ओशो- इच्छाओं के कारण गलत कर्म जीवन करने को मजबूर होता है। जो आदमी चोरी करता है, वह भी ऐसा अनुभव नहीं करता कि मैं चोर हूं। बड़े से बड़ा चोर भी ऐसा ही अनुभव करता है कि मजबूरी में मैंने चोरी की है; मैं चोर नहीं हूं। बड़े से बड़ा चोर भी ऐसा ही अनुभव करता है कि ऐसा दबाव था परिस्थिति का कि मुझे चोरी करनी पड़ी है, वैसे मैं चोर नहीं हूं। बुरे से बुरा कर्म करने वाला भी ऐसा नहीं मानता कि मैं बुरा हूं। वह ऐसा ही मानता है, एक्सिडेंट है बुरा कर्म।आज तक पृथ्वी पर ऐसा एक भी आदमी नहीं हुआ, जिसने कहा हो कि मैं बुरा आदमी हूं। वह इतना ही कहता है, आदमी तो मैं अच्छा हूं, लेकिन दुर्भाग्य कि परिस्थितियों ने मुझे बुरा करने को मजबूर कर दिया।
लेकिन परिस्थितियां! उसी परिस्थिति में बुद्ध भी पैदा हो जाते हैं; उसी परिस्थिति में एक डाकू भी पैदा हो जाता है; उसी परिस्थिति में एक हत्यारा भी पैदा हो जाता है। एक ही घर में भी तीन लोग तीन तरह के पैदा हो जाते हैं। बिलकुल एक-सी परिस्थिति भी एक-से आदमी पैदा नहीं कर पाती।
परिस्थिति भेद कम डालती है; इच्छाएं भेद ज्यादा डालती हैं।
इच्छाएं इतनी मजबूत हों, तो हम सोचते हैं कि एक इच्छा पूरी होती है, थोड़ा-सा बुरा भी करना हो, तो कर लो। इच्छा की गहरी पकड़ बुरा करने के लिए राजी करवा लेती है। बुरा काम भी कोई आदमी किसी अच्छी इच्छा को पूरा करने के लिए करता है। बुरा काम भी किसी अच्छी इच्छा को पूरा करने के लिए अपने मन को समझा लेता है कि इच्छा इतनी अच्छी है, साध्य इतना अच्छा है, इसलिए अगर थोड़े गलत मार्ग भी पकड़े गए, तो बुरा नहीं है। और ऐसा नहीं है कि छोटे-छोटे साधारणजन ऐसा सोचते हैं, बड़े बुद्धिमान कहे जाने वाले लोग भी ऐसा ही सोचते हैं। माक्र्स या लेनिन जैसे लोग भी ऐसा ही सोचते हैं कि अगर अच्छे अंत के लिए बुरा साधन उपयोग में लाया जाए, तो कोई हर्जा नहीं है; ठीक है। लेकिन हम जो करना चाहते हैं, वह तो अच्छा ही करना चाहते हैं।
कृष्ण कहते हैं कि जिस आदमी की इच्छाएं छूट जाएं, उस आदमी के बुरे कर्म तत्काल छूट जाते हैं। लेकिन अच्छे कर्म नहीं छूटते।
अच्छा कर्म वही है–उसकी परिभाषा अगर मैं देना चाहूं, तो ऐसी देना पसंद करूंगा–अच्छा कर्म वही है, जो बिना इच्छा के भी चल सके। और बुरा कर्म वही है, जो इच्छा के पैरों के बिना न चल सके। जिस कर्म को चलाने के लिए इच्छा जरूरी हो, वह बुरा है; और जिस कर्म को चलाने के लिए इच्छा बिलकुल भी गैर-जरूरी हो, वह कर्म अच्छा है। अच्छे का एक ही अर्थ है, जीवन के स्वभाव से निकले, जीवन से निकले।
कृष्ण कहते हैं, अगर इच्छाएं छोड़ दे कोई और सिर्फ कर्म करे, तो उसे मैं संन्यासी कहता हूं।
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