अगर हम जगत के सारे बड़े वैज्ञानिकों के–आइंस्टीन के, मैक्स प्लांक के या एडिंग्टन के या एडीसन के–इनके अगर हम अनुभव पढ़ें, तो इन सब का अनुभव यह है कि जो भी हमने जाना, वह हमने नहीं जाना “ओशो”
प्रश्न: भगवान, वैज्ञानिक-सिद्धि में व्यक्ति का अपना कुछ होता है। और अज्ञात इस वैज्ञानिक- सिद्धि में कैसे उतरता होगा, यह तकलीफ की बात बन जाती है!
ओशो- ऐसा साधारणतः लगता है कि वैज्ञानिक खोज में व्यक्ति की अपनी इच्छा काम करती है; ऐसा बहुत ऊपर से देखने पर लगता है; बहुत भीतर से देखने पर ऐसा नहीं लगेगा। अगर जगत के बड़े से बड़े वैज्ञानिकों को हम देखें तो हम बहुत हैरान हो जाएंगे। जगत के सभी बड़े वैज्ञानिकों के अनुभव बहुत और हैं। कालेज, युनिवर्सिटीज में विज्ञान की जो धारणा पैदा होती है, वैसा अनुभव उनका नहीं है।
मैडम क्यूरी ने लिखा है कि मुझे एक सवाल दिनों से पीड़ित किए हुए है। उसे हल करती हूं और हल नहीं होता है। थक गई हूं, परेशान हो गई हूं, आखिर हल करने की बात छोड़ दी है। और एक रात दो बजे वैसे ही कागजात टेबल पर अधूरे छोड़कर सो गई हूं और सोच लिया कि अब इस सवाल को छोड़ ही देना है।
थक गया व्यक्ति। लेकिन सुबह उठकर देखा है कि आधा सवाल जहां छोड़ा था, वह सुबह पूरा हो गया है। कमरे में तो कोई आया नहीं, द्वार बंद थे। और कमरे में भी कोई आकर उसको हल कर सकता था, जिसको मैडम क्यूरी हल नहीं कर सकती थी, इसकी भी संभावना नहीं है। नोबल-प्राइज-विनर थी वह महिला। घर में नौकर-चाकर ही थे, उनसे तो कोई आशा नहीं है। वह तो और बड़ा मिरेकल होगा कि घर में नौकर-चाकर आकर हल कर दें। लेकिन हल तो हो गया है। और आधा ही छोड़ा था और आधा पूरा है। तब बड़ी मुश्किल में पड़ गई। सब द्वार-दरवाजे देखे। कोई परमात्मा उतर आए, इसकी भी आस्था उसे नहीं हो सकती। कोई परमात्मा ऐसे ऊपर से उतर भी नहीं आया था।
लेकिन गौर से देखा तो पाया कि बाकी अक्षर भी उसके ही हैं। तब उसे खयाल आना शुरू हुआ कि रात वह नींद में सपने में उठी। सपने का उसे याद आ गया कि वह सपने में उठी है। उसने सपना देखा कि वह सवाल हल कर रही है। वह नींद में उठी है रात में और उसने सवाल हल किया है। फिर तो यह उसकी व्यवस्थित विधि हो गई कि जब कोई सवाल हल न हो, तब वह उसे तकिए के नीचे दबाकर सो जाए; रात उठकर हल कर ले।
दिनभर तो मैडम क्यूरी इंडिविजुअल थी, व्यक्ति थी। रात नींद में अहं खो जाता है, बूंद सागर से मिल जाती है। और जो सवाल हमारा चेतन मन नहीं खोज पाया, वह हमारा अचेतन, गहरे में जो परमात्मा से जुड़ा है, खोज पाता है।
आर्किमिडीज एक सवाल हल कर रहा था, वह हल नहीं होता था। वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया था। सम्राट ने कहा था, हल करके ही लाओ। आर्किमिडीज की सारी प्रतिष्ठा हल करने पर ही निर्भर थी, लेकिन थक गया। रोज सम्राट का संदेश आता है कि कब तक हल करोगे?
