जहां-जहां मेरा संबंध है, वहां-वहां प्रेम फलित नहीं होता, केवल कलह ही फलित होता है। इसलिए दुनिया में जब तक पति-पत्नी मेरे का दावा करेंगे, बाप-बेटे मेरे का दावा करेंगे, तब तक दुनिया में बाप-बेटे, पति-पत्नी के बीच कलह ही चल सकता है, मैत्री नहीं हो सकती

 जहां-जहां मेरा संबंध है, वहां-वहां प्रेम फलित नहीं होता, केवल कलह ही फलित होता है। इसलिए दुनिया में जब तक पति-पत्नी मेरे का दावा करेंगे, बाप-बेटे मेरे का दावा करेंगे, तब तक दुनिया में बाप-बेटे, पति-पत्नी के बीच कलह ही चल सकता है, मैत्री नहीं हो सकती

मैं उन लोगों को देखता हूं जो यहां लड़ते हुए एकत्र हुए हैं
युद्ध में दुष्ट धृतराष्ट्र को प्रसन्न करने की इच्छा रखना | 23.
संजय ने
गुडाकेश द्वारा इस प्रकार संबोधित करते हुए कहा, हे भरत, हृषिकेश।
दोनों सेनाओं के बीच श्रेष्ठ रथों की नियुक्ति | 24.
युद्ध में दुष्ट दुर्योधन का हित करने की इच्छा से जो यहाँ एकत्र हुए हैं, उन सब योद्धाओं को मैं देखूँ, इसलिये मेरा रथ खड़ा करो। संजय ने कहा: हे भरत धृतराष्ट्र, जब अर्जुन ने भगवान कृष्ण से यह कहा, तो भगवान ने दोनों सेनाओं के बीच सर्वश्रेष्ठ रथ खड़ा किया और भीष्म, द्रोण और अन्य सभी राजाओं के सामने कहा: हे अर्जुन, इन एकत्रित कौरवों को देखो।
भीष्म और द्रोण सबसे आगे और सभी राजा
उन्होंने कहा, हे अर्जुन, देखो ये कौरव इकट्ठे हुए हैं। 25.
वहाँ परदादा अर्जुन ने अपने पिता-दादाओं को खड़े देखा।
शिक्षक, मामा, भाई, बेटे, पोते और दोस्त 26.
दोनों सेनाओं के ससुर और मित्र।
अर्जुन ने वहां खड़े अपने सभी रिश्तेदारों की ओर देखा 27.
अत्यंत करुणा से अभिभूत और निराश होकर उसने निम्नलिखित शब्द कहे। युद्ध के लिए उत्सुक इन सगे बंधुओं को व्यूहबद्ध देखकर
अर्जुन ने कहा हे कृष्ण!
28.
मेरे हाथ-पैर दर्द कर रहे हैं और मेरा मुँह सूख गया है।
मुझे कंपकंपी महसूस होती है और मेरे शरीर पर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। 29.
ओशो- अर्जुन को दोनों सेनाओं में केवल चाचा, दादा, गुरु, ताऊ, भाई, पुत्र, पौत्र, समवयस्क, श्वसुर, मित्र, सभी रिश्तेदार ही दिखाई दिए। उन सभी भाई-बहनों को युद्ध के लिये तैयार देखकर अर्जुन को उन पर बड़ी दया आयी। उसने निराश होकर भगवान से यह बात कही। अर्जुन ने कहा: हे कृष्ण, युद्ध की इच्छा से उपस्थित इन पुत्रों, पौत्रों और अन्य रिश्तेदारों को देखकर मेरा शरीर शिथिल हो रहा है, मेरा मुंह सूख रहा है, मेरा शरीर कांप रहा है, मैं भय और दुःख से कराह रहा हूं।
अर्जुन न तो युद्ध से पीड़ित है और न ही युद्ध-विरोधी है। हिंसा को लेकर भी उनके मन में कोई अरुचि नहीं है. उनके पूरे जीवन की शिक्षा, उनके पूरे जीवन का अनुष्ठान हिंसा और युद्ध के लिए है। लेकिन, यह समझने जैसा है कि मन जितना हिंसक होगा, मन उतना ही स्नेहपूर्ण होगा। हिंसा और प्रेम साथ-साथ रहते हैं। अहिंसक मन प्रेम के भी बाहर हो जाता है।
