ओशो– आदमी सिर्फ एक ओपनिंग बन सकता है उसके आगमन के लिए। हमारे प्रयास सिर्फ द्वार खोलते हैं, आना तो उसकी कृपा से ही होता है। लेकिन उसकी कृपा हर द्वार पर प्रकट होती है। लेकिन कुछ द्वार बंद हैं, वह क्या करे? बहुत द्वारों पर ईश्वर खटखटाता है और लौट जाता है; वे द्वार बंद हैं। मजबूती से हमने बंद किए हैं। और जब वह खटखटाता है, तब हम न मालूम कितनी व्याख्याएं करके अपने को समझा लेते हैं।एक छोटी सी कहानी मुझे प्रीतिकर है, वह मैं कहूं।
एक बड़ा मंदिर, उस बड़े मंदिर में सौ पुजारी, बड़े पुजारी ने एक रात स्वप्न देखा है कि प्रभु ने खबर की है स्वप्न में कि कल मैं आ रहा हूं। विश्वास तो न हुआ पुजारी को, क्योंकि पुजारियों से ज्यादा अविश्वासी आदमी खोजना सदा ही कठिन है। विश्वास इसलिए भी न हुआ कि जो दुकान करते हैं धर्म की, उन्हें धर्म पर कभी विश्वास नहीं होता। धर्म से वे शोषण करते हैं, धर्म उनकी श्रद्धा नहीं है। और जिसने श्रद्धा को शोषण बनाया, उससे ज्यादा अश्रद्धालु कोई भी नहीं होता।
पुजारी को भरोसा तो न आया कि भगवान आएगा, कभी नहीं आया। वर्षों से पुजारी है, वर्षों से पूजा की है, भगवान कभी नहीं आया। भगवान को भोग भी लगाया है, वह भी अपने को ही लग गया है। भगवान के लिए प्रार्थनाएं भी की हैं, वे भी खाली आकाश में— जानते हुए कि कोई नहीं सुनता— की हैं। सपना मालूम होता है। समझाया अपने मन को कि सपने कहीं सच होते हैं! लेकिन फिर डरा भी, भयभीत भी हुआ कि कहीं सच ही न हो जाए। कभी—कभी सपने भी सच हो जाते हैं; कभी—कभी जिसे हम सच कहते हैं, वह भी सपना हो जाता है, कभी—कभी जिसे हम सपना कहते हैं, वह सच हो जाता है। तो अपने निकट के पुजारियों को उसने कहा कि सुनो, बड़ी मजाक मालूम पड़ती है, लेकिन बता दूं। रात सपना देखा कि भगवान कहते हैं कि कल आता हूं। दूसरे पुजारी भी हंसे; उन्होंने कहा, पागल हो गए! सपने की बात किसी और से मत कहना, नहीं तो लोग पागल समझेंगे। पर उस बड़े पुजारी ने कहा कि कहीं अगर वह आ ही गया! तो कम से कम हम तैयारी तो कर लें! नहीं आया तो कोई हर्ज नहीं, आया तो हम तैयार तो मिलेंगे। तो मंदिर धोया गया, पोंछा गया, साफ किया गया, फूल लगाए गए, दीये जलाए गए; सुगंध छिडकी गई, धूप—दीप सब; भोग बना, भोजन बने। दिन भर में पुजारी थक गए; कई बार देखा सड़क की तरफ, तो कोई आता हुआ दिखाई न पड़ा। और हर बार जब देखा तब लौटकर कहा, सपना सपना है, कौन आता है! नाहक हम पागल बने। अच्छा हुआ, गांव में खबर न की, अन्यथा लोग हंसते। सांझ हो गई। फिर उन्होंने कहा, अब भोग हम अपने को लगा लें। जैसे सदा भगवान के लिए लगा भोग हमको मिला, यह भी हम ही को लेना पड़ेगा। कभी कोई आता है! सपने के चक्कर में पड़े हम, पागल बने हम— जानते हुए पागल बने। दूसरे पागल बनते हैं न जानते हुए, हम…….हम जो जानते हैं भलीभांति कभी कोई भगवान नहीं आता। भगवान है कहां? बस यह मंदिर की मूर्ति है, ये हम पुजारी हैं, यह हमारी पूजा है, यह व्यवसाय है। फिर सांझ उन्होंने भोग लगा लिया, दिन भर के थके हुए वे जल्दी ही सो गए।
आधी रात गए कोई रथ मंदिर के द्वार पर रुका। रथ के पहियों की आवाज सुनाई पड़ी। किसी पुजारी को नींद में लगा कि मालूम होता है उसका रथ आ गया। उसने जोर से कहा, सुनते हो, जागो! मालूम होता है जिसकी हमने दिन भर प्रतीक्षा की, वह आ गया! रथ के पहियों की जोर—जोर की आवाज सुनाई पड़ती है!
