धार्मिक आदमी स्वभावतः संकटग्रस्त होता है, अर्जुन मनुष्य का प्रतीक है; दुर्योधन पशु का प्रतीक है; कृष्ण परमात्मा के प्रतीक हैं

प्रश्न: भगवान, अर्जुन युद्धभूमि पर गया। उसने स्वजन, गुरुजन और मित्रों को देखा तो शोक से भर गया; विषाद हुआ उसको। उसका चित्त हिंसक था। युद्धभूमि पर दुर्योधन भी था, युधिष्ठिर भी था, द्रोणाचार्य भी थे और भी जो बहुत से थे, उनके भी स्वजन-मित्र थे। उनका भी चित्त हिंसा तथा ममत्व से भरा हुआ था, तो अर्जुन को ही सिर्फ विषाद क्यों हुआ?
ओशो- निश्चय ही, दुर्योधन भी वहां था, और भी योद्धा वहां थे, उन्हें क्यों विषाद न हुआ? वे भी ममत्व से भरे लोग थे। वे भी हिंसा से भरे लोग थे। नहीं हुआ; कारण है। हिंसा भी अंधी हो सकती है, विचारहीन हो सकती है। ममत्व भी अंधा हो सकता है, विचारहीन हो सकता है। हिंसा भी आंख वाली हो सकती है, विचारपूर्ण हो सकती है। ममत्व भी आंख वाला हो सकता है और विचारपूर्ण हो सकता है।
सुबह मैंने कहा था कि अर्जुन की कठिनाई यही है कि वह विचारहीन नहीं है। विचार है। और विचार दुविधा में डालता है। विचार ने दुविधा में डाला उसे। दुर्योधन को भी दिखाई पड़ रहा है, लेकिन हिंसा इतनी अंधी है कि यह नहीं देख पाएगा दुर्योधन कि इस हिंसा के पीछे मैं उन सबको मार डालूंगा, जिनके बिना हिंसा भी व्यर्थ हो जाती है। अंधेपन में यह दिखाई नहीं पड़ेगा। अर्जुन उतना अंधा नहीं है। इसलिए अर्जुन उस युद्ध के स्थल पर विशेष है। विशेष इन अर्थों में है कि जीवन की तैयारी उसकी वही है, जो दुर्योधन की है; जीवन की तैयारी उसकी वही है, जो दुर्योधन की है, लेकिन मन की तैयारी उसकी भिन्न है। मन में उसके विचार है, संदेह है, डाउट है। मन में उसके शक है। वह पूछ सकता है, वह प्रश्न उठा सकता है। और जिज्ञासा का बुनियादी सूत्र उसके पास है।
और सबसे बड़े प्रश्न वे नहीं हैं, जो हम जगत के संबंध में उठाते हैं। सबसे बड़े प्रश्न वे नहीं हैं, जो हम पूछते हैं कि किसने जगत बनाया? सबसे बड़े प्रश्न वे नहीं हैं, जो हम पूछते हैं कि ईश्वर है या नहीं? सबसे बड़े प्रश्न वे हैं, जो हमारे मन के ही कांफ्लिक्ट, मन के ही द्वंद्व से जन्मते हैं। लेकिन अपने ही मन के द्वंद्व को देख पाने के लिए विचार चाहिए, चिंतन चाहिए, मनन चाहिए।
अर्जुन सोच पा रहा है, देख पा रहा है कि मैं जो हिंसा करने जा रहा हूं, उसमें वे ही लोग मर जाएंगे, जिनके लिए हिंसा करने का कुछ अर्थ हो सकता है। अंधा नहीं है। और यह अंधा न होना ही उसका कष्ट भी है, उसका सौभाग्य भी है।
