धार्मिक व्यक्ति राजनीति के प्रति उपेक्षा ग्रहण नहीं कर सकते, क्योंकि राजनीति पूरे जीवन को प्रभावित करती है “ओशो”

 धार्मिक व्यक्ति राजनीति के प्रति उपेक्षा ग्रहण नहीं कर सकते, क्योंकि राजनीति पूरे जीवन को प्रभावित करती है “ओशो”

ओशो– मैं कोई राजनीतिज्ञ नहीं हूं और न ही मैंने अपने किसी पिछले जन्म में ऐसे कोई पाप किए हैं कि मुझे राजनीतिज्ञ होना पड़े। इसलिए राजनीतिज्ञ मुझसे परेशान न हों और चिंतित न हों। उन्हें घबड़ाने की और भयभीत होने की कोई भी जरूरत नहीं है। मैं उनका प्रतियोगी नहीं हूं, इसलिए अकारण मुझ पर रोष भी प्रकट करने में शक्ति जाया न करें। लेकिन एक बात जरूर कह देना चाहता हूं, हजारों वर्ष तक भारत के धार्मिक व्यक्ति ने जीवन के प्रति एक उपेक्षा का भाव ग्रहण किया था।गांधी ने भारत की धार्मिक परंपरा में उस उपेक्षा के भाव को आमूल तोड़ दिया है। गांधी के बाद भारत का धार्मिक व्यक्ति जीवन के और पहलुओं के प्रति उपेक्षा नहीं कर सकता है। गांधी के पहले तो यह कल्पनातीत था कि कोई धार्मिक व्यक्ति जीवन के मसलों पर चाहे वह राजनीति हो, चाहे अर्थ हो, चाहे परिवार हो, चाहे सेक्स हो–इन सारी चीजों पर कोई स्पष्ट दृष्टिकोण दे। धार्मिक आदमी का काम था सदा से जीवन जीना सिखाना नहीं, जीवन से मुक्त होने का रास्ता बताना। धार्मिक आदमी का स्पष्ट कार्य था लोगों को मोक्ष की दिशा में गतिमान करना।

लोग किस भांति आवागमन से मुक्त हो सकें, यही धार्मिक दृष्टि की उपदेशना थी। इस उपदेश का घातक परिणाम भारत को झेलना पड़ा। मोक्ष है, इस जीवन के बाद और जीवन भी हैं, लेकिन यह जीवन भी है और यह जीवन आने वाले जीवनों से जुड़ी हुई अनिवार्य कड़ी है। जो इस जीवन की अपेक्षा करता है, वह आने वाले जीवन के लिए नींव नहीं रखता। वह आने वाले जीवन को भी नष्ट करने का प्रारंभ करता है। इस जीवन के प्रति उपेक्षा नहीं चाहिए। धर्म अब तक उपेक्षा किया था। अब धर्म अपेक्षा नहीं कर सकता है, क्योंकि धर्म की उपेक्षा, इनडिफरेंस का यह परिणाम हुआ कि सारी पृथ्वी अधार्मिक हो गई। यह सारी पृथ्वी के अधार्मिक हो जाने में अधार्मिक लोगों का हाथ नहीं है, इसमें उन धार्मिक लोगों की
उपेक्षा है जो जीवन के प्रति पीठ करके खड़े हो गए। अब आने वाले भविष्य में धार्मिक व्यक्ति अगर जीवन के प्रति पीठ करता है, तो उस व्यक्ति को हम पूरे अर्थों में धार्मिक नहीं कह पाएंगे।गांधी के बाद भारत में एक नया युग प्रारंभ होता है और वह नया युग यह है कि धर्म जीवन के प्रति भी रस लेगा, जीवन के समस्त पहलुओं पर धर्म भी अपना निर्णय देगा। इसका यह अर्थ नहीं है कि धार्मिक व्यक्ति दिल्ली की यात्रा करे, इसका यह अर्थ भी नहीं है कि धार्मिक व्यक्ति सक्रिय राजनीति में खड़े हो जाएं। लेकिन इसका मतलब यह जरूर है कि धार्मिक व्यक्ति राजनीति के प्रति उपेक्षा ग्रहण नहीं कर सकते, क्योंकि राजनीति पूरे जीवन को प्रभावित करती है।

मैं कोई राजनीतिज्ञ नहीं हूं लेकिन आंखें रहते देश को रोज अंधकार में जाते हुए देखना भी असंभव है। उतनी कठोरता, उतनी धार्मिक आदमी की कठोरता और पथरीलापन मैं नहीं जुटा पाता हूं। देश रोज-रोज प्रतिदिन नीचे उतर रहा है। उसकी सारी नैतिकता खो रही है, उसके जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, जो भी सुंदर है, जो भी सत्य है, वह सभी कलुषित हुआ जा रहा है। इसके पीछे जानना और समझना जरूरी है कि कौन सी घटना काम कर रही है। और चूंकि मैंने कहा कि गांधी के बाद एक नया युग प्रारंभ होता है, इसलिए गांधी से ही विचार करना जरूरी है।

गांधी एक धार्मिक व्यक्ति थे, लेकिन गांधी के आस-पास जो लोग इकट्ठे हुए, वे धार्मिक नहीं थे। और इससे हिंदुस्तान के भाग्य के लिए एक खतरा पैदा हो गया। गांधी राजनीतिज्ञ नहीं थे। गांधी के लिए राजनीति आपद-धर्म थी, इमरजेंसी थी। गांधी का मूल व्यक्तित्व धार्मिक था। मजबूरी थी कि वे राजनीति में खड़े थे, लेकिन उस राजनीति में भी उनके प्राणों को वह राजनीति कहीं भी छू नहीं सकी थी। उससे वैसे ही दूर थे जैसा कमल पानी में दूर होता होगा।

लेकिन उनके आस-पास जो लोग इकट्ठे थे, वे राजनीतिज्ञ थे, वे धार्मिक लोग नहीं थे। राजनीति उनका प्राण थी। गांधी के साथ रहने की वजह से धर्म और नीति उनका आपद-धर्म बन गई थी। उनके लिए नैतिकता मजबूरी थी। गांधी के साथ चलना हो तो नैतिकता की मजबूरी उन्हें ढोनी पड़ी। गांधी के लिए राजनीति मजबूरी थी, उनके आस-पास अनुयायियों के लिए, गांधीवादियों के लिए नैतिकता मजबूरी थी। गांधी के लिए राजनीति बाहर-बाहर थी, भीतर नीति थी। उनके अनुयायियों के लिए राजनीति भीतर थी, नीति बाहर-बाहर थी।

फिर जैसे ही सत्ता आई, एक क्रांतिकारी उलट-फेर हो गया। सत्ता आते ही गांधी का जो आपद-धर्म था–राजनीति–वह विलीन हो गया, गांधी शुद्ध नैतिक व्यक्ति रह गए और उनके अनुयायियों का जो आपद-धर्म था–नीति–वह विलीन हो गई, वे शुद्ध राजनीतिज्ञ रह गए। सत्ता के आते ही गांधी शुद्ध नैतिक व्यक्ति रह गए और उनके अनुयायी शुद्ध राजनीतिक व्यक्ति हो गए और उन दोनों के बीच जमीन-आसमान का फासला हो गया। एक इतनी बड़ी खाई हो गई जो आजादी के पहले कभी भी नहीं थी…

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३
देख कबीरा रोया-3