आदमी की जात बड़ी अदभुत है, जो मर जाते हैं, उनकी बातें सुन कर लोग खुश होते हैं और जो जिंदा होते हैं, उन्हें मार डालने की धमकी देते हैं “ओशो”

 आदमी की जात बड़ी अदभुत है, जो मर जाते हैं, उनकी बातें सुन कर लोग खुश होते हैं और जो जिंदा होते हैं, उन्हें मार डालने की धमकी देते हैं “ओशो”

सम्भोग से समाधि की ओर (जीवन उर्जा रुपांतरण का विज्ञान)

ओशो- मित्रों ने बहुत से प्रश्न पूछे हैं। सबसे पहले एक मित्र ने पूछा है कि भगवान, मैंने बोलने के लिए सेक्स या काम का विषय क्यों चुना है?
इसकी थोड़ी सी कहानी है। एक बड़ा बाजार है। उस बड़े बाजार को कुछ लोग बंबई कहते हैं। उस बड़े बाजार में एक सभा थी। और उस सभा में एक पंडित जी, कबीर क्या कहते हैं, इस संबंध में बोलते थे। उन्होंने कबीर की एक पंक्ति कही और उसका अर्थ समझाया। उन्होंने कहा कि कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ; जो घर बारै आपना, चले हमारे साथ। उन्होंने यह कहा कि कबीर बाजार में खड़ा था और चिल्ला कर लोगों से कहने लगा कि लकड़ी उठा कर मैं बुलाता हूं उन्हें, जो अपने घर को जलाने की हिम्मत रखते हों, वे हमारे साथ आ जाएं।
उस सभा में मैंने देखा कि लोग यह बात सुन कर बहुत खुश हुए। मुझे बड़ी हैरानी हुई! मुझे हैरानी यह हुई कि वे जो लोग खुश हो रहे थे, उनमें से कोई भी अपने घर को जलाने को कभी भी तैयार नहीं था। लेकिन उन्हें प्रसन्न देख कर मैंने समझा कि बेचारा कबीर आज होता तो कितना खुश न होता! जब तीन सौ साल पहले वह था और किसी बाजार में उसने चिल्ला कर कहा होगा, तो एक भी आदमी खुश नहीं हुआ होगा। आदमी की जात बड़ी अदभुत है। जो मर जाते हैं, उनकी बातें सुन कर लोग खुश होते हैं। और जो जिंदा होते हैं, उन्हें मार डालने की धमकी देते हैं।
मैंने सोचा, आज कबीर होते इस बंबई के बड़े बाजार में, तो कितने खुश होते कि लोग कितने प्रसन्न हो रहे हैं! कबीर जी क्या कहते हैं, इसको सुन कर लोग प्रसन्न हो रहे हैं। कबीर जी को सुन कर वे कभी भी प्रसन्न नहीं हुए थे।
लेकिन लोगों को प्रसन्न देख कर मुझे ऐसा लगा कि जो लोग अपने घर को जलाने के लिए भी हिम्मत रखते हैं और खुश होते हैं, उनसे आज कुछ दिल की बातें कही जाएं। तो मैं भी उसी धोखे में आ गया, जिसमें कबीर और क्राइस्ट और सारे लोग हमेशा आते रहे हैं। तो मैंने लोगों से सत्य की कुछ बात कहनी चाही। और सत्य के संबंध में कोई बात कहनी हो तो उन असत्यों को सबसे पहले तोड़ देना जरूरी है जो आदमी ने सत्य समझ रखे हैं। जिन्हें हम सत्य समझते हैं और जो सत्य नहीं हैं, जब तक उन्हें न तोड़ दिया जाए, तब तक सत्य क्या है, उसे जानने की तरफ कोई कदम नहीं उठाया जा सकता है।
मुझे कहा गया था उस सभा में कि मैं प्रेम के संबंध में कुछ कहूं। और मुझे लगा कि प्रेम के संबंध में तब तक बात समझ में नहीं आ सकती, जब तक कि हम काम और सेक्स के संबंध में कुछ गलत धारणाएं लिए हुए बैठे हैं। अगर गलत धारणाएं हैं सेक्स के संबंध में, तो प्रेम के संबंध में हम जो भी बातचीत करेंगे, वह अधूरी होगी, वह झूठी होगी, वह सत्य नहीं हो सकती।
इसलिए उस सभा में मैंने काम और सेक्स के संबंध में कुछ कहा। और यह कहा कि काम की ऊर्जा ही रूपांतरित होकर प्रेम की अभिव्यक्ति बनती है।
एक आदमी खाद खरीद लाता है, गंदी और बदबू से भरी हुई। और अगर अपने घर के पास ढेर लगा ले तो सड़क पर से निकलना मुश्किल हो जाएगा, इतनी दुर्गंध वहां फैलेगी। लेकिन एक दूसरा आदमी उसी खाद को बगीचे में डालता है और फूलों के बीज डालता है। फिर वे बीज बड़े होते हैं, पौधे बनते हैं, और फूल आते हैं। और फूलों की सुगंध पास-पड़ोस के घरों में निमंत्रण बन कर पहुंच जाती है। राह से निकलते हुए लोगों को भी वह सुगंध छूती है, वह पौधों का लहराता हुआ संगीत अनुभव होता है। लेकिन शायद ही कभी आपने सोचा हो कि फूलों से जो सुगंध बन कर प्रकट हो रहा है, वह वही दुर्गंध है जो खाद से प्रकट होती थी। खाद की दुर्गंध बीजों से गुजर कर फूलों की सुगंध बन जाती है।