इसे समझ लेना उचित है। अंधा नहीं है, यह उसका कष्ट है। दुर्योधन कष्ट में नहीं है। दुर्योधन के लिए युद्ध एक रस है। अर्जुन के लिए युद्ध एक संकट और कष्ट हो गया। सौभाग्य भी यही है। यदि वह इस कष्ट को पार हो जाता है, तो निर्विचार में पहुंच सकेगा। अगर वह इस कष्ट को पार हो जाता है, तो परमात्मा में समर्पण को पहुंच सकेगा। अगर वह इस कष्ट को पार हो जाता है, तो ममत्व को छोड़ने में पहुंच सकेगा। अगर इस कष्ट को पार नहीं हो पाता, तो निश्चित ही यह युद्ध उसके लिए विकट संकट होगा, जिसमें वह स्किजोफ्रेनिक हो जाएगा, जिसमें उसका व्यक्तित्व दो खंडों में टूट जाएगा। या तो भाग जाएगा, या लड़ेगा बेमन से और हार जाएगा।
जो लड़ाई बेमन से लड़ी जाए, वह हारी ही जाने वाली है। क्योंकि बेमन से लड़ने का मतलब है, आधा मन भाग रहा है, आधा मन लड़ रहा है। और जो आदमी अपने भीतर ही विपरीत दिशाओं में गति करता हो, उसकी पराजय निश्चित है। दुर्योधन जीतेगा फिर। पूरे मन से लड़ रहा है। कुएं में भी गिर रहा है, तो पूरे मन से गिर रहा है; अंधकार में भी जा रहा है, तो पूरे मन से जा रहा है।
असल में अंधकार में दो ही व्यक्ति पूरे मन से जा सकते हैं, एक तो वह, जो अंधा है। क्योंकि उसे अंधकार और प्रकाश से कोई अंतर नहीं पड़ता। एक वह, जिसके पास आत्मिक प्रकाश है। क्योंकि तब अंधकार को, उसका होना ही अंधकार को मिटा देता है।
अर्जुन या तो दुर्योधन जैसा हो जाए, नीचे गिर जाए, विचार से विचारहीनता में गिर जाए, तो युद्ध में चला जाएगा। और या कृष्ण जैसा हो जाए, विचार से निर्विचार में पहुंच जाए, इतना ज्योतिर्मय हो जाए, इतना ज्योति से भर जाए भीतरी कि देख पाए कि कौन मरता है, कौन मारा जाता है! देख पाए कि यह जो सब हो रहा है, स्वप्न से ज्यादा नहीं है। या तो इतने बड़े सत्य को देख पाए तो युद्ध में जा सकता है, या इतने बड़े असत्य को देख पाए कि हम उनको ही मारकर आनंद को उपलब्ध हो जाएंगे, जिनके लिए मारने की चेष्टा कर रहे हैं! या तो दुर्योधन के असत्य में उतर जाए, तो अर्जुन निश्चिंत हो जाएगा; या कृष्ण के सत्य में पहुंच जाए, तो अर्जुन निश्चिंत हो जाएगा।
अर्जुन एक तनाव है।
नीत्शे ने कहीं कहा है कि आदमी एक सेतु है, ए ब्रिज, दो अलग-अलग पारों को जोड़ता हुआ। आदमी एक तनाव है। या तो पशु हो जाए, तो सुख को पा ले; या परमात्मा हो जाए, तो आनंद को पा ले। लेकिन जब तक आदमी है, तब तक सुख भी नहीं पा सकता; तब तक आनंद भी नहीं पा सकता; तब तक सुख और आनंद के बीच सिर्फ खिंच सकता है; एंग्जाइटी और तनाव भर हो सकता है।
इसीलिए हम दोनों काम करते हैं जीवन में। शराब पीकर पशु हो जाते हैं, थोड़ा सुख मिलता है। सेक्स में थोड़ा सुख मिलता है; पशु में वापस उतर जाते हैं। नीचे गिर जाते हैं विचार से, तो थोड़ा सुख मिलता है।
दुनिया में शराब का इतना आकर्षण किसी और कारण से नहीं है। शराब हमें वापस पशु में पहुंचा देने की सुविधा बन जाती है; नशा करके हम वहीं हो जाते हैं, जहां सभी पशु हैं। फिर हम पशु जैसे निश्चिंत हैं, क्योंकि पशु कोई चिंता नहीं करता। कोई पशु पागल नहीं होता। सिर्फ सर्कस के पशु पागल होते हैं। क्योंकि सर्कस का पशु करीब-करीब आदमी की हालत में आ जाता है। आदमी करीब-करीब सर्कस के पशु की हालत में है। कोई पशु पागल नहीं होता। और किसी पशु के लिए विक्षिप्तता, चिंता, अनिद्रा, इनसोमेनिया–ऐसी बीमारियां नहीं आतीं। कोई पशु आत्मघात नहीं करता; स्युसाइड नहीं करता। क्योंकि आत्मघात के लिए बहुत चिंता इकट्ठी हो जानी जरूरी है।
