यह सूत्र ध्यान रखना: ‘विद्या के संहार से स्वप्न पैदा होते हैं’ जब तुम्हारे भीतर ज्ञान नहीं होता, आत्मा जाग्रत नहीं होती, तो तुम सपनों में खोते हो “ओशो”
ओशो– गुरु को खोजना हो तो शास्त्र को अलग रख देना। और गुरु को खोजना हो तो किसी व्यक्ति की सन्निधि को पाने की कोशिश करना; उसके सत्संग में बैठना। और अपने सिद्धांत लेकर मत जाना; अपने नापने-जोखने के इंतजाम लेकर मत जाना। सीधे हृदय को हृदय से मिलने देना, बुद्धि को बीच में मत आने देना। अगर तुमने बुद्धि बीच में आने दी, तो हृदय का मिलन न होगा और तुम गुरु को न पहचान पाओगे। गुरु की पहचान आती है हृदय से, बुद्धि से नहीं। और जब भी तुम बुद्धि को हटा कर हृदय से देखोगे, तत्क्षण कोई चीज घट जाती है। अगर तुम्हारा मेल हो सकता है इस गुरु से तो तत्क्षण मेल हो जाएगा, एक क्षण की भी देरी न लगेगी। तुम पाओगे कि तुम उसमें पिघल गए, वह तुममें पिघल गया। उस दिन से तुम उसके अभिन्न अंग हो गए। उस दिन से तुम उसकी छाया हो गए; उसके पीछे चल सकते हो। हृदय से खोजा जाता है गुरु। और गुरु के बिना कोई उपाय नहीं है।
‘शरीर हवि है।’और ध्यान रखना, यह जिसे तुम शरीर कहते हो, जिसे तुमने समझ रखा है कि मैं सब कुछ इस शरीर में ही हूं, यह शरीर हवि से ज्यादा नहीं है। जैसे यज्ञ में आहुति डालनी पड़ती है, ऐसे ही ध्यान में तुम्हें धीरे-धीरे इस शरीर को खो देना होगा। बाकी आहुतियां व्यर्थ हैं। कोई घी डालने से, गेहूं डालने से कुछ हवि नहीं होती। अपने को ही डालना पड़ेगा, तभी तुम्हारी जीवन-अग्नि जलेगी। इस पूरे शरीर को दांव पर लगा देना। इसे बचाने की कोशिश की तुमने अगर, तो यज्ञ जलेगा ही नहीं, अग्नि पैदा ही नहीं होगी। तुम अपने पूरे शरीर को दांव पर लगा देना।
‘शरीर हवि है। ज्ञान ही अन्न है।’
और तुम अभी तो भोजन से जीते हो। भोजन शरीर में जाता है; शरीर के लिए जरूरी है। बोध, ज्ञान, ध्यान, अवेयरनेस–वह भोजन है आत्मा का। अभी तक तुमने शरीर को ही खिलाया-पिलाया है; आत्मा तुम्हारी भूखी मर रही है। आत्मा तुम्हारी अनशन पर पड़ी है जन्मों से; शरीर परिपुष्ट हो रहा है, आत्मा भूखी मर रही है।
ज्ञान अन्न है आत्मा का। तो जितने तुम जाग्रत हो सको, ज्ञानपूर्ण हो सको–ज्ञान का मतलब पांडित्य नहीं है, ज्ञान का अर्थ है होश–जितने तुम जाग्रत हो सको, तुरीयावस्था, तुरीय जितना तुममें सघन हो सके, तुम जितने होशपूर्ण और विवेकपूर्ण हो सको, उतनी ही तुम्हारी आत्मा में जीवनधारा दौड़ेगी।
तुम्हारी आत्मा करीब-करीब सूख गई है। उसको तुमने भोजन ही नहीं दिया। तुम भूल ही गए हो कि उसको भोजन की कोई जरूरत है। शरीर तुम्हारा भोजन कर रहा है, आत्मा उपवासी है। इसीलिए अनेक धर्मों ने उपवास का उपयोग किया। शरीर को उपवास करवाओ थोड़े दिन और आत्मा को भोजन दो। विपरीत करो प्रक्रिया को।
लेकिन जरूरी नहीं है कि तुम शरीर को भूखा मारो। शरीर को उसकी जरूरत दो; लेकिन तुम्हारे जीवन की सारी चेष्टा शरीर को ही भरने में पूरी न हो जाए। तुम्हारे जीवन की चेष्टा का बड़ा अंश ज्ञान को जन्माने में लगे; क्योंकि वही तुम्हारी आत्मा का भोजन है।
‘ज्ञान ही अन्न है। विद्या के संहार से स्वप्न पैदा होते हैं।’
