साधना के आठ अंग मैं तेरे विकृत किए देता हूं अब तू कैसे पाएगा?
और अष्टावक्र ने फिर भी पाया। अष्टावक्र के सारे उपदेश का सार इतना ही है कि सत्य मिला ही हुआ है, न शास्त्र से मिलता है न साधना से मिलता है। साधना तो उसके लिए करनी होती है जो मिला न हो। सत्य तो हम लेकर ही जन्मे हैं। सत्य तो हमारे साथ गर्भ से ही है, सत्य तो हमारा स्वरूप—सिद्ध अधिकार है। जन्म—सिद्ध भी नहीं, स्वरूप—सिद्ध अधिकार! सत्य तो हम हैं ही, इसलिए मिलने की कोई बात नहीं। आठ जगह से टेढ़ा, चलो कोई हर्जा नहीं; लेकिन सत्य टेढ़ा नहीं होगा। स्वरूप टेढ़ा नहीं होगा। यह शरीर ही इरछा—तिरछा हो जाएगा।
साधना की पहुंच शरीर और मन के पार नहीं है। तो तुम अगर इरछे—तिरछे का अभिशाप देते हो तो शरीर तिरछा हो जाएगा, मन तिरछा हो जाएगा, लेकिन मेरी आत्मा को कोई फर्क न पड़ेगा। यही तो अष्टावक्र ने जनक से कहा कि राजन! आंगन के टेढ़े —मेढ़े होने से आकाश तो टेढ़ा—मेढ़ा नहीं हो जाता। घड़े के टेढ़े —मेढ़े होने से घड़े के भीतर भरा हुआ आकाश तो टेढ़ा—मेढ़ा नहीं हो जाता। मेरी तरफ देखो सीधे; न शरीर को देखो न मन को।
अष्टावक्र की पूरी देशना यही है कि न शास्त्र से मिलता न साधना से मिलता। इसलिए तो मैंने बार—बार तुम्हें याद दिलाया कि कृष्णमूर्ति की जो देशना है वही अष्टावक्र की है। कृष्णमूर्ति की भी देशना यही है कि न शास्त्र से मिलता न साधना से मिलता। तुम घबड़ा कर पूछते हो. तो फिर कैसे मिलेगा? देशना यही है कि कैसे की बात ही पूछना गलत है—मिला ही हुआ है। जो मिला ही हुआ है, पूछना कैसे मिलेगा—असंगत प्रश्न पूछना है।
सत्य के लिए कोई शर्त नहीं है; सत्य बेशर्त मिला है। पापी को मिला है, पुण्यात्मा को मिला है, काले को मिला है, गोरे को मिला है; सुंदर को, असुंदर को; पुरुष को, स्त्री को। जिन्होंने चेष्टा की, उन्हें मिला है, जिन्होंने चेष्टा नहीं की, उन्हें भी मिला है। किन्हीं को प्रयास से मिल गया है, किन्हीं को प्रसाद से मिल गया है। न तो प्रयास जरूरी है, न प्रसाद की मांग जरूरी है, क्योंकि सत्य मिला ही हुआ है।