बड़े मजे की बात है कि कोई पशु बोर्डम अनुभव नहीं करता; वह कभी ऊबता नहीं है। एक भैंस है; वह रोज वही घास चर रही है, चरती रहेगी; वह कभी नहीं ऊबती। ऊबने का कोई सवाल नहीं है। ऊबने के लिए विचार चाहिए। बोर्डम के लिए, ऊब के लिए विचार चाहिए। इसलिए मनुष्यों में जो जितना ज्यादा विचारशील है, उतना ऊबेगा। मनुष्यों में जो जितना ज्यादा विचारशील है, उतना चिंता से भर जाएगा। मनुष्यों में जो जितना ज्यादा विचारशील है, वह पागल हो सकता है। मनुष्यों में जो जितना ज्यादा विचारशील है, वह विक्षिप्त हो सकता है। लेकिन यह एक ही पहलू है।
दूसरा पहलू यह है कि जो विक्षिप्त होने की स्थिति को पार कर जाए, वह विमुक्त भी हो सकता है। और जो चिंता को पार कर जाए, वह निश्चिंतता के सजग आनंद को उपलब्ध हो सकता है। और जो तनाव को पार कर जाए, वह विश्रांति के उस अनुभव को पा सकता है, जो सिर्फ परमात्मा में विश्राम से उपलब्ध होती है।
अर्जुन मनुष्य का प्रतीक है; दुर्योधन पशु का प्रतीक है; कृष्ण परमात्मा के प्रतीक हैं। वहां तीन प्रतीक हैं उस युद्ध-स्थल पर। अर्जुन डांवाडोल है। वह दुर्योधन और कृष्ण के बीच डांवाडोल है। उसे निश्चिंतता मिल सकती है, ही कैन बी ऐट ईज़, अगर वह दुर्योधन हो जाए, अगर वह कृष्ण हो जाए। अर्जुन रहते कोई सुविधा नहीं है। अर्जुन रहते तनाव है। अर्जुन रहते मुश्किल है। उसकी मुश्किल यही है कि दुर्योधन हो नहीं सकता; कृष्ण होना समझ में नहीं आता; और जो है, वहां टिक नहीं सकता। क्योंकि वह बीच की तरंग भर है, वहां टिका नहीं जा सकता। कोई भी सेतु मकान बनाने के लिए नहीं होता।
अकबर ने फतेहपुर सीकरी बनाई, तो वहां एक पुल पर, एक ब्रिज पर उसने वाक्य लिखवाया–सेतु पार करने को है, सेतु निवास के लिए नहीं है।
ठीक ही है। जो भी आदमी सेतु पर निवास बनाएगा, वह मुश्किल में पड़ेगा। कहीं भी लौट जाएं–पशु हो जाएं कि परमात्मा हो जाएं–आदमी नियति नहीं है। आदमी होना संकट है, क्राइसिस है। आदमी अंत नहीं है। आदमी, अगर ठीक से हम समझें तो, न तो पशु है और न परमात्मा है। न तो वह पशु हो पाता है, क्योंकि पशु को पार कर चुका। और न वह परमात्मा हो पाता है, क्योंकि परमात्मा को पहुंचना है। मनुष्य सिर्फ परमात्मा और पशु के बीच डोलता हुआ अस्तित्व है।
हम चौबीस घंटे में कई बार दोनों कोनों पर पहुंच जाते हैं। क्रोध में वही आदमी पशु के निकट आ जाता है, शांति में वही आदमी परमात्मा के निकट पहुंच जाता है। हम दिन में चौबीस घंटे में बहुत बार नर्क और स्वर्ग की यात्रा कर लेते हैं–बहुत बार। क्षण में स्वर्ग में होते हैं, क्षण में नर्क में उतर जाते हैं। नर्क में पछताते हैं, फिर स्वर्ग की चेष्टा शुरू हो जाती है। स्वर्ग में पैर जमा नहीं पाते, फिर नर्क में पहुंचना शुरू हो जाता है।