सम्राट को किसी ने एक सोने का बहुत कीमती आभूषण भेंट किया था। लेकिन सम्राट को शक था कि धोखा दिया गया है, और सोने में कुछ मिला है। लेकिन बिना आभूषण को मिटाए पता लगाना है कि उसमें कोई और धातु तो नहीं मिली है! अब उस वक्त तक कोई उपाय नहीं था जानने का। और बड़ा था आभूषण। उसमें कहीं बीच में अगर अंदर कोई चीज डाल दी गई हो, तो वजन तो बढ़ ही जाएगा।
आर्किमिडीज थक गया, परेशान हो गया। फिर एक दिन सुबह अपने टब में लेटा हुआ है, पड़ा हुआ है! बस, अचानक, नंगा ही था, सवाल हल हो गया। भागा! भूल गया–आर्किमिडीज अगर होता, तो कभी न भूलता कि मैं नंगा हूं–सड़क पर आ गया! और चिल्लाने लगा, इरेका, इरेका, मिल गया। और भागा राजमहल की तरफ। लोगों ने पकड़ा कि क्या कर रहे हो? राजा के सामने नंगे पहुंच जाओगे? उसने कहा, लेकिन यह तो मुझे खयाल ही न रहा! घर वापिस आया।
यह जो आदमी सड़क पर पहुंच गया था नग्न, यह आर्किमिडीज नहीं था। आर्किमिडीज सड़क पर नहीं पहुंच सकता था। यह व्यक्ति नहीं था। और यह जो हल हुआ था सवाल, यह व्यक्ति की चेतना में हल नहीं हुआ था। यह निर्व्यक्ति-चेतना में हल हुआ था। वह बाथरूम में पड़ा था अपने टब में–रिलैक्स्ड, शिथिल। ध्यान घट गया, भीतर उतर गया–सवाल हल हो गया। जो सवाल स्वयं से हल न हुआ था, वह टब ने हल कर दिया? टब हल करेगा सवाल को? जो स्वयं से हल नहीं हुआ था, वह पानी में लेटने से हल हो जाएगा? पानी में लेटने से कोई बुद्धि बढ़ जाती है? जो कपड़े पहने हल नहीं हुआ था, वह नंगे होने से हल हो जाएगा?
नहीं, कुछ और घटना घट गई है। यह व्यक्ति नहीं रहा कुछ देर के लिए, अव्यक्ति हो गया। यह कुछ देर के लिए ब्रह्म के स्रोत में खो गया।
अगर हम जगत के सारे बड़े वैज्ञानिकों के–आइंस्टीन के, मैक्स प्लांक के या एडिंग्टन के या एडीसन के–इनके अगर हम अनुभव पढ़ें, तो इन सब का अनुभव यह है कि जो भी हमने जाना, वह हमने नहीं जाना। निरंतर ही ऐसा हुआ है कि जब हमने जाना, तब हम न थे और जानना घटित हुआ है। यही उपनिषद के ऋषि कहते हैं, यही वेद के ऋषि कहते हैं, यही मोहम्मद कहते हैं, यही जीसस कहते हैं।
अगर हम कहते हैं कि वेद अपौरुषेय हैं, तो उसका और कोई मतलब नहीं। उसका यह मतलब नहीं कि ईश्वर उतरा और उसने किताब लिखी। ऐसी पागलपन की बातें करने की कोई जरूरत नहीं है। अपौरुषेय का इतना ही मतलब है कि जिस पुरुष पर यह घटना घटी, उस वक्त वह मौजूद नहीं था; उस वक्त मैं मौजूद नहीं था। जब यह घटना घटी, जब यह उपनिषद का वचन उतरा किसी पर और जब यह मोहम्मद पर कुरान उतरी और जब ये बाइबिल के वचन जीसस पर उतरे, तो वे मौजूद नहीं थे।