और अगर यह ज्ञान तुम्हारे भीतर न गया और तुम्हारे भीतर की ज्योति को ईंधन न मिला, तो फिर तुम्हारे जीवन में स्वप्न पैदा होते हैं। तब तुम्हारे जीवन में वासनाएं पैदा होती हैं। तब तुम्हारा जीवन अंधेरे में भटकता है। तब तुम कल्पना में जीते हो। तब तुम तृष्णा में जीते हो। तब बस तुम सोचते ही रहते हो।मैं मुल्ला नसरुद्दीन से पूछा कि इस वर्ष कहां जाने के इरादे हैं? क्योंकि अक्सर वे यात्रा पर जाते हैं। तो उन्होंने कहा कि मैं तीन वर्ष में एक ही बार यात्रा पर जाता हूं। मैंने पूछा, तो बाकी दो वर्ष क्या करते हैं? तो उन्होंने कहा, एक वर्ष तो पिछली यात्रा जो की, उसको सोचने में, उसका रस लेने में बिताते हैं। और एक वर्ष अगली यात्रा की योजना बनाने में बिताते हैं।
फिर भी मुल्ला नसरुद्दीन कम से कम तीन साल में एक बार यात्रा पर जाते हैं, तुम एक बार भी नहीं गए। तुम्हारा आधा जीवन अतीत के सोचने में जाता है और आधा भविष्य के सोचने में; यात्रा तो कभी शुरू ही नहीं होती। या तो तुम स्मृति में भटकते रहते हो, जो कि स्वप्न है मरा हुआ; और या तुम कल्पना में भटकते रहते हो, जो कि स्वप्न है भविष्य का, जो अभी जन्मा नहीं। तुम दोनों में कटे हो; और मध्य में है वर्तमान, वहां है जीवन; उससे तुम वंचित रह जाते हो।
ज्ञान तुम्हें जगाएगा–अभी और यहीं, इस क्षण के प्रति। ज्ञान तुम्हें वर्तमान में लाएगा। अतीत खो जाएगा; खो ही गया है; तुम व्यर्थ ही उस राख को ढो रहे हो। भविष्य अभी आया नहीं; तुम उसे ला भी नहीं सकते। जब आएगा, तब आएगा। वर्तमान अभी मौजूद है। जो मौजूद है, वही सत्य है। स्वप्न का अर्थ है: जो मौजूद नहीं है, उसमें भटकना।
यह सूत्र ध्यान रखना: ‘विद्या के संहार से स्वप्न पैदा होते हैं।’
जब तुम्हारे भीतर ज्ञान नहीं होता, आत्मा जाग्रत नहीं होती, तो तुम सपनों में खोते हो। अतीत-भविष्य सब कुछ हो जाते हैं, वर्तमान ना-कुछ। और वर्तमान ही सब कुछ है। जैसे-जैसे तुम जागोगे, वैसे-वैसे अतीत कम, भविष्य कम, वर्तमान ज्यादा होगा। जिस दिन तुम पूरे जागोगे, उस दिन सिर्फ वर्तमान रह जाता है। उस दिन न कोई भविष्य है, न कोई अतीत है। और जब अतीत नहीं, भविष्य नहीं, तो चित्त के सारे रोग, सारी पुनरुक्तियां, सारे वर्तुल नष्ट हो जाते हैं। तब तुम यहां हो–शुद्ध, निर्मल, निर्दोष, ताजे; जैसे सुबह की ओस। तब तुम यहां हो–जैसे कमल का फूल। इस क्षण में अगर तुम पूरे के पूरे मौजूद हो जाओ, तो तुम परमात्मा हो।
इस क्षण में तुम बिलकुल मौजूद नहीं हो; इसलिए तुम शरीर हो, मन हो, लेकिन आत्मा नहीं। ध्यान सिर्फ इसी बात की चेष्टा है कि तुम्हें खींच कर अतीत से यहां ले आए, भविष्य से खींच कर यहां ले आए। तुम न तो आगे जाओ, न पीछे जाओ; तुम यहीं खड़े हो जाओ। यहीं, अभी, इसी क्षण में परिपूर्ण रूप से शांत, सजग होकर खड़े हो जाना ध्यान है। उससे ही विद्या का जन्म है। उससे ही तुम्हें जीवन का चरम उत्कर्ष और जीवन की चरम समाधि और आनंद उपलब्ध होगा। उसे जिसने खोया, सब खोया। उसे जो पा लेता है, वह सब पा लेता है।
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३