ओशो– कोई प्रमाण नहीं है, या प्रत्येक चीज प्रमाण है। तर्क की दृष्टि से तो कोई प्रमाण नहीं, क्योंकि परमात्मा तर्कातीत है। न तो तर्क से कोई सिद्ध कर सकता है उसे, न असिद्ध कर सकता है। और खयाल रखना, जो तर्क से सिद्ध हो सकता है वह तर्क से असिद्ध भी हो सकता है।परमात्मा न तो सिद्ध होता है न असिद्ध होता है। परमात्मा तो बस है। शायद यह कहना भी ठीक नहीं कि परमात्मा है। क्योंकि परमात्मा है, ऐसा कहने से पुनरुक्ति—दोष लगता है। ‘है’ ही तो परमात्मा है। जो है वही परमात्मा है। तो जब हम कहते हैं वृक्ष है, यह ठीक है कहना; क्योंकि एक दिन वृक्ष नहीं हो जायेगा; और एक दिन नहीं था, फिर नहीं हो जायेगा। होना सिर्फ बीच में हुआ। इसलिए वृक्ष है, आदमी है,मकान है; लेकिन परमात्मा है, यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि परमात्मा न तो कभी ‘नहीं’ था और न कभी ‘नहीं’ होगा। इसलिए जिस अर्थ में हम ‘है’ का प्रयोग करते हैं, उस अर्थ में परमात्मा के लिये नहीं किया जा सकता। परमात्मा तो ‘है’ का ही दूसरा नाम है। वृक्ष है, अर्थात वृक्ष परमात्मा में है। मनुष्य है अर्थात मनुष्य परमात्मा में श्वास ले रहा है। जब परमात्मा अपनी श्वास वापिस ले लेगा, मनुष्य नहीं हो जायेगा। जब परमात्मा अपनी हरियाली वापिस ले लेगा, वृक्ष नहीं हो जायेगा।
तो एक अर्थ में कोई प्रमाण नहीं—तर्क के अर्थ में;अस्तित्व के अर्थ में उसका ही प्रमाण है सब तरफ। ये खड़े वृक्ष, यह गिरती धूप, यह पक्षियों की आवाज, यह मेरा तुमसे बोलना, यह तुम्हारा यहां चुप, मौन, आनंदमग्न हो सुनना—इस सब में प्रमाण है। सुनते हो यह आवाज पक्षियों की, प्रमाण ही प्रमाण है! लेकिन तुम शायद तर्क की दृष्टि से प्रमाण चाहते हो,वैसा कोई प्रमाण नहीं है।
कौन रंग रहा है ये रंग, कौन चितेरा! कौन भरता है रंग इंद्रधनुषों में! कौन रंगता है रंग तितलियों क्ए। परों में! कौन भरता है गीत कोकिल के कंठों में! कौन तुम्हारे भीतर श्वास ले रहा है! कौन तुम्हारे भीतर धड़क रहा है! कौन है तुम्हारा जीवन! और तुम पूछते हो प्रमाण परमात्मा का? यह सब परमात्मा है। परमात्मा है, परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। ‘जो है’ उसका ही परमात्मा दूसरा नाम है।
मैं परमात्मा को और अस्तित्व को अलग— अलग नहीं तोड़ता। पुराने धर्मों ने यह भूल की थी; इस भूल का बडा दुष्परिणाम हुआ। पुराने धर्म संसार को तोड़ देते हैं परमात्मा से अलग, फिर सवाल उठता तै उसका प्रमाण कहां है?स्वाभाविक सवाल है। संसार तो है नहीं परमात्मा, फिर परमात्मा कहां है? फिर अड़चन खड़ी होती है। फिर आकाश में हाथ उठाने पड़ते हैं। ये हाथ झूठे हैं।
मैं तुमसे कहता हूं : परमात्मा अस्तित्व है; इससे पार नहीं है, इसी में छिपा है, इसी में गुंथा है। यही खोजो, अभी खोजो। तुम पत्ते—पत्ते में उसके हस्ताक्षर पाओगे। तुम पत्थर—पत्थर में उसे छिपा हुआ पाओगे। जीसस का वचन है : उठाओ पत्थर को और तुम मुझे छिपा पाओगे। तोड़ो लकड़ी को और तुमने मुझे तोड़ दिया।
बता दो किसने बीने शूल, बिछाई किसने ये कलियां?
और तुम प्रमाण पूछ रहे हो? और प्रमाण देनेवाले लोग हुए हैं। और उनके सब प्रमाण व्यर्थ हैं। कोई प्रमाण कारगर नहीं है। अब तक जितने प्रमाण दिये गये हैं परमात्मा के, सब दो कौड़ी के हैं। जैसे कोई कहता है कि हर चीज को बनानेवाला होना चाहिए; इतना बड़ा जगत् तो इसका बनानेवाला कोई होगा। मगर उसका प्रमाण आत्मघात कर लेगा, नास्तिक के सामने जाते ही हाथ—पैर उसके लंगड़ा जायेंगे। क्योंकि नास्तिक कहता है, अगर हर बनाई गयी चीज का बनानेवाला होना चाहिए, अगर संसार को बनाने के लिए परमात्मा चाहिए तो फिर परमात्मा को किसने बनाया? बस उसने अटका दी तुम्हारी फांसी! परमात्मा को किसने बनाया है? तुम नाराज होने लगे कि नहीं, परमात्मा को किसी ने नहीं बनाया। तो नास्तिक कहता है, जब परमात्मा बिना बनाये हो सकता है तो संसार क्यों नहीं हो सकता? टूट गया तर्क, पोचा निकला।
तुम कहते हो कि जैसे कुम्हार घड़े को बनाता ऐसा उस कुंभकार ने इस संसार को बनाया। लेकिन कुम्हार को भी कोई बनाता है न, या कि कुम्हार बिना बनाया होता है? अब फंसे मुश्किल में। तो तुम्हारे उस बड़े कुम्हार को किसने बनाया?
ये प्रमाण कुछ काम नहीं आते। ये बच्चों को समझाने की बातें हैं, इनसे कोई जीवन—क्रातिया नहीं होतीं। इसलिए मैं प्रमाण नहीं देता, मैं तो अनुभव देता हूं। मैं तो कहता हूं आओ मेरे पास, बैठो गुप—चुप। गाओ, नाचो। और किसी दिन अचानक तुम पाओगे, कौंध गयी उसकी बिजली। कब कौंध जाये, कुछ कहा नहीं जा सकता। उसकी कोई भविष्यवाणी भी नहीं हो सकती। अनायास आता है वह अतिथि, अचानक द्वार पर खड़ा हो जाता है। जिस क्षण तुम्हारी पात्रता होती है, जिस क्षण तुम निर्मल होते हो, शांत होते हो, उसी क्षण घटना घट जाती है। फिर कोई प्रमाण नहीं चाहना पड़ता, फिर तुम स्वयं ही प्रमाण हो जाते हो। तुम्हारा अनुभव ही प्रमाण हो सकता है,और कोई चीज प्रमाण नहीं हो सकती।