पूंजीवाद के तंत्र का पूंजीपति भी उतना ही परेशान और पीड़ित हिस्सा है, जितना कि मजदूर और दलित “ओशो”
ओशो– एक दलित और मजदूर पीड़ित है संपत्ति के न होने से;एक पीड़ित और परेशान है संपत्ति के होने से। कल ही मैं किसी से यह बात कर रहा था तो उन्होंने कहा कि आपके भी बहुत से पूंजीपति मित्र हैं, उनमें से आपने किसी को बदला अब तक कि नहीं? मैंने उनसे कहा, मैं तो मानता नहीं कि बदला जा सकता है। इसलिए बदलने का सवाल नहीं। फिर मैं यह भी नहीं मानता कि पूंजीपति को बदलना है। पूंजीपति को नहीं बदलना, पूंजीवाद को बदलना है। पूंजीपति को बदलने से क्या होगा, पूंजीपति के बदलने से कुछ भी नहीं हो सकता। बड़ा तंत्र है पूंजीवाद का,पूंजीपति,कसूर भी नहीं है उसका कोई।मजदूर भी शिकार है इस तंत्र का, पूंजीपति भी शिकार है इस तंत्र का। वे दोनों ही इसके शिकार हैं, इस बड़े तंत्र के जो पूंजीवाद है। इस बड़े तंत्र के,पूंजीवाद के तंत्र का पूंजीपति भी उतना ही परेशान और पीड़ित हिस्सा है, जितना कि मजदूर और दलित पीड़ित हिस्सा है। एक दलित और पीड़ित है संपत्ति के न होने से; एक पीड़ित और परेशान है संपत्ति के होने से और चारों तरफ निर्धन की कतार जुड़ी होने से। एक आदमी अगर एक गांव में स्वस्थ हो और सारा गांव बीमार हो तो सारा गांव बीमारी से परेशान रहेगा और वह आदमी जो अकेला स्वस्थ रह गया है, स्वास्थ्य से परेशान रहेगा कि कब बीमार न पड़ जाऊं। अब बीमार न पड़ जाऊं। चारों तरफ बीमारी ही बीमारी है और ये बीमार सब मिल कर कहीं मुझे बीमार न कर दें। वह स्वास्थ्य का सुख नहीं ले पाएगा, जहां चारों तरफ टी.बी. और कैंसर और घाव भरे लोग घूम रहे हों।
एक गांव में सारे लोग सड़क पर सो रहे हों और एक आदमी महल बना ले तो महल में आराम से सो सकेगा? कैसे सो सकेगा? द्वार पर पहरेदार रखना पड़ेगा। पहरेदार के ऊपर दूसरा पहरेदार रखना पड़ेगा, क्योंकि पहरेदार भी रात को घुस सकता है महल में और छुरा भोंक सकता है। कैसे सो सकेगा आराम से? और इतनी दीनता, दरिद्रता उसके आस-पास फैल जाए तो उसके चित्त पर कोई परिणाम होगा कि नहीं? वह आदमी है या पत्थर? उसके चित्त में शांति कैसे हो सकेगी?
मैं बड़े से बड़े धनपतियों को जानता हूं, वे भी मेरे पास आते हैं और कहते हैं मन को शांत करने का कोई उपाय बताएं? मन बड़ा अशांत रहता है। मन अशांत नहीं रहेगा तो क्या होगा। जहां हमारे चारों तरफ इतना दुख होगा, इतना दारिद्रय होगा, इतनी दीनता होगी, हम कब तक अपने महल में यह विश्वास रख सकेंगे कि सब ठीक चल रहा है? यह कैसे हो सकेगा? और वह नीचे जो बढ़ती हुई दीनता और दरिद्रता है, उसकी लहरें, उसकी आहें, उसका रुदन, उसका उपद्रव रोज महलों से टकराएगा। रोज महलों की दीवालें घबड़ाएंगी कि कब गिर जाएं, कब गिर जाएं। उनको बचाने में उसके प्राण लग जाते हैं। जिसको हम पूंजीपति कहते हैं वह भी पीड़ित है, वह भी शिकार है।पूंजीवाद के दो शिकार हैं। एक वे जिनके पास पूंजी नहीं है और एक वे जिनके पास पूंजी है। जिस दिन पूंजीवाद जाएगा उस दिन गरीब गरीबी से मुक्त होगा और अमीरी अमीरी से मुक्त होगा। और ये दोनों रोग हैं, ये दोनों ही रोग हैं। इसलिए पूंजीवाद के जाने का मतलब पूंजीपति का अहित नहीं है। पूंजीवाद के जाने पर ही वह जो पूंजीवाद से पीड़ित व्यक्तित्व है वह भी मुक्त होकर मनुष्य का व्यक्तित्व बन सकेगा। जब तक कोई पूंजीपति है, तब तक मनुष्य नहीं हो पाता। तब तक आदमी नहीं हो पाता। तब तक वह खुल नहीं पाता, तब तक वह सहज नहीं हो पाता, तब तक इतने ज्यादा गलत समाज में इतने गलत ढंग से उसे जीना पड़ता है कि वह इतने टेंशन में, इतने तनाव में, इतनी अशांति में जीता है कि वह कैसे सहज हो सकता है? वह सहज नहीं हो पाता।
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३
देख कबीरा रोया-3