दरअसल, जिसे अहिंसक होना है उसे मैं का भाव छोड़ना होगा। मेरी भावना हिंसा है. क्योंकि जैसे ही मैं कहता हूं मेरा, जो मेरा नहीं है वह अलग होना शुरू हो जाता है। जैसे ही मैं किसी को मित्र कहता हूं, मैं शत्रु बनाना शुरू कर देता हूं। जैसे मैं अपनी सीमाएँ खींचता हूँ, वैसे ही मैं अजनबियों की सीमाएँ भी खींचता हूँ। सारी हिंसा, हमारे और दूसरों के बीच खींची गई सीमा से उत्पन्न होती है। प्रेम हिंसा है. अगर हम इसे नहीं समझेंगे तो पूरी गीता को समझना मुश्किल हो जाएगा। जो लोग इसे नहीं समझ सके, उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि अर्जुन का झुकाव अहिंसा की ओर था, कृष्ण ने उसे हिंसा की ओर झुकाया! जिसका झुकाव अहिंसा की ओर है, कृष्ण हिंसा की ओर झुकना नहीं चाहेंगे। जो अहिंसा की तरफ झुकता है, कृष्ण उसे हिंसा की तरफ झुकाना भी चाहें तो नहीं झुका पाएंगे।
तो अर्जुन निश्चिंत हो गये. उसके अंग शिथिल हो गये। इसलिए नहीं कि उसने स्वयं को युद्ध से अलग कर लिया; इसलिए नहीं कि जो हिंसा हुई उसमें उन्हें कुछ बुरा नज़र आया; इसलिए नहीं कि उनके मन में अहिंसा के प्रति कोई आकस्मिक आकर्षण पैदा हो गया था; बल्कि, ऐसा इसलिए था क्योंकि हिंसा के दूसरे पहलू ने ही, हिंसा के ही गहरे पहलू ने, हिंसा के मूल आधार ने ही, उसके भीतर से उसके मन को पकड़ लिया था–ममत्व ने उसके मन को पकड़ लिया था।
लेकिन अर्जुन अहिंसा की तरफ रत्तीभर नहीं झुक रहा है। अर्जुन का चित्त हिंसा के गहरे आधार पर जाकर अटक गया है। वह हिंसा का ही आधार है। उसे दिखाई पड़े अपने ही लोग–प्रियजन, संबंधी। काश! वहां प्रियजन और संबंधी न होते, तो अर्जुन भेड़-बकरियों की तरह लोगों को काट सकता था। अपने थे, इसलिए काटने में कठिनाई मालूम पड़ी। पराए होते, तो काटने में कोई कठिनाई न मालूम पड़ती।
और अहिंसा केवल उसके ही चित्त में पैदा होती है, जिसका अपना-पराया मिट गया हो। अर्जुन, यह जो संकटग्रस्त हुआ उसका चित्त, यह अहिंसा की तरफ आकर्षण से नहीं, हिंसा के ही मूल आधार पर पहुंचने के कारण है। स्वभावतः, इतने संकट के क्षण में, इतने क्राइसिस के मोमेंट में हिंसा की जो बुनियादी आधारशिला थी, वह अर्जुन के सामने प्रकट हुई। अगर पराए होते तो अर्जुन को पता भी न चलता कि वह हिंसक है; उसे पता भी न चलता कि उसने कुछ बुरा किया; उसे पता भी न चलता कि युद्ध अधार्मिक है। उसके गात शिथिल न होते, बल्कि परायों को देखकर उसके गात और तन जाते। उसके धनुष पर बाण आ जाता; उसके हाथ पर तलवार आ जाती। वह बड़ा प्रफुल्लित होता।
लेकिन वह एकदम उदास हो गया। इस उदासी में उसे अपने चित्त की हिंसा का मूल आधार दिखाई पड़ा। उसे दिखाई पड़ा, इस संकट के क्षण में उसे ममत्व दिखाई पड़ा!