दुर्गंध सुगंध बन सकती है। काम प्रेम बन सकता है।
लेकिन जो काम के विरोध में हो जाएगा, वह उसे प्रेम कैसे बनाएगा? जो काम का शत्रु हो जाएगा, वह उसे कैसे रूपांतरित करेगा? इसलिए काम को, सेक्स को समझना जरूरी है–यह मैंने वहां कहा–और उसे रूपांतरित करना जरूरी है।
मैंने सोचा था, जो लोग सिर हिलाते थे घर जल जाने पर, वे लोग मेरी बातें सुन कर बड़े खुश होंगे। लेकिन मुझसे गलती हो गई। जब मैं मंच से उतरा, तो उस मंच पर जितने नेता थे, जितने संयोजक थे, वे सब भाग चुके थे। वे मुझे उतरते वक्त मंच पर कोई भी नहीं मिले। वे शायद अपने घर चले गए होंगे, कहीं घर में आग न लग जाए, उसे बुझाने का इंतजाम करने भाग गए थे। मुझे धन्यवाद देने को भी संयोजक वहां नहीं थे। जितनी भी सफेद टोपियां थीं, जितने भी खादी वाले लोग थे, वे मंच पर कोई भी नहीं थे, वे जा चुके थे। नेता बड़ा कमजोर होता है, वह अनुयायियों के पहले भाग जाता है।
लेकिन कुछ हिम्मतवर लोग जरूर ऊपर आए। कुछ बच्चे आए, कुछ बच्चियां आईं; कुछ बूढ़े, कुछ जवान। और उन्होंने मुझसे कहा कि आपने वह बात हमें कही है, जो हमें किसी ने भी कभी नहीं कही। और हमारी आंखें खोल दी हैं। हमें बहुत ही प्रकाश अनुभव हुआ है।
तो फिर मैंने सोचा कि उचित होगा कि इस बात को और ठीक से पूरी तरह कहा जाए, इसलिए यह विषय मैंने आज यहां चुना। इन चार दिनों में वह कहानी जो वहां अधूरी रह गई थी, उसे पूरा करने का कारण यह था कि लोगों ने मुझे कहा। और वह उन लोगों ने कहा जिनकी जीवन को समझने की हार्दिक चेष्टा है। और उन्होंने चाहा कि मैं पूरी बात कहूं। एक तो कारण यह था।
और दूसरा कारण यह था कि वे जो लोग भाग गए थे मंच से, उन्होंने जगह-जगह जाकर कहना शुरू कर दिया कि मैंने तो ऐसी बातें कही हैं जिनसे धर्म का विनाश हो जाएगा! मैंने तो ऐसी बातें कही हैं जिनसे कि लोग अधार्मिक हो जाएंगे!
तो मुझे लगा कि उनका भी कहना पूरा स्पष्ट हो सके, उनको भी पता चल सके कि लोग सेक्स के संबंध में समझ कर अधार्मिक होने वाले नहीं हैं। नहीं समझा है उन्होंने आज तक, इसलिए अधार्मिक हो गए हैं। अज्ञान अधार्मिक बना सकता है; ज्ञान कभी भी अधार्मिक नहीं बना सकता। और अगर ज्ञान अधार्मिक बनाता हो, तो मैं कहता हूं कि ऐसा ज्ञान उचित है जो अधार्मिक बना दे, उस अज्ञान की बजाय जो कि धार्मिक बनाता हो। क्योंकि जो अज्ञान धार्मिक बनाता हो, तो वह धर्म भी दो कौड़ी का है जो अज्ञान की बुनियाद पर खड़ा होता हो। धर्म तो वही सत्य है जो ज्ञान के आधार पर खड़ा होता है।
और मुझे नहीं दिखाई पड़ता कि ज्ञान मनुष्य को कभी भी कोई हानि पहुंचा सकता है। हानि हमेशा अंधकार से पहुंचती है और अज्ञान से।
इसलिए अगर मनुष्य-जाति भ्रष्ट हो गई, यौन के संबंध में विकृत और विक्षिप्त हो गई, सेक्स के संबंध में पागल हो गई, तो उसका जिम्मा उन लोगों पर नहीं है जिन्होंने सेक्स के संबंध में ज्ञान की खोज की है। उसका जिम्मा उन नैतिक, धार्मिक और थोथे साधु-संतों पर है जिन्होंने मनुष्य को हजारों वर्षों से अज्ञान में रखने की चेष्टा की है। यह मनुष्य-जाति कभी की सेक्स से मुक्त हो गई होती। लेकिन नहीं यह हो सका। नहीं हो सका उनकी वजह से जो अंधकार कायम रखने की चेष्टा कर रहे हैं।
तो मैंने समझा कि अगर थोड़ी सी किरण से इतनी बेचैनी हुई है तो फिर पूरे प्रकाश की चर्चा कर लेनी उचित है। ताकि साफ हो सके कि ज्ञान मनुष्य को धार्मिक बनाता है या अधार्मिक बनाता है। यह कारण था इसलिए यह विषय चुना। और अगर यह कारण न होता तो शायद मुझे अचानक खयाल न आता इसे चुनने का। शायद इस पर मैं कोई बात न करता। इस लिहाज से वे लोग धन्यवाद के पात्र हैं जिन्होंने अवसर पैदा कर दिया और यह विषय मुझे चुनना पड़ा। और अगर आपको धन्यवाद देना हो तो मुझे मत देना। वह भारतीय विद्याभवन में जिन्होंने सभा आयोजित की थी, उनको धन्यवाद देना। उन्होंने ही यह विषय चुनवा दिया है। मेरा इसमें कोई हाथ नहीं है।… 36 क्रमशः 

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-3