धर्म और विज्ञान के अनुभव भिन्न-भिन्न नहीं हैं; हो नहीं सकते; क्योंकि अगर विज्ञान में कोई सत्य उतरता है, तो उसके उतरने का भी मार्ग वही है जो धर्म में उतरता है, जो धर्म के उतरने का मार्ग है। सत्य के उतरने का एक ही मार्ग है, जब व्यक्ति नहीं होता तो परमात्मा से सत्य उतरता है; हमारे भीतर जगह खाली हो जाती है, उस खाली जगह में सत्य प्रवेश करता है।
दुनिया में कोई भी ढंग से–चाहे कोई संगीतज्ञ, चाहे कोई चित्रकार, चाहे कोई कवि, चाहे कोई वैज्ञानिक, चाहे कोई धार्मिक, चाहे कोई मिस्टिक–दुनिया में जिन्होंने भी सत्य की कोई किरण पाई है, उन्होंने तभी पाई है, जब वे स्वयं नहीं थे। यह धर्म को तो बहुत पहले से खयाल में आ गया। लेकिन धर्म का अनुभव दस हजार साल पुराना है। दस हजार साल में धार्मिक-फकीर को, धार्मिक-संत को, धार्मिक-योगी को यह अनुभव हुआ कि यह मैं नहीं हूं।
यह बड़ी मुश्किल बात है। जब पहली दफा आपके भीतर परमात्मा से कुछ आता है, तब डिस्टिंक्शन करना बहुत मुश्किल होता है कि यह आपका है कि परमात्मा का है। जब पहली दफा आता है तो डांवाडोल होता है मन कि मेरा ही होगा और अहंकार की इच्छा भी होती है कि मेरा ही हो। लेकिन धीरे-धीरे, धीरे-धीरे जब दोनों चीजें साफ होती हैं और पता चलता है कि आप और इस सत्य में कहीं कोई तालमेल नहीं बनता, तब फासला दिखाई पड़ता है, डिस्टेंस दिखाई पड़ता है।
विज्ञान की उम्र नई है अभी–दो-तीन सौ साल। लेकिन दो-तीन सौ साल में वैज्ञानिक विनम्र हुआ है। आज से पचास साल पहले वैज्ञानिक कहता था, जो खोजा, वह हमने खोजा। आज नहीं कहता। आज वह कहता है, हमारी सामर्थ्य के बाहर मालूम पड़ता है सब। आज का वैज्ञानिक उतनी ही मिस्टिसिज्म की भाषा में बोल रहा है, उतने ही रहस्य की भाषा में, जितना संत बोले थे।
इसलिए जल्दी न करें! और सौ साल, और वैज्ञानिक ठीक वही भाषा बोलेगा, जो उपनिषद बोलते हैं। बोलनी ही पड़ेगी वही भाषा, जो बुद्ध बोलते हैं। बोलनी ही पड़ेगी वही भाषा, जो अगस्तीन और फ्रांसिस बोलते हैं। बोलनी ही पड़ेगी। बोलनी पड़ेगी इसलिए कि जितना-जितना सत्य का गहरा अनुभव होगा, उतना-उतना व्यक्ति का अनुभव क्षीण होता है। और जितना सत्य प्रगट होता है, उतना ही अहंकार लीन होता है। और एक दिन पता चलता है कि जो भी जाना गया है, वह प्रसाद है; वह ग्रेस है; वह उतरा है; उसमें मैं नहीं हूं। और जो-जो मैंने नहीं जाना, उसकी जिम्मेवारी मेरी है, क्योंकि मैं इतना मजबूत था कि जान नहीं सकता था। मैं इतना गहन था कि सत्य नहीं उतर सकता था। सत्य उतरता है खाली चित्त में, शून्य चित्त में। और असत्य उतारना हो, तो मैं की मौजूदगी जरूरी है।
विज्ञान की खोज को बाधा नहीं पड़ेगी। जो खोज हुई है, वह भी अज्ञात के संबंध से ही हुई है; समर्पण से हुई है। और जो खोज होगी आगे, वह भी समर्पण से ही होगी। समर्पण के द्वार के अतिरिक्त सत्य कभी किसी और द्वार से न आया है, न आ सकता है।….. 5 क्रमशः
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३