यह बड़े आश्चर्य की बात है कि अक्सर हम अपने चित्त की गहराइयों को केवल संकट के क्षणों में ही देख पाते हैं। साधारण क्षणों में हम चित्त की गहराइयों को नहीं देख पाते। साधारण क्षणों में हम साधारण जीते हैं। असाधारण क्षणों में, जो हमारे गहरे से गहरे में छिपा है, वह प्रकट होना शुरू हो जाता है।
अर्जुन को दिखाई पड़ा, मेरे लोग! युद्ध की वीभत्सता ने, युद्ध की सन्निकटता ने, बस अब युद्ध शुरू होने को है, तब उसे दिखाई पड़ा, मेरे लोग!
काश! अर्जुन ने कहा होता, युद्ध व्यर्थ है, हिंसा व्यर्थ है, तो गीता की किताब निर्मित न होती। लेकिन उसने कहा, अपने ही लोग इकट्ठे हैं; उनको काटने के विचार से ही मेरे अंग शिथिल हुए जाते हैं। असल में जिसने अपने जीवन के भवन को अपनों के ऊपर बनाया है, उन्हें काटते क्षण में उसके अंग शिथिल हों, यह बिलकुल स्वाभाविक है।
मृत्यु होती है पड़ोस में, छूती नहीं मन को! कहते हैं, बेचारा मर गया। घर में होती है, तब इतना कहकर नहीं निपट पाते। तब छूती है। क्योंकि जब घर में होती है, अपना कोई मरता है, तो हम भी मरते हैं। हमारा भी एक हिस्सा मरता है। हमारा भी इनवेस्टमेंट था उस आदमी में। हम भी उसमें कुछ लगाए थे। उसकी जिंदगी से हमें भी कुछ मिलता था। हमारे मन के भी किसी कोने को उस आदमी ने भरा था।
पत्नी मरती है, तो पत्नी ही नहीं मरती, पति भी मरता है। सच तो यह है कि पत्नी के साथ ही पति पैदा हुआ था, उसके पहले पति नहीं था। पत्नी मरती है तो पति भी मरता है। बेटा मरता है, तो मां भी मरती है; क्योंकि मां बेटे के पहले मां नहीं थी, मां बेटे के जन्म के साथ ही हुई है। जब बेटा जन्मता है, तो एक तरफ बेटा जन्मता है, दूसरी तरफ मां भी जन्मती है। और जब बेटा मरता है, तो एक तरफ बेटा मरता है, दूसरी तरफ मां भी मरती है। जिसे हमने अपना कहा है, उससे हम जुड़े हैं, हम भी मरते हैं।
अर्जुन ने जब देखा कि अपने ही सब इकट्ठे हैं, तो अर्जुन को अगर अपना ही आत्मघात, स्युसाइड दिखाई पड़ा हो तो आश्चर्य नहीं है। अर्जुन घबड़ाया नहीं दूसरों की मृत्यु से; अर्जुन घबड़ाया आत्मघात की संभावना से। उसे लगा, सब अपने मर जाएं, तो मैं बचूंगा कहां!
यह थोड़ा सोचने जैसा है। हमारा मैं, हमारे अपनों के जोड़ का नाम है। जिसे हम मैं कहते हैं, वह मेरों के जोड़ का नाम है। अगर मेरे सब मेरे विदा हो जाएं, तो मैं खो जाऊंगा। मैं बच नहीं सकता। यह मेरा मैं, कुछ मेरे पिता से, कुछ मेरी मां से, कुछ मेरे बेटे से, कुछ मेरे मित्र से–इन सबसे जुड़ा है।
आश्चर्य तो यह है कि जिन्हें हम अपने कहते हैं, उनसे ही नहीं जुड़ा है, जिन्हें हम पराए कहते हैं, उनसे भी जुड़ा है–परिधि के बाहर–लेकिन उनसे भी जुड़ा है। तो जब मेरा शत्रु मरता है, तब भी थोड़ा मैं मरता हूं। क्योंकि मैं फिर वही नहीं हो सकूंगा, जो मेरे शत्रु के होने पर मैं था। शत्रु भी मेरी जिंदगी को कुछ देता था। मेरा शत्रु था, होगा शत्रु, पर मेरा शत्रु था। उससे भी मेरे मैं का संबंध था। उसके बिना मैं फिर अधूरा और खाली हो जाऊंगा।