दूसरे पुजारियों ने कहा, पागल, अब चुप भी रहो; दिन भर पागल बनाया, अब रात ठीक से सो लेने दो। यह पहियों की आवाज नहीं, बादलों की गड़गड़ाहट है। और वे सो गए, उन्होंने व्याख्या कर ली।
फिर कोई मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़ा, रथ द्वार पर रुका, फिर किसी ने द्वार खटखटाया, फिर किसी पुजारी की नींद खुली, फिर उसने कहा कि मालूम होता है वह आ गया मेहमान जिसकी हमने प्रतीक्षा की! कोई द्वार खटखटाता है! लेकिन दूसरों ने कहा कि कैसे पागल हो, रात भर सोने दोगे या नहीं? हवा के थपेडे हैं, कोई द्वार नहीं थपथपाता है। उन्होंने फिर व्याख्या कर ली, फिर वे सो गए। फिर सुबह वे उठे, फिर वे द्वार पर गए। किसी के पद—चिह्न थे, कोई सीढ़ियां चढ़ा था, और ऐसे पद—चिह्न थे जो बिलकुल अशात थे। और किसी ने द्वार जरूर खटखटाया था। और राह तक कोई रथ भी आया था। रथ के चाको के चिह्न थे। वे छाती पीटकर रोने लगे। वे द्वार पर गिरने लगे। गांव की भीड़ इकट्ठी हो गई। वह उनसे पूछने लगी, क्या हो गया है तुम्हें? वे पुजारी कहने लगे, मत पूछो। हमने व्याख्या कर ली और हम मर गए। उसने द्वार खटखटाया, हमने समझा हवा के थपेडे हैं। उसका रथ आया, हमने समझी बादलों की गड़गड़ाहट है। और सच यह है कि हम कुछ भी न समझे थे, हम केवल सोना चाहते थे, और इसलिए हम व्याख्या कर लेते थे। तो वह तो सभी के द्वार खटखटाता है। उसकी कृपा तो सब द्वारों पर आती है। लेकिन हमारे द्वार हैं बंद। और कभी हमारे द्वार पर दस्तक भी दे तो हम कोई व्याख्या कर लेते हैं।
पुराने दिनों के लोग कहते थे, अतिथि देवता है। थोड़ा गलत कहते थे। देवता अतिथि है। देवता रोज ही अतिथि की तरह खड़ा है। लेकिन द्वार तो खुला हो! उसकी कृपा सब पर है।
इसलिए ऐसा मत पूछें कि उसकी कृपा से मिलता है। लेकिन उसकी कृपा से ही मिलता है, हमारे .प्रयास सिर्फ द्वार खोल पाते हैं, सिर्फ मार्ग की बाधाएं अलग कर पाते हैं, जब वह आता है, अपने से आता है।
🍁🍁ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३🍁🍁 जिन खोजा तिन पाइयां-(प्रवचन-04) प्रभु—कृपा और साधक का प्रयास