हर आदमी के भीतर सौंदर्य के फूल भी खिल सकते हैं और कुरूपता के गंदे डबरे भी बन सकते हैं, प्रत्येक आदमी इन दो यात्राओं के बीच निरंतर डोल रहा है “ओशो”

 हर आदमी के भीतर सौंदर्य के फूल भी खिल सकते हैं और कुरूपता के गंदे डबरे भी बन सकते हैं, प्रत्येक आदमी इन दो यात्राओं के बीच निरंतर डोल रहा है “ओशो”

(सम्भोग से समाधि की ओर जीवन ऊर्जा रूपांतरण का विज्ञान) 

ओशो- एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा। बहुत वर्ष बीते, बहुत सदियां, किसी देश में एक बड़ा चित्रकार था। वह जब अपनी युवा अवस्था में था, उसने सोचा कि मैं एक ऐसा चित्र बनाऊं, जिसमें भगवान का आनंद झलकता हो। मैं ऐसी दो आंखें चित्रित करूं, जिनमें अनंत शांति झलकती हो। मैं ऐसे एक व्यक्ति को खोजूं, एक ऐसे मनुष्य को, जिसका चित्र, जीवन के जो पार है, जगत से जो दूर है, उसकी खबर लाता हो।
और वह अपने देश के गांव-गांव घूमा, जंगल-जंगल उसने छाना, उस आदमी को, जिसकी प्रतिछवि वह बना सके। और आखिर एक पहाड़ पर गाय चराने वाले एक चरवाहे को उसने खोज लिया। उसकी आंखों में कोई झलक थी। उसके चेहरे की रूप-रेखा में कोई दूर की खबर थी। उसे देख कर ही लगता था कि मनुष्य के भीतर परमात्मा भी है। उसने उसके चित्र को बनाया। उस चित्र की लाखों प्रतियां गांव-गांव, दूर-दूर के देशों में बिकीं। लोगों ने उस चित्र को घर में टांग कर अपने को धन्य समझा।
फिर बीस वर्ष बाद, वह चित्रकार बूढ़ा हो गया था। और उस चित्रकार को एक खयाल और आया। जीवन भर के अनुभव से उसे पता चला था कि आदमी में भगवान ही अगर अकेला होता तो ठीक था, आदमी में शैतान भी दिखाई पड़ता है। उसने सोचा कि मैं एक चित्र और बनाऊं, जिसमें आदमी के भीतर शैतान की छवि हो, तब मेरे दोनों चित्र पूरे मनुष्य के चित्र बन सकेंगे।
वह फिर गया बुढ़ापे में–जुआघरों में, शराबखानों में, पागलघरों में–उसने खोजबीन की उस आदमी की, जो आदमी न हो, शैतान हो; जिसकी आंखों में नरक की लपटें जलती हों; जिसके चेहरे की आकृति उस सबका स्मरण दिलाती हो, जो अशुभ है, कुरूप है, असुंदर है। वह पाप की प्रतिमा की खोज में निकला। एक प्रतिमा उसने परमात्मा की बनाई थी, वह एक प्रतिमा पाप की भी बनाना चाहता था।
और बहुत खोजने के बाद एक कारागृह में उसे एक कैदी मिल गया, जिसने सात हत्याएं की थीं और जो थोड़े ही दिनों बाद मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था, फांसी पर लटकाया जाने को था। उस आदमी की आंखों में नरक के दर्शन होते थे, घृणा जैसे साक्षात थी। उस आदमी की चेहरे की रूप-रेखा ऐसी थी कि वैसा कुरूप मनुष्य खोजना मुश्किल था।
उसने उसके चित्र को बनाया। जिस दिन उसका चित्र बन कर पूरा हुआ, वह अपने पहले चित्र को भी लेकर कारागृह में आया और दोनों चित्रों को पास-पास रख कर देखने लगा कि कौन सी कलाकृति श्रेष्ठ बनी है? तय करना मुश्किल था। चित्रकार खुद भी मुग्ध हो गया था। दोनों ही चित्र अदभुत थे। कौन सा श्रेष्ठ था, कला की दृष्टि से, यह तय करना मुश्किल था।
और तभी उस चित्रकार को पीछे किसी के रोने की आवाज सुनाई पड़ी। लौट कर देखा, तो वह कैदी जंजीरों में बंधा रो रहा है जिसकी उसने तस्वीर बनाई थी! वह चित्रकार हैरान हुआ। उसने कहा कि मेरे दोस्त, तुम क्यों रोते हो? चित्रों को देख कर तुम्हें क्या तकलीफ हुई?
उस आदमी ने कहा, मैंने इतने दिन तक छिपाने की कोशिश की, लेकिन आज मैं हार गया हूं। शायद तुम्हें पता नहीं कि पहली तस्वीर भी तुमने मेरी ही बनाई थी। ये दोनों तस्वीरें मेरी हैं। बीस साल पहले पहाड़ पर जो आदमी तुम्हें मिला था, वह मैं ही हूं। और इसलिए रोता हूं कि मैंने बीस साल में कौन सी यात्रा कर ली–स्वर्ग से नरक की! परमात्मा से पाप की!
पता नहीं यह कहानी कहां तक सच है। सच हो या न हो, लेकिन हर आदमी के जीवन में दो तस्वीरें हैं। हर आदमी के भीतर शैतान है और हर आदमी के भीतर परमात्मा भी। और हर आदमी के भीतर नरक की भी संभावना है और स्वर्ग की भी। हर आदमी के भीतर सौंदर्य के फूल भी खिल सकते हैं और कुरूपता के गंदे डबरे भी बन सकते हैं। प्रत्येक आदमी इन दो यात्राओं के बीच निरंतर डोल रहा है। ये दो छोर हैं, जिनमें से आदमी किसी को भी छू सकता है। और अधिक लोग नरक के छोर को छू लेते हैं और बहुत कम सौभाग्यशाली हैं जो अपने भीतर परमात्मा को उघाड़ पाते हों।….. 19 क्रमशः 

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३