और तनाव का एक नियम है कि तनाव सदा विपरीत में आकर्षण पैदा कर देता है। जैसे घड़ी का पेंडुलम होता है। वह बाईं तरफ जाता है। जब बाईं तरफ जाता है, तब हमें लगता है कि बाईं तरफ जा रहा है। लेकिन जो घड़ी के विज्ञान को समझते हैं, वे यह भी जानते हैं कि वह बाईं तरफ जाते समय दाईं तरफ जाने की शक्ति इकट्ठी कर रहा है, मोमेंटम इकट्ठा कर रहा है। वह जितनी दूर बाईं तरफ जाएगा, उतनी ही दूर दाईं तरफ जाने की ताकत इकट्ठी कर रहा है। असल में वह बाईं तरफ इसीलिए जा रहा है कि दाईं तरफ जा सके। और दाईं तरफ जाते वक्त इसीलिए जा रहा है कि बाईं तरफ जा सके।
आदमी पूरे समय पशु और परमात्मा के बीच पेंडुलम की तरह घूम रहा है। अर्जुन आदमी का प्रतीक है। और आज के आदमी का तो और भी ज्यादा है। आज के आदमी की चेतना ठीक अर्जुन की चेतना है। इसलिए दुनिया में दोनों बातें एक साथ हैं, एक ओर मनुष्य अपनी चेतना को समाधि तक ले जाने के लिए आतुर है; और दूसरी तरफ आदमी एल एस डी से, मैस्कलीन से, मारिजुआना से, शराब से, सेक्स से पशु की तरफ ले जाने को आतुर है।
और अक्सर ऐसा होगा कि एक ही आदमी ये दोनों काम करता हुआ मालूम पड़ेगा। वही आदमी भारत की यात्रा पर आएगा, वही आदमी अमेरिका में एल एस डी लेता रहेगा। वह दोनों एक साथ कर रहा है।
मनुष्य बेहोश हो जाए, तो पशु हो सकता है। लेकिन बेहोश ज्यादा देर नहीं रहा जा सकता। बेहोशी के सुख भी होश में ही अनुभव हो पाते हैं। बेहोशी में बेहोशी का सुख भी अनुभव नहीं होता। शराब का भी मजा, जब शराब पीए होता है आदमी, तब पता नहीं चलता। पता तो तभी चलता है, जब शराब का नशा उतर जाता है। नींद में जब आप होते हैं, तब नींद का कोई मजा पता नहीं चलता। वह सुबह जागकर पता चलता है कि बड़ी आनंदपूर्ण निद्रा थी। बेहोशी के सुख के लिए होश में आना जरूरी है। और होश में कोई सुख नहीं मालूम पड़ता, इसलिए फिर बेहोशी में उतरना पड़ता है।
अर्जुन मनुष्य की चेतना है, इसलिए अदभुत है। गीता इसीलिए अदभुत है कि वह मनुष्य की बहुत आंतरिक मनःस्थिति का आधार है। मनुष्य की आंतरिक मनःस्थिति अर्जुन के साथ कृष्ण का जो संघर्ष है पूरे समय, वह जो अर्जुन के साथ कृष्ण का संवाद है या विवाद है, वह जो अर्जुन को खींच-खींचकर परमात्मा की तरफ लाने की चेष्टा है, और अर्जुन वापस शिथिल-गात होकर बैठ जाता है; वह फिर पशु में गिरना चाहता है; यह जो संघर्ष है, वह अर्जुन के लिए है, दुर्योधन के लिए नहीं। दुर्योधन निश्चिंत है। अर्जुन भी वैसा हो तो निश्चिंत हो सकता है। वैसा नहीं है।