अर्जुन को, दूसरों का घात होगा, ऐसा दिखाई पड़ता, तो बात और थी। अर्जुन को बहुत गहरे में दिखाई पड़ा कि यह तो मैं अपनी ही आत्महत्या करने को उत्सुक हुआ हूं; यह तो मैं ही मरूंगा। मेरे मर जाएंगे, तो मेरे होने का क्या अर्थ है! जब मेरे ही न होंगे, तो मुझे सब मिल जाए तो भी व्यर्थ है।
यह भी थोड़ा सोचने जैसा है। हम अपने लिए जो कुछ इकट्ठा करते हैं, वह अपने लिए कम, अपनों के लिए ज्यादा होता है। जो मकान हम बनाते हैं, वह अपने लिए कम, अपनों के लिए ज्यादा होता है। उन अपनों के लिए भी जो साथ रहेंगे, और उन अपनों के लिए भी जो देखेंगे और प्रशंसा करेंगे, और उन पराए-अपनों के लिए भी, जो जलेंगे और ईर्ष्या से भरेंगे।
अगर इस पृथ्वी पर सबसे श्रेष्ठ भवन भी मेरे पास रह जाए और अपने न रह जाएं–मित्र भी नहीं, शत्रु भी नहीं–तो अचानक मैं पाऊंगा, वह भवन झोपड़ी से भी बदतर हो गया है। क्योंकि वह भवन एक फसाड, एक दिखावा था। उस भवन के माध्यम से अपनों को, परायों को मैं प्रभावित कर रहा था। वह भवन तो सिर्फ प्रभावित करने की एक व्यवस्था थी। अब मैं किसे प्रभावित करूं!
आप जो कपड़े पहनते हैं, वह अपने शरीर को ढंकने को कम, दूसरे की आंखों को झपने को ज्यादा है। अकेले में सब बेमानी हो जाता है। आप जो सिंहासनों पर चढ़ते हैं, वह सिंहासनों पर बैठने के आनंद के लिए कम–क्योंकि कोई सिंहासन पर बैठकर कभी किसी आनंद को उपलब्ध नहीं हुआ है–पर अपनों और परायों में जो हम सिंहासन पर चढ़कर, जो करिश्मा, जो चमत्कार पैदा कर पाते हैं, उसके लिए ज्यादा है। सिंहासन पर बैठे आप रह जाएं और नीचे से लोग खो जाएं, अचानक आप पाएंगे, सिंहासन पर बैठे होना हास्यास्पद हो गया। उतर आएंगे; फिर शायद दुबारा नहीं चढ़ेंगे।
अर्जुन को लगा उस क्षण में कि अपने ही इकट्ठे हैं दोनों तरफ। मरेंगे अपने ही। अगर जीत भी गया, तो जीत का प्रयोजन क्या है? जीत के लिए जीत नहीं चाही जाती। जीत रस है, अपनों और परायों के बीच जो अहंकार भरेगा, उसका! साम्राज्य मिलेगा, क्या होगा अर्थ? कोई अर्थ न होगा।
यह जो अर्जुन के मन में विषाद घिर गया, इसे ठीक से समझ लेना चाहिए। यह विषाद ममत्व का है। यह विषाद हिंसक चित्त का है। और इस विषाद के कारण ही कृष्ण को इतने धक्के देने पड़े अर्जुन को। अर्जुन की जगह अगर महावीर जैसा व्यक्ति होता, तो बात उसी वक्त खत्म हो गई होती। यह बात आगे नहीं चल सकती थी। अगर महावीर जैसा व्यक्ति होता, तो शायद यह बात उठ भी नहीं सकती थी। शायद महावीर जैसा व्यक्ति होता, तो कृष्ण एक शब्द भी उस व्यक्ति से न बोले होते। बोलने का कोई अर्थ न था। बात समाप्त ही हो गई होती।
यह गीता कृष्ण ने कही कम, अर्जुन ने कहलवाई ज्यादा है। इसका असली ऑथर, लेखक कृष्ण नहीं हैं; इसका असली लेखक अर्जुन है। अर्जुन की यह चित्त-दशा आधार बनी है। और कृष्ण को साफ दिखाई पड़ रहा है कि एक हिंसक अपनी हिंसा के पूरे दर्शन को उपलब्ध हो गया है। और अब हिंसा से भागने की जो बातें कर रहा है, उनका कारण भी हिंसक चित्त है। अर्जुन की दुविधा अहिंसक की हिंसा से भागने की दुविधा नहीं है। अर्जुन की दुविधा हिंसक की हिंसा से ही भागने की दुविधा है।
