नीति का सूत्र है, कि तुम वही करो दूसरों के साथ जो तुम चाहते हो कि दूसरे तुम्हारे साथ करें, इसका परमात्मा, मोक्ष, ध्यान से कोई संबंध नहीं यह सीधी समाज व्यवस्था है “ओशो”
ओशो– कबीर कहते हैं, जब पाप और पुण्य भ्रम मिट जाते हैं। दोनों जल जाते हैं। पाप भी, पुण्य भी। तब भयो प्रकाश मुरारी। तभी मुरारी के दर्शन होते हैं। तभी परमात्मा की झलक आती है।
पाप और पुण्य दोनों के भीतर छिपा हुआ रोग है। वह रोग है, कर्ता का भाव। अहंकार। पापी कहता है, मैंने पाप किए। पुण्यात्मा कहता है, मैंने पुण्य किए। लेकिन दोनों में एक बात समान है–मैं।और पापी तो थोड़ा डरता है घोषणा करने में कि मैंने पाप किये। छिपाता है; पता न चल जाए। लेकिन पुण्यात्मा घोषणा करता है। बैंड-बजवाता है। डुंडी पिटवाता है, कि मैंने इतने पुण्य किए। पुण्यों का लेखा-जोखा रखता है। पापी तो भूल भी जाए, पुण्यात्मा नहीं भूलता। इसलिए पुण्यात्मा का बड़ा सूक्ष्म अहंकार होता है।
इस बात को खयाल में रख लो। नीति समझाती है पाप छोड़ो पुण्य करो। धर्म समझाता है, दोनों छोड़ो। क्योंकि जब तक कर्ता है, तब तक कुछ भी न छूटेगा। नीति कहती है, पाप त्याज्य है, पुण्य करणीय है। इसलिए नीति का धर्म से बहुत गहरा संबंध नहीं है। नास्तिक भी नैतिक हो सकता है। सोवियत रूस भी नैतिक है, और शायद तुम आस्तिकों से ज्यादा नैतिक है।
क्योंकि नीति का कोई संबंध परमात्मा से नहीं है। न नीति का कोई संबंध धर्म से है। नीति तो समाज व्यवस्था का अंग है। नीति का संबंध तो सामाजिक चेतना से है। तुम अच्छा करो, बुरा मत करो। क्योंकि तुम बुरा जिनके साथ करते हो, वे भी बुरा करेंगे। तुम अच्छा करोगे, वे भी अच्छा करेंगे। अच्छा करने से अच्छे करने संभावना बढ़ेगी। बुरा करने से बुरे करने की संभावना बढ़ेगी। धीरे-धीरे अगर सभी लोग बुरा करने लगें, तो तम भी बुरा न कर पाओगे।
तुम मुश्किल में पड़ जाओगे।
इसलिए नीति का सूत्र है, कि तुम वही करो दूसरों के साथ जो तुम चाहते हो कि दूसरे तुम्हारे साथ करें। इसका परमात्मा, मोक्ष, ध्यान से कोई संबंध नहीं। यह सीधी समाज व्यवस्था है।धर्म नीति से बहुत ऊपर है। उतने ही ऊपर है, जितना अनीति से ऊपर है। अगर तुम एक त्रिकोण बनाओ, तो नीचे के दो कोण नीति और अनीति के हैं और ऊपर का शिखर कोण धर्म का है। वह दोनों से बराबर फासले पर है। इसलिए धर्म महाक्रांति है। नीति तो छोटी सी क्रांति है, कि तुम पाप छोड़ो। धर्म महाक्रांति है, कि तुम पुण्य भी छोड़ो। पाप तो छोड़ना ही है, पुण्य भी छोड़ना है। क्योंकि जब तक पकड़ है, तब तक तुम रहोगे। पकड़ छोड़ो। कर्ता का भाव चला जाए।
☘️☘️ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३☘️☘️
कहै कबीर दीवाना-(प्रवचन–09)
अंधे हरि बिना को तेरा—(प्रवचन—नौवां)
दिनांक 19 मई, 1975
ओशो आश्रम, पूना