ओशो– वेदांत परम दृष्टि है, क्योंकि वह शून्य में पूर्ण को उतार लेती है। ध्यान का शास्त्र है, न कुछ देखने को है, न कोई देखनेवाला है। न दृश्य है, न दर्शन है। फिर विचार कहां उठता है? फिर विचार खो जाता है।लेकिन विचार का खो जाना पर्याप्त नहीं है। यही भक्तों में और ध्यानियों में फर्क है। ध्यानी कहता है, विचार खो गया, सब हो गया। भक्त कहता है, विचार खो गया, यह तो केवल प्राथमिक चरण है। अभी भाव कहां जन्मा है? तो विचार खो जाने के बाद तुम पाओगे विचार तो नहीं रहा। मन शांत हो गया, लेकिन आनंद तुम न पाओगे।
इसलिए ध्यान करनेवाला व्यक्ति शांत हो जाएगा, शून्य हो जाएगा। आनंद की स्फुरणा न पाएगा। यही फर्क है बुद्ध के विचार और वेदांत का। बुद्ध का विचार शून्य तक पहुंचा देता है। बड़ी गहरी बात है शून्य तक पहुंचा देना; आधी मंजिल पूरी हो गई।
लेकिन वेदांत कहता है, यह काफी नहीं है। शून्य तो हो गया, लेकिन अभी परमात्मा से भरा नहीं। जहर से तो खाली हो गया पात्र, लेकिन अमृत अभी भरा नहीं। अच्छा हुआ कि जहर से खाली हो गया, काफी है यह भी। यह कितना मुश्किल है, लेकिन अधूरा है।यही वेदांत का और बुद्ध के चिंतन का फर्क है। वेदांत कहता है, जब तक शून्य पात्र ब्रह्म से न भर जाए, तब तक तुम शांत तो हो जाओगे, लेकिन आनंदित कैसे होओगे?इसलिए बुद्ध को तुम वृक्ष के नीचे शांत बैठा देखते हो। महावीर को तुम पहाड़ों में शांत खड़ा हुआ देखते हो; पर मीरा का नाच, चैतन्य का अहोभाव वह दिखाई नहीं पड़ता। कुछ कमी है। कुछ चूक रहा है। सब है–बैंड-बाजे बज गए, बराती आ गए, मेहमान इकट्ठे हो गए, दूल्हा खो रहा है। सब है, लेकिन कुछ फीका-फीका है। दरबार भरा है, दरबारी बैठे हैं, सिंहासन खाली है, सम्राट नहीं है। सन्नाटा है, प्रतीक्षा है, लेकिन कुछ चूक रहा है–कोई एक कड़ी!
वेदांत परम शास्त्र है। उससे ऊपर कोई शास्त्र कभी नहीं गया। वेदांत परम दृष्टि है, क्योंकि वह शून्य में पूर्ण को उतार लेती है।
बुद्ध खूब हैं, लेकिन कृष्ण के ओंठों पर रखी बांसुरी की कमी है। थोड़ा सा चूक रहा है। हो सकता है बुद्ध के भीतर वह पूरा भी है गया हो; लेकिन बुद्ध नाच नहीं सकते। उनकी सारी प्रक्रिया शून्यता की है, अहोभाव की नहीं। हो सकता है, भीतर वे आनंद को भी उपलब्ध हो गए हों, लेकिन वह आनंद उनके रोएं-रोएं से बहता नहीं। उसमें भी एक संयम मालूम पड़ता है। उसमें वे पागल होकर नाच नहीं उठते, बावले नहीं हो जाते।
खयाल रखना–विचार, निर्विचार, फिर भाव। विचार से मुक्त होना है, निर्विचार को लाना है, ताकि भाव आ सके। और जब भाव आ जाए तो संकोच मत करना और डरना मत; और भयभीत न होना और संयम मत रखना। फिर नाचना अबाध! तभी जीवन परम उत्सव को उपलब्ध होना है। और जीवन की आखिरी घड़ी अगर उत्सव न हो सके, तो कहीं कुछ कमी रह गई। थोड़ी सी रह गई हो, लेकिन कमी रह गई।
नाचते हुए तुम मृत्यु में जा सको तो ही आवागमन से छुटकारा है। तुम्हारा मंदिर तुम्हारा नृत्यगृह बन जाए और तुम्हारा ध्यान तुम्हारे भीतर अनाहत नाद को जगा दे। तुम्हारी विचार-शून्यता में ओंकार का विस्फोट हो। तुम शून्य बनो और पूर्ण का अतिथि तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे। इससे कम पर राजी मत होना।
धर्म अगर अंततः नृत्य और उत्सव न बन जाए तो धर्म पूरा नहीं है।