इस सत्य को ठीक से समझ लेना जरूरी है। यह ममत्व हिंसा ही है, लेकिन गहरी हिंसा है, दिखाई नहीं पड़ती। जब मैं किसी को कहता हूं मेरा, तो पजेशन शुरू हो गया, मालकियत शुरू हो गई। मालकियत हिंसा का एक रूप है। पति पत्नी से कहता है, मेरी। मालकियत शुरू हो गई। पत्नी पति से कहती है, मेरे। मालकियत शुरू हो गई। और जब भी हम किसी व्यक्ति के मालिक हो जाते हैं, तभी हम उस व्यक्ति की आत्मा का हनन कर देते हैं। हमने मार डाला उसे। हमने तोड़ डाला उसे। असल में हम उस व्यक्ति के साथ व्यक्ति की तरह नहीं, वस्तु की तरह व्यवहार कर रहे हैं। अब कुर्सी मेरी जिस अर्थ में होती है, उसी अर्थ में पत्नी मेरी हो जाती है। मकान मेरा जिस अर्थ में होता है, उसी अर्थ में पति मेरा हो जाता है।
स्वभावतः, इसलिए जहां-जहां मेरे का संबंध है, वहां-वहां प्रेम फलित नहीं होता, सिर्फ कलह ही फलित होती है। इसलिए दुनिया में जब तक पति-पत्नी मेरे का दावा करेंगे, बाप-बेटे मेरे का दावा करेंगे, तब तक दुनिया में बाप-बेटे, पति-पत्नी के बीच कलह ही चल सकती है, मैत्री नहीं हो सकती। मेरे का दावा, मैत्री का विनाश है। मेरे का दावा, चीजों को उलटा ही कर देता है। सब हिंसा हो जाती है।
मैंने सुना है, एक आदमी ने शादी की है, लेकिन पत्नी बहुत पढ़ी-लिखी नहीं है। मन में बड़ी इच्छा है कि पत्नी कभी पत्र लिखे। घर से बाहर पति गया है, तो उसे समझाकर गया है। थोड़ा लिख लेती है। समझाकर गया है, क्या-क्या लिखना। सभी पति-पत्नी एक-दूसरे को समझा रहे हैं, क्या-क्या लिखना!
उसने बताया था, ऊपर लिखना, प्राणों से प्यारे–कभी ऐसा होता नहीं है–नीचे लिखना, चरणों की दासी। पत्नी का पत्र तो मिला, लेकिन कुछ भूल हो गई। उसने ऊपर लिखा, चरणों के दास। और नीचे लिखा, प्राणों की प्यासी।
जो नहीं लिखते हैं, उनकी स्थिति भी ऐसी ही है। जो बिलकुल ठीक-ठीक लिखते हैं, उनकी स्थिति भी ऐसी ही है। जहां आग्रह है मालकियत का, वहां हम सिर्फ घृणा ही पैदा करते हैं। और जहां घृणा है, वहां हिंसा आएगी। इसलिए हमारे सब संबंध हिंसा के संबंध हो गए हैं। हमारा परिवार हिंसा का संबंध होकर रह गया है।
यह जो अर्जुन को दिखाई पड़ा, मेरे सब मिट जाएंगे तो मैं कहां! और मेरों को मिटाकर जीत का, साम्राज्य का क्या अर्थ है! इससे वह अहिंसक नहीं हो गया है, अन्यथा कृष्ण आशीर्वाद देते और कहते, विदा हो जा, बात समाप्त हो गई। लेकिन कृष्ण देख रहे हैं कि हिंसक वह पूरा है। मैं और ममत्व की बात कर रहा है, इसलिए अहिंसा झूठी है।
जो मैं की बात कर रहा हो और अहिंसा की बात कर रहा हो, तो जानना कि अहिंसा झूठी है। क्योंकि मैं के आधार पर अहिंसा का फूल खिलता ही नहीं। मेरे के आधार पर अहिंसा के जीवन का कोई विकास ही नहीं होता।.... 8 क्रमशः 

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई- ३