हममें भी जो दुर्योधन की तरह हैं, वे निश्चिंत हैं; वे मकान बना रहे हैं; वे दिल्ली में, राजधानियों के सिंहासन चढ़ रहे हैं; वे धन कमा रहे हैं। हममें भी जो अर्जुन की तरह हैं, वे बेचैन और परेशान हैं। वे बेचैन हैं इसलिए कि जहां हैं, वह जगह घर बनाने योग्य नहीं मालूम पड़ती। जहां से आ गए हैं, वहां से आगे बढ़ गए हैं, पीछे लौटना संभव नहीं है। जहां पहुंचे नहीं हैं, उसका कोई पता नहीं है कि वह कहां है मार्ग; वह मंदिर कहां है! उसका कोई पता नहीं है।
धार्मिक आदमी स्वभावतः संकटग्रस्त होता है, क्राइसिस में होता है। अधार्मिक आदमी क्राइसिस में नहीं होता। इसलिए मंदिरों में बैठा आदमी ज्यादा चिंतित दिखाई पड़ेगा, बजाय कारागृहों में बैठे आदमी के। कारागृह में बैठा आदमी इतना चिंतित नहीं मालूम पड़ता है, निश्चिंत है। एक किनारे पर वह है, वह सेतु पर नहीं है। एक अर्थों में वह सौभाग्यशाली मालूम पड़ सकता है, ईर्ष्या-योग्य, कितना निश्चिंत है! लेकिन उसका सौभाग्य बड़े गहरे अभिशाप को छिपाए है। वह इसी तट पर रह जाएगा। उसमें अभी मनुष्य की किरण भी पैदा नहीं हुई।
मनुष्य के साथ ही उपद्रव शुरू होता है, मनुष्य के साथ ही संताप शुरू होता है, क्योंकि मनुष्य के साथ ही परमात्मा होने की संभावना, पोटेंशियलिटी के द्वार खुलते हैं।
वह अर्जुन पशु होना नहीं चाहता; स्थिति पशु होने की है; परमात्मा होने का उसे पता नहीं है। बहुत गहरी अनजान में आकांक्षा परमात्मा होने की ही है, इसीलिए वह पूछ रहा है; इसीलिए प्रश्न उठा रहा है; इसीलिए जिज्ञासा जगा रहा है। जिसके जीवन में भी प्रश्न हैं, जिसके जीवन में भी जिज्ञासा है, जिसके जीवन में भी असंतोष है–उसके जीवन में धर्म आ सकता है। जिसके जीवन में नहीं है चिंता, नहीं है प्रश्न, नहीं है संदेह, नहीं है जिज्ञासा, नहीं है असंतोष–उसके जीवन में धर्म के आने की कोई सुविधा नहीं है।
जो बीज टूटेगा अंकुरित होने को, चिंता में पड़ेगा। बीज बहुत मजबूत चीज है, अंकुर बहुत कमजोर होता है! बीज बड़ा निश्चिंत होता है, अंकुर बड़ी चिंता में पड़ जाता है। अंकुर निकलता है जमीन से पत्थरों को तोड़कर। अंकुर जैसी कमजोर चीज पत्थरों को तोड़कर, मिट्टी को काटकर बाहर निकलती है, अज्ञात, अनजाने जगत में, जिसका कोई परिचय नहीं, कोई पहचान नहीं। कोई बच्चा तोड़ डालेगा; कोई पशु चर जाएगा; किसी के पैर के नीचे दबेगा! क्या होगा, क्या नहीं होगा! बीज अपने में रहे, तो बहुत निश्चिंत है। न किसी बच्चे के पैर के नीचे दबेगा, न कोई अज्ञात के खतरे हैं; अपने में बंद है।
दुर्योधन बीज में बंद जैसा व्यक्ति है, निश्चिंत है। अर्जुन अंकुरित है; अंकुर चिंतित है, अंकुर बेचैन है। क्या होगा? फूल आएंगे कि नहीं? बीज होना छोड़ दिया, अब फूल आएंगे कि नहीं? फूल के लिए, बढ़ने के लिए आतुर है। वही आतुरता उसे कृष्ण से निरंतर प्रश्न पुछवाए चली जाती है। इसलिए अर्जुन के मन में चिंता है, प्रश्न हैं, दुर्योधन के मन में नहीं।… 9 क्